"गलत हुआ बेचारी के साथ, कहीं का नहीं छोड़ा... मुंह दिखाने के काबिल न रही बेचारी... कैसे आंख मिलायेगी सबसे..."
जितने मुंह, उतने पितृसत्तात्मक समाज को प्रतिबिंबित करते जुमले... जिन्हें कातर भाव से सुनती, अपने कमरे में खुद को कैद किये, रोती सिसकती वह सुनती रही। कालोनी में रहती थी वह... कोई एसा घर न बचा जिसकी मालकिन ने उसकी देहरी पर आ कर जुबानी घाव न बनाये हों उसके शरीर पर... उसे यह अनूभूति सौंपने की कोशिश न की हो कि वह अब गंदी हो गयी है।
क्या वाकई... क्या वाकई वह किसी गंदे आदमी द्वारा खुद के छू लिये जाने पर गंदी हो गयी... अपवित्र हो गयी?
नहीं... वह एसी तो न थी, वह तो लड़ने वालों में से थी, अपनी मर्यादायें खुद तय करने वालों में थी, अपनी शर्तों पर जिंदगी जीने वालों में थी... फिर आज कैसे हार मान लेती।
उसकी आजादख्याली किसी के मर्दाने अहम को चोट पंहुचा गयी थी, उसके कपड़ों की लंबाई-छोटाई किसी के जननांग को पजामे से बाहर ले आयी थी, उसकी उच्छृंखलता किसी जानवर को आवेशित कर गयी तो उसने अपना सारा आक्रोश उसे रौंद कर निकाल दिया... तो इसमें उसकी क्या गलती? उसे मर्यादाओं के हवाले देने वालों ने खुद की मर्यादा का पास क्यों नहीं रखा?
बेरहमी से आंसू पोंछ कर उठ खड़ी हुई वह। गालों पर फैल गये काजल की न परवाह की और न पीछे रोकते रह गये घरवालों की... धड़धड़ाते हुए बाजार गयी और सौ गोल टोपियां खरीद लायी वह। घर कालोनी में सौ जो थे... फिर एक एक दरवाजे को खटखटा कर उसने सबको कालोनी के पार्क में आने को कहा।
वे सोच रहे थे, शायद सदमे से पगला गयी है... पर फिर भी पंहुच ही गये।
उसने गिन के हर घर के एक शख्स को एक टोपी पकड़ा दी, और खड़ी हो गयी चबूतरे पर बोलने के लिये...
"एक तरफ तो आप बोलते हो कि बेचारी के साथ गलत हुआ, दूसरी तरफ यह भी कि अब किसी से नजरें मिलाने के काबिल न रही... क्यों भाई, जिसके साथ गलत हुआ है, आपकी नजर में दोषी भी वही जिसके साथ गलत हुआ है। एसे आत्मा पर घाव बनाने वाले कितने शब्द ईजाद किये हैं आपने, गलत करने वाले मर्द के लिये-- बतायेंगे। जो समाज लड़कियों को बचपन से सिखाता है कि लड़कियों की तरह रहो, वो एक बार भी अपने लड़कों को क्यों नहीं सिखाने की कोशिश करता कि लड़कियों के साथ कैसे रहो... क्यों ढो रहे हैं आप अपने पुरखों की बनाई इस मान्यता को, कि जिस लड़की के साथ गलत हुआ है, शर्मशार भी वही हो... नजरें भी हमेशा उसी की झुकें।
आप हम पर तरस खाते हैं या हमारा मजाक उड़ाते हैं... हमें यह अहसास दिलाने की कोशिश करते हैं कि लड़के की इज्जत उसके स्वभाव में होती है, उसके आचरण में होती है, उसके कर्मों से होती है, उसके द्वारा संचित धन दौलत से होती है और लड़की की सम्पूर्ण इज्जत बस दो इंच की योनि में... कि कोई सरफिरा बलात् उस पर चढ़ बैठा तो उसकी इज्जत चली गयी, न रही, लुट गयी...
मेरा स्वभाव, मेरा आचरण, मेरे कर्म मेरी इज्जत के प्रतीक नहीं। मैं मलिन हो गयी, मैं अपवित्र हो गयी... मुझे गंदा करने वाला दोषी न हुआ, मैं ही दोषी हो गयी।
यह जो टोपियां मैंने आपको दी हैं, यह इसीलिये दी हैं कि आप अपनी नंगी सोच को यह टोपियां पहना सकें... शायद औरत को देखने का आपका नजरिया बदल जाये। मैं जब आपके सामने से गुजरूंगी तो मुझसे यह उम्मीद न पालियेगा कि मैं शर्मिंदा हो कर निगाहें नीची करके गुजरूंगी। मैं उसी गर्व से निगाहें उठा कर आपके सामने से गुजरूंगी... जिस गर्व को मैंने हमेशा जिया है। हाँ, अगर आपको मुझे देख कर शर्मिंदगी महसूस हो तो आप खुद अपनी निगाहें नीची कर लीजियेगा।"
वहां खड़ी भीड़ को उसका उठा हाथ नहीं दिखा था, पर जबरदस्त तमांचे की चोट सबने अपने गाल पर महसूस की थी और बिलबिलाते हुए लौट पड़े थे...
यह उसे भी पता था कि उसकी हरकत या उसके शब्द कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं लाने जा रहे थे, पर वह संतुष्ट थी कि उसने खुद से जंग जीत ली थी... छोटा न होने की, शर्मशार न होने की।