shabd-logo

कविता तुम जीवन हो

10 जून 2015

860 बार देखा गया 860
featured imageकविता, तुम ही तो जीवन हो, हंसती हो तुम्ही, हंसाती हो, रोती हो तुम्ही, रुलाती हो। तुम ही तो हो आकाश, चमकते जिसमे चाँद सितारे तुममे इतना विस्तार, कि जिसमे सारे लोग समाते। तुम गौरव-गाथा पूर्व युगों की, हो सम्मान बड़ों का, जगने वालों की पथ-प्रदर्शिका, सोने वालों को झकझोरने, हो शांत भाव उद्वेलित मन का। हो वीर भाव जुझारों का साहस हो हिम्मतदारों का हो प्रेम तुम्ही प्रेमी मन का । हो नफरत बुरे विचारों की, तुम ममता हो माता मन की, हो भक्ति भाव ईश्वर के प्रति तुम जननी आर्त पुकारों की। कविता तुम मत खो जाना, लेखन तुम बंद नहीं होना, ऐ शब्दकला, ऐ चित्रकला पहचान बनी रहना, मेरे इन हाथों की। -उषा
उषा यादव

उषा यादव

शब्दनगरी संगठन, रमेश कुमार सिंह जी, विजय कुमार शर्मा जी, डॉ. शिखा कौशिक जी, पुष्पा जी एवं तिवारी रोहित राज जी...आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ !

18 जून 2015

कुमार रोहित राज

कुमार रोहित राज

उषा जी आपकी रचना की शब्दमाला इतनी सुसंगठित है कि पाठक का चित्त कविता के केंद्र बिंदु पर केंद्रित होकर रह जाये और बार बार पढ़ने का मन करे ......बहुत सुन्दर रचना बधाई हो ....

11 जून 2015

पुष्पा पी. परजिया

पुष्पा पी. परजिया

सुन्दर शब्दों की माला आपकी ये कविता ........बधाई .

10 जून 2015

डॉ. शिखा कौशिक

डॉ. शिखा कौशिक

bahut sundar v sashakt rachna .badhai

10 जून 2015

विजय कुमार शर्मा

विजय कुमार शर्मा

कविता की ताकत का बहुत ही अच्छा बखान- भविष्य के लेखन के लिए भी शुभकामनाएं

10 जून 2015

रमेश कुमार सिंह

रमेश कुमार सिंह

कविता ही सबकुछ है बहुत सुंदर रचना!!बधाई।

10 जून 2015

शब्दनगरी संगठन

शब्दनगरी संगठन

कविता तुम मत खो जाना, लेखन तुम बंद नहीं होना, ऐ शब्दकला, ऐ चित्रकला पहचान बनी रहना, मेरे इन हाथों की...अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति...बधाई !

10 जून 2015

1

क्यों धरती काँप उठी

3 मई 2015
0
5
5

इतना मजमा जमा कर लिया हैइतना मलबा लाद दिया है कि जमीन का सीना काँप उठा है। साथ-साथ चलने की,सारी नसीहतें गुमशुदा है,करीब इतने है पर जुदा जुदा है। हर दूसरा हर पहले की ,टांग खीच लेता है,इस फिसलन से ,जमीन पर पड़ गयी है दरारें बोलो! इन्हे कैसे बटोरे ? कैसे संवारें?घर रहे ही कहाँ जो गिर गए,लोग रहे ही कहाँ

2

वायुयान

3 मई 2015
0
3
2

मौत तो बस, जमीन से आसमान तक की उड़ान है I ये तो नीचे सेऊपर ले जाने कावायुयान है I इसलिए डरने कातो कोई सबब ही नहीं है, हर एक ही तो नीचे से ऊपर उठने को बेसबर है ! -उषा

3

ज़िन्दगी को जो देखा तो .....

4 मई 2015
0
5
3

जिंदगी की नज़ाकत को जो देखा तो वो शीशा नज़र आई तो मैंने संभल के थाम लिया कि कहीं किसी मोड़ पर वो टूट न जाये, और फिर... अपनी ही तस्वीर हज़ार हज़ार टुकड़ों में बिखरी नज़र आई। फिर मुड़कर जो देखा तो वो कागज़ नज़र आई। कहीं उड़ न जाए सो पकड़ लिया कंही बिखर न जाए सो सहेज लिया और दास्तान-ए-जिंदगी लि

4

मेरा घर

6 मई 2015
0
1
1

मेरा घर अब कौरव सभा हो गया है, जहाँ दुर्योधन और दु:शासन, कर रहे हैं शासन, बेहूदा सोच हो गया है, ऐसा मेरा स्वदेश हो गया है हर पल अनिश्चित है, न जाने कब बिफर पड़े कोई, और लपककर द्रौपदी के केश पकड़ ले कोई, ऐसा उद्दंड हर बशर हो गया है, ऐसा मेरा स्वदेश हो गया है. एक नहीं, दो-दो शकुनि, षड़यंत्र क

5

निमंत्रण पत्र

12 मई 2015
0
4
2

स्नेहीजनों ने, अपने प्रियजनों को, निमंत्रण भेजा है विवाह का ! लिख भेजा है, आपका आगमन हमारा, सौभाग्य होगा ! ना आ सकने की स्थिति में, कोई विवाद भी न होगा. ऐसे ही कुछ-कुछ, फिर शुरू होती है, 'क्या करें' की कवायद ! कुछ इस तरह...कौन-कौन invited हैं? बगल वाली Mrs Jhingran और Mrs Yadav आप? चलेंग

6

सृजन का एक गीत

6 मई 2015
0
3
1

युगों से बह रहे विचारों के शांत सागर में जब कभी सीमाओं को लांघकर, कोई भाव असह्य हो जाता है, कविता का सम्बल ले, तभी जन-मानस राहत की सांस ले पाता है. इसलिए, कविता 'सविता' है, सृजन का एक गीत ! -उषा

7

हिंदी प्रेमी

6 मई 2015
0
2
0

एक हिंदी प्रेमी लगा रहे थे, ज़ोर-ज़ोर से नारा हिंदी जानो, सीखो और सिखाओ, अंग्रेजी हटाओ, तभी किसी श्रद्धालु ने पूछा आपका शुभनाम ? तपाक से बोले वो, मुझे कहते हैं 'सोभाराम' हिंदी की टूट गई टांग ! -उषा

8

वैचारिक साम्य

12 मई 2015
0
3
1

वैचारिक साम्य के लिए ही मरता है हर कोई, जो नहीं मरा, वो जिया ही कहाँ ? एक ही छत के नीचे रहते हैं, ये अपनी तो वो अपनी बात कहते हैं, साथी तो हैं, हमसफ़र हुए ही कहाँ ? ज़्यादा नहीं, एक ही मिल गया, सुबह का दर्द शाम को पिघल गया, 'गर दर्द पिघला नहीं तो हमदर्द हुए ही कहाँ ! -उषा

9

जीवन उपवन

13 मई 2015
0
3
2

जीवन उपवन, उपवन, मधुबन कान्हा का वृन्दावन, यदि ऐसा नहीं हुआ तो क्यों ? जीवन चिंतन, मंथन, कविता, लेखन, मन का धन, यदि नहीं मिला तो क्यों ? जीवन, चन्दन-चन्दन, महका दे जो तन-मन, यदि नहीं महक पाया तो क्यों ? जीवन कंचन-कंचन, कर्मों की रन-झुन, यदि नहीं सुनाई दी तो क्यों ? जीवन गुंजन-गुंजन, भौर

10

क़ैदी सुग्गा

13 मई 2015
0
4
1

रमुआँ ने खोल दिया पिंजड़े का दरवज्जा, फुर्र से उड़ गया कैदी एक सुग्गा I पेड़ पर जा बैठा, ऊपर-नीचे देखा I अरे ! आकाश जितना बड़ा, पिंजड़ा उतना ही छोटा, देता रहा रमुआँ, अब तक मुझे धोखा I खुर, खुर कर झाड़ दी बंदी धूल I पर स्वच्छंद, अब कहीं भी विचर सकता हूँ, मैं निर्द्वंद्व I ओह ! आकाश एक दुनिया,

11

मत पालो अवसाद

18 मई 2015
0
4
2

मत पालो अवसाद, औरों की बढ़ोत्तरी में, मत रोओ, हो सकता है, तुम्हें मिले वो, कुछ वर्षों के बाद ! ये संचय का मसला है, जिसने जितना जोड़ा, उसको उतना ही मिलता है। नहीं ज़रूरी फिर भी, अभी, अभी मिल जाए, हो सकता है, बाद तुम्हारे, वो प्रकाश में आए। राणा, रानी को ले लो, गिरजा, मंदिर को ले लो, सब ब

12

समय

19 मई 2015
0
4
2

ये समय है, दौड़ता है, जो खड़े हैं और केवल देखते हैं इसे, उनको छोड़ता है, बहुत पीछे। किन्तु वे जो चाहते हैं, साथ चलना, जानते हैं रुख बदलना, पहुँच पाएँ या न पाएँ ना सही, दौड़कर तो, देख लेते हैं वही। यही क्या कम है, ये समय है, एनआईटी संभावनाओं के लिए, क्यों लगाए आस हम बैठे रहें ? स्वाति की एक

13

नई पुरानी तौल

19 मई 2015
0
4
2

नई तौल की नई प्रणाली का सिक्का भी नया। 'हृदय', बुद्धि के बाँट से तौला गया। नई विचारधारा के अनुसार, अश्रु खारे हैं। मोती पुरानी तौल थी, भावों के प्रदर्शन पर 'फाइन' लगता है। हृदयहीन दिलदार कहलाता है। वैज्ञानिक बुद्धिजीवी तो कवि ढ़ोंगी कहलाता है। वैसे, मरते दोनों हैं; एक प्रयोग की सड़

14

वह स्वर्णिम समय

19 मई 2015
0
4
1

वह स्वर्णिम समय अब कहाँ रहा, जब न भय था न आतंक, हम रात, देर रात तक ताले नहीं लगाते, बस बेसुध सो जाते, पर चोर नहीं आते। रास्तों पर निशंक निकलते, क्योंकि, अपने से बड़े तो बस बेटी या बहन समझते, और साथी तो इतने शरमीले कि आँख नहीं मिलाते, एहसास ही नहीं था अपने अस्तित्व का बस सब में मैं, एक

15

क्यों चला गया ...

10 जून 2015
0
6
4

सोचोगे क्यों चला गया मै, ठहर ही जाता तो, अच्छा होता न जाने क्यों अनसुनी कर गया, कुछ सुन ही लेता तो अच्छा होता सोचा था जो, गर कर ही लेता तो, पछतावे का तो फिर गम न होता पहले ही देर हो चुकी थी, ज्यादा नहीं तो कुछ हाथ होता जला चुके थे वो आशियाना, हमी बुझा देते तो अच्छा होता वो बरस कर निकल गए

16

कविता तुम जीवन हो

10 जून 2015
0
6
7

कविता, तुम ही तो जीवन हो, हंसती हो तुम्ही, हंसाती हो, रोती हो तुम्ही, रुलाती हो। तुम ही तो हो आकाश, चमकते जिसमे चाँद सितारे तुममे इतना विस्तार, कि जिसमे सारे लोग समाते। तुम गौरव-गाथा पूर्व युगों की, हो सम्मान बड़ों का, जगने वालों की पथ-प्रदर्शिका, सोने वालों को झकझोरने, हो शांत भाव उद्व

17

एक संस्मरण

15 जून 2015
0
8
7

मैं तुम्हारे घर गया था, तुम मिलीं न माँ मिली, चुपके से कहीं अपनत्व की आहट मिली, दो भागोनों में भरा पानी दिखा, एक तुमने भरा होगा, एक अम्मा ने भरा, बन गया साग़र... मैं खड़ा उन मोतियों से झोलियाँ भरता रहा। ... एक बिस्तर, दो बैठकें, एक टी0 वी0 यही हुलिया था तुम्हारे, नेह पूरित रूम का, मैं नहीं चू

18

क़लम ही तो है, लिख चली...

29 फरवरी 2016
0
5
0

हवा कितनी कुरकुरी हो गयी है,कि रोंगटे खड़े हो गए हैं;जानते हुए कि सिहरन में सिहर जाता है तन-मन,फिर भी... हम बार-बार वहीं खड़े होते है जहाँ चुभ रही है हवा छेद-छेद कर;पर ऐसा क्यों ?शायद मन का यही करथमा है कि... बार-बार घूम आने के बाद भी वहीं-वहीं फिर रमता और बसता है। अच्छा है शीत लहर का आभास सिर्फ वहां

19

The Sun

17 जून 2016
0
1
0

Wrapped in, linen,Soft and pink,Emerges the baby SUN,From the eastern wing.Trembles not, Nor does he stumble;Though yet a baby,Rises with a steady walk.In a pram, orangish yellow;Keeps pushing upright,Making the baby;Looks a little more bright.And adolescent, riding a chariot not pram;Changed to bri

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए