मेरा घर अब कौरव सभा हो गया है,
जहाँ दुर्योधन और दु:शासन,
कर रहे हैं शासन,
बेहूदा सोच हो गया है,
ऐसा मेरा स्वदेश हो गया है
हर पल अनिश्चित है,
न जाने कब बिफर पड़े कोई,
और लपककर
द्रौपदी के केश पकड़ ले कोई,
ऐसा उद्दंड हर बशर हो गया है,
ऐसा मेरा स्वदेश हो गया है.
एक नहीं, दो-दो शकुनि,
षड़यंत्र की फड़े बिछाए बैठे हैं,
एक महाभारत तो हो चुका,
दूसरा एक और भी होना है.
जिस घर के आँगन में,
गरिमामयी सादगी से,
रानियां, कुमारियाँ,
इस कमरे से उस कमरे तक
नि:शब्द डोल जाती थीं,
चेरियाँ बोल न पाती थीं.
आज उसी आँगन में,
निरंकुशता का रौरव हो गया है,
मेरा घर ...
सुई की नोक क्या,
अब नोक पर भी
द्वन्द्व हो गया है
मेरा घर...
मैंने इस सभा में
हाथ उठा-उठा कर
सुमति के महत्व का,
बखान किया है,
निज कुटुंब का गौरव-गान किया है.
किन्तु...
मेरा यह प्रयास भी
श्री कृष्ण के प्रयास सा
विफल रहा है.
मेरा घर अब कौरव सभा हो गया है I
-उषा
ऐसा भी क्या की मेरे विचार मुझसे बनकर मुझमें ही गुम हो जाएँ. चाहती हूँ मैं, कि ये मुझमें जन्म लें, बाहर आएं, पौधे बनें, फूल बनें, फिर फल बन जाएं, जिन्हें सभी सराहें और खाएं... D