विवाह या शादी हर इंसान का ख्वाब या सपना होती है और २५-२६ साल के होते ही कच्चा माल "प्रोसेस्ड" होकर बाजार में बिकने आ जाता है! जितनी अच्छी नौकरी, उतने ही अच्छे दाम!!! आजकल जिओतना फायदा सिडबी (स्माल इंडस्ट्रीज़ डेवेलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया) द्वारा स्थापित किये गए लघु उद्योगों में नहीं होता है उतना तो आजकल विवाह बाजार में संतानों के व्यापार में हो जाता है! मुझे तो लगता है सरकार को विवाह का व्यवसायीकरण कर देना चाहिए और इसमें भी विदेशी कंपनियों को अपना हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित करना चाहिए! मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि भारतीय जीवन में विद्यमान जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी सोलह संस्कारों से जुडी हर चीज़ों को बेचने के सार्वभौमिक अधिकार सरकार को वालमार्ट जैसी कंपनियों को दे देने चाहिए और साथ साथ स्विस बैंकों को भी खुश करना चाहिए!
जैसाकि सर्वविदित है कि विवाह में दो पक्ष होते हैं, एक दबंग और दूसरा दबावग्रस्त जिसे आप क्रमशः दीदी और अपने प्रधानमंत्री के रिश्तों के समान मान सकते हैं! यदि विवाह एक प्रेशरकूकर है तो दबंग उस कूकर के ढक्कन हैं और दबावग्रस्त उसके अंदर पकनेवाला भोजन, जिसे समाज दहेज की छाछ से खा-पीकर कभी भी और कैसे भी पचा जाता है!
दहेज, हमारे यहाँ की एक टोल-टैक्स व्यवस्था है जिसे वधु-पक्ष को वर-पक्ष को इसलिए देना पड़ता है ताकि वधु का वैवाहिक जीवन का पथ निष्कंटक बीत सके! परन्तु हाय इस समाजकी व्यथा देखिये कि कई चुंगी नाकों के थानेदार रातों रात चुंगी को इस तरह बढ़ाते हैं जैसे चुंगी कर न हो पेट्रोल के दाम हों! खैर सड़क की बात इससे सड़कछाप लोगों के लिए ही छोड़ देते हैं! सुना बताये हमारे पश्चिमी चचा, हाँ! हाँ!! वही अंकल सैम, भारत यानी कि अंकल स्कैम, की इस दहेज व्यवस्था में बहुत "इंटरेस्ट" ले रहे हैं! असल में वहाँ किसी भारतीय ने किसी अमरीकी उच्चाधिकारी के समक्ष ये बोल दिया है कि दहेज व्यवस्था में पैसे के नाम पार दुल्हनों का तेल निकला जाता है और जहाँ बात तेल की आ जाती है वहाँ अमेरिकियों के कान श्वान के माफिक खड़े हो जाते हैं!वहीँ दूसरी तरफ हमारा पडोसी चीन भी इस दहेज व्यवस्था में तथाकथित बहुत "इंटरेस्ट" ले रहा है! चीन भारत से इस व्यवस्था के सारे अधिकार खरीदने को बहुत उद्द्यत है! चीन का मानना है कि दहेज प्रथा से सबंधित सारी बातें "कम्युनिज्म" के सिद्धांतों से बहुत मेल खाती हैं क्यूंकि दोनों में ही निर्दोषों को बड़ी ही निर्दयता और निरंकुशता से दबाया, सताया और फिर मृत्यु के आँचल में सुलाया जाता है!
वहीँ सुना बताये भारतीय सरकार की मंशा दहेज के सन्दर्भ में दूसरी ही है! भारतीय सरकार दहेज को भी एफ. डी. आई. के परिक्षेत्र में लाना चाहती हैताकि अमेरिका और चीन को कुछ प्रतिशत अधिकार देकर भारतीय अर्थव्यवस्था जो कि स्विज़रलैंड को और सुदृढ़ बनाया जा सके! अगर विवाह के इस विशाल मंडप के नीचे ये एफ.डी.आई ना का दूल्हा खडा है तो नेताओं द्वारा तय किया गया ये विवाह भारतीय अर्थव्यवस्था और डॉलर के बीच ही होगा और विवाह पश्चात संतानों में मिलेंगी किसानों और व्यापरियों की आत्महत्या एवं महँगाई डायन!
मुझे तो ये भी लगता है कि वो दिन दूर नहीं हैं जब दहेज देना इतना दूभर हो जाएगा कि हमारे बैंकवाले इसमें भी कम ब्याज पर लोन देना शुरू कर देंगे और वधु-पक्ष का पालक शायद जिंदगीभर इसकी ई.एम.आई. भरता रह जाएगा! जिस हिसाब से कन्याओं की संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है वो दिन दूर नहीं जब बीवी रखना भी एक विलासिता का पर्याय बन जाएगा! मज़ा तो तब आता जब दुल्हों की विंडो-शोपिंग होती! दुल्हन के मान-बाप दूल्हा देखकर आँखों ही आँखों में तय कर लेते कि फलां दुल्हे के दा हम इससे ज्यादा नहीं देंगे और फिर विक्रेता पिता से थोड़ी भाव-तौल के बाद रिश्ता पक्का हो जाता!
हास्यास्पद हैं उन पिताओं की मानसिकता जो अपने बेटों को ऊँचे दामों में बेचने के लिए पढ़ाते हैं और उन्हें ये विश्वास दिलाते रहते हैं कि बेटा दहेज लेना तेरा अधिकार है मानो बेटा न हो आई.एस.आई मार्कां वस्तु हो गयी हो! मैं आलोचना उन वधु के पिताओं की भी करता हूँ जो अच्छे घर में शादी हो जायेगी के दबाव में आकर इन अनुचित मांगों को शह देते हैं, आप खुद ही सोचिये जिन घरवालों की मानसिकता शादी से पहले ही ऐसी है वो घर अच्चा कैसे हो सकता है! जिस तरह से बंदरिया अपने मरे बच्चे को जिंदा मान कर ढोती है तो क्यूँ ये समाज अबतक इस व्यवस्था को ढो रहा है! मैं अपने सामाजिक उल्यों का आदर करता हूँ परन्तु रीति-रिवाजों के नाम पर हो रहे इस खरी-फरोख्त का मैं पुरजोर विरोध करता हूँ! विवाह एक आत्मीय बंधन है, इसे क्रय-विक्रय का बाज़ार मत बनाइये! क्रय की हुई आधिकांश चीज़ें निर्जीव होती हैं जो घर तो बना सकतीं हैं परन्तु रिश्ते नहीं निभा सकतीं हैं!