रोज ही सलीके से बने बिस्तर पर
मेरे जाते ही, पड़ जाती है सिलवटें..
एक सपाट सुन्दर सलीकेदार जगह पर,
रोज ही मेरी करनी के निशान बनते हैं।
उठते ही प्रतिदिन सिलवटें बहुत कुछ बताती हैं,
जो मेरे कर्मो को नित ही नये रूप मे दिखाती हैं।
हर सिलवट आकार से बहुत कुछ कहती हैं,
कभी खुशी मे लंबी तो विषाद मे छोटी बनती है।
कभी हताशा और नाकामी मे गड्डमगड्डा होती हैं,
तो कभी चिंतन मे खोई छोटे से गढ्ढे सी होती हैं।
कभी मुस्कुराती सी कभी अनमनी सी,
कभी अहं का अट्हास तो कभी चुप सी।
कभी भय व्याप्त अंर्तद्वंद का प्रलाप,
तो कभी कुछ खो डालने का संताप।
सिलवटो का बड़ा पुराना सिलसिला है,
शायद हमे ये जन्म से ही मिला है।
हर हरकत एक सिलवट है,
जब तक हरकत है तब तक सिलवट है।
हर सिलवट की एक कहानी होती है,
जब तक जीवन है इसकी भी रवानी होती है।
सोचता हूँ जब तक जीवन है ये सिलवटें हैं,
उसके बाद सब सपाट सा..सुन्दर और सलीकेदार.....
विवेक पान्डेय