वैचारिक साम्य
के लिए ही
मरता है
हर कोई,
जो नहीं मरा,
वो जिया ही कहाँ ?
एक ही छत के
नीचे रहते हैं,
ये अपनी
तो वो अपनी
बात कहते हैं,
साथी तो हैं,
हमसफ़र हुए ही कहाँ ?
ज़्यादा नहीं,
एक ही मिल गया,
सुबह का दर्द
शाम को पिघल गया,
'गर दर्द पिघला नहीं
तो हमदर्द हुए ही कहाँ !
-उषा
मैं एक मनोवैज्ञानिक जिसका झुकाव दर्शन शास्त्र की ओर अधिक है पेशे से शिक्षिका प्रधानाचार्या और शौक के लिहाज़ से एक लेखिका ,कवियित्री, चित्रकार व गायिका . D