शादी की झिलमिल रोशनी और किलकारियों भरी चहचहाहट के बीच नदीम हस्बे आदत मोबाइल और फेसबुक पर रत् था कि पास बैठे शकील की आवाज कानों में पड़ी,
'यह साले राफजी.. बुर्के का विरोध ऐसे करते हैं जैसे हम इनकी बहन बीवियों को जबरदस्ती बुर्का ओढ़ा रहे हों।'
'देखूं तो जरा।' कहते हुए उसने शकील से फोन ले लिया और फेसबुक की वह पोस्ट देखने लगा जहां किसी ने लिखा था कि बुर्का ही क्यों? क्या औरत बिना बुर्के के महफूज नहीं रह सकती?
उसने नीचे कमेंट में तत्काल लिखा, 'हां तो तू अपने घर की औरतों को बिकनी पहना, उन्हें नंगे घुमा और देख वे महफूज रहती है या नहीं। हमारे लिये तो औरत घर की जीनत है, हम उसे अपने तरीके से ही महफूज रखेंगे।'
तभी अनवर पुकारता हुआ आ गया, जिसकी बहन की शादी थी।
'अबे तुम लोग यहां बैठे हो और उधर अम्मा कह रही हैं कि औरतों का खाना भी शुरू करवाओ.. किस किस को लगा दूं?'
'अरे हम हैं न.. हम खिला देंगे। फिक्र मत करो।' कहा तो नदीम ने इतनी तेजी से था कि कोई और न बात लपक ले, उसके साथ ही पास बैठे शकील वगैरह सात-आठ लड़के जो और बैठे थे, वह भी खड़े हो गये।
और अगले दो घंटे तक वह सारे हिजाब समर्थक सजी संवरी घर की जीनतों के बीच नाचते फिरते खाना खिलाते रहे।