चचा लुकमानी भी अपने आप में विरले ही थे, कभी एक मर्डर के केस में फंस के अपने शहर से फरार हुए थे तो पलट के खबर न ली थी।
उन्हें दूरदराज के एक गाँव में शरण मिली थी और गाँव के बाहर स्थित गुलाम फलाने शाह बाबा की मजार पर डेरा डाल लिया था और चचा की सेवा से खुश हो कर मरते हुए मुजाउर बाबा फरीदी ने अपनी विरासत चचा को सौंप दी थी।
चचा ने भी तय कर लिया था कि अब बची खुची जिंदगी बाबा की सेवा में ही लगा देनी है।
हर जुमेरात मजार पर मेला सा लगता था और आसपास के कुछ गाँवों से आने वाला चढ़ावा इतना तो हो ही जाता था कि चचा के चिलम और खाने का इंतजाम हो जाता था।
चचा एक चोट खाने के बगैर रह सकते थे लेकिन चिलम के बगैर कटनी नामुमकिन थी... और चचा की तो बाकायदा चिलमी महफिल थी, जिसमें एक से बढ़कर एक नगीने थे।
उसमें लहरू, चितई, बाबर जैसे ऊंची मोहरी वाले चौबीस नंबर भी थे, जबरा जैसा उसका मजारी चेला भी और ननका जैसा पंडा भी... भले उन्होंने एक मुसल्ले पर कभी नमाज न पढ़ी हो, ननका कभी म्लेच्छों को न अपने घर ले गया हो और न किसी म्लेच्छ के घर गया हो... लेकिन कमबख्त वह चिलम की महफिल ही क्या जो मजहब से ले कर मसलक तक का भेद न मिटा दे।
और महफिल तो रोज जमती थी... तो आज कैसे न जमती।
चचा अभी बलंती से निपट कर हटे थे... यह बलंती भी अब मुंहजोर हो चली थी, कहां बीस रुपये में मान जाती थी, आज पचास लिये बगैर जान न छोड़ी। फारिग हुए ही थे कि चिलम के इंतजाम के साथ चठिया आ धमकी।
आज साले सब बजिद हो गये कि चचा आज महफिल में सुर छेड़ना ही पड़ेगा।
चचा गाने बजाने के परम शौकीन ठहरे... हर जुमेरात तो समां बांधते थे और उरस के टेम तो हफ्ते भर सुर ही सुर उगलते थे।
हार्मोनियम, तबला, ढोलक, शहनाई, झुनझुने सब तो वहीं थे... उठा लाये गये।
चिलम भर के सुलगाई गयी... सबने जोरदार सुट्टे लगाये और एक एक वाद्ययंत्र संभाल लिया। फिर चचा ने लंबा गहरा सुट्टा खींचा... दिमाग हरा हो गया, आंखे लाल।
साथियों ने बजाना शुरू किया और चचा ने बुलंद आवाज में सुर उठाया...
"नबी से दीन से दूरी... कयामत ढाने वाली है।
मुसलमानों संभल जाओ... कयामत आने वाली है।"
सारे श्रोता जोश में लोट गये।