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संस्कार: नये-पुराने!!!

17 मार्च 2015

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कहते हैं हमारे हिन्दुस्तानी समाज को जन्म से लेकर मरण १६ संस्कारों से गुजरना पड़ता है, जिसमे सोलहवाँ संस्कार मृत्यु-उपरान्त अंतिम संस्कार होता है! खैर हमारे यहाँ सारे मुद्दे संस्कारों से ही जुड़े होते हैं, कुछ भी गलत हो जाये तो दोष संस्कारों को ही दिया जाता है, ये बात ठीक वैसे ही है जैसे नेता लोग कुछ भी पंगा होने पर इलज़ाम विदेशी शक्तियों पर लगाते थे! मेरे मस्तिष्क में कई बार ये कल्पना कौंधती थी कि नेता के यहाँ औलाद हुई, सोते हुए नेता को उठाया गया (भाइयों! जागता हुआ नेता एक कल्पना है परन्तु सोता हुआ नेता एक सत्य है!), और जब बताया गया कि आपके यहाँ औलाद हुई है, तो हडबडा के नेता जी चिल्ला उठे कि ज़रूर इसमें किसी विदेशी शक्ति का हाथ है! खैर! ये तो कपोल-कल्पित बात है, परन्तु सत्य यह है कि गलती कोई भी करे परन्तु कठघरे में खड़े संस्कार ही होते हैं! हमारे एक परिचित थे, बेटा जब भी सुबह उठकर पैर छूता था तो वो सज्जन उसे आशीर्वाद दिया करते,”संस्कारवान भवः!” वस्तुतः पुत्र को भान होने लगा कि जो क्रिया-कलाप पिता करते हैं उसे संस्कार कहते हैं और विधुर पिता नित्य ही कन्याओं पर अपने अभिराम नयनों से “ताडासन” आजमाया करते थे जिसे उनका पुत्र बड़े ही गौर से देखा और आत्मसात किया करता था! इन आशीर्वादों और द्रष्टव्य संस्कारों का ये असर हुआ कि उनके लड़के पर नारी गरिमा को ठेस पहुँचाने के पच्चिसियों मामलात चल रहे हैं! शायद ये सज्जन भूल गए थे कि सिद्धांतों और संस्कारों का विषय “थ्योरेटिकल” नहीं होता है वरन “प्रैक्टिकल” या प्रायोगिक होता है,इसीलिए बुज़ुर्गवार से एक ही इल्तज़ा करता हूँ कि बच्चों को घुट्टी में प्रायोगिक संस्कार पिलायें न कि सैद्धांतिक! हमारे जितने बुज़ुर्गवार हैं उनका कहना था कि उनके समय के संस्कार वास्तव में जीवित थे और आजकल की पीढ़ी में संस्कार जीवाश्म की तरह पाए जाते हैं! मैं उन्हें याद दिलाना चाहूँगा कि ये उन्हीं के संस्कारों का नतीजा है कि नारी को या तो कोख में ही मारा जा रहा है या फिर दहेज के लिए प्रताड़ित करके इन्ही संस्कारों के अंतिम संस्कार के दर्शन जीवित अवस्था में करवा दिये जाते हैं ताकि ईश्वर के समक्ष वो इन संस्कारवान लोगों के संस्कार का बखान कर सके! फिर ऊपर से उनका ये कहना कि आजकल की फिल्मों और बुद्धूबक्से के कारण ये संस्कार पतित अवस्था में हैं! चलो आदरणीयों मान लिया आपकी बात को, परन्तु एक बात आपसे मैं ज़रूर जानना चाहूँगा! मान लीजिए आप किसी के घर जाते हैं और कोई आपके सामने नाश्ता और चाय रखता है और आपकी इच्छा खाने-पीने की नहीं है तो आप क्या करेंगे? साफ़ तौर पर आप मना कर देंगे और अपने अनुजों को भी चाय के नुक्सान से अवगत कराकर उनकी उत्कंठा शांत करेंगे! परन्तु आजकल न सिर्फ बुजुर्ग भी खुल्लेआम चाय के आस्वादन का मज़ा ले रहे हैं अपितु युवा पीढ़ी भी उन्हीं के बताये संस्कारी मार्ग का अनुसरण कर रसातल तक जा रही है! बुज़ुर्ग समाज को भी दोषारोपित करते हैं परन्तु हल जाते हैं कि वो स्वयं भी समाज का ही हिस्सा हैं और समाज का निर्माण भी उन्होंने ही किया है! मैंने बचपन में कही एक कहानी पढ़ी थी एक राजा ने अपनी सुरक्षा हेतु बन्दर को नियुक्त किया और बन्दर ने सुरक्षा करते करते एक मक्खी के चक्कर में तलवार से राजा की नाक काट दी! कुछ ऐसे मूल्य और संस्कार जिनका आजकल के ज़माने में कोई काम नहीं है उन्हें हमने तलवार पकड़ा दी है और वो हर रोज ही हमारी नाक काटते रहते हैं! मैं संस्कार के मूल को भूलने के लिए नहीं कह रहा हूँ अपितु मेरा मानना ये है कि इस संस्कार की धरा पर जितने ठूंठ खड़े हैं उन्हें उखाड़ा जाये और उनकी जगह नवपल्लव रोपित किये जाएँ और रही बात उन ठूंठों की तो उन्हें अंतिम संस्कार के हवाले कर तिलांजलि दे दी जाये!

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