रमुआँ ने खोल दिया पिंजड़े का दरवज्जा,
फुर्र से उड़ गया कैदी एक सुग्गा I
पेड़ पर जा बैठा, ऊपर-नीचे देखा I
अरे ! आकाश जितना बड़ा, पिंजड़ा उतना ही छोटा,
देता रहा रमुआँ, अब तक मुझे धोखा I
खुर, खुर कर झाड़ दी बंदी धूल I
पर स्वच्छंद, अब कहीं भी
विचर सकता हूँ, मैं निर्द्वंद्व I
ओह ! आकाश एक दुनिया,
सूरज सोने का बड़ा सा गोला
और विचरते हैं, इतने अन्य सम्बन्धी
रमुआँ तो कहता था सभी हैं बंदी I
मुक्ति कितनी मीठी है, पिंजड़े की खीर,
तभी तो सीठी है I
तभी पुकार उठा रमुआँ,
'पट्टे पढ़ो ! चित्रकूटी, ढूढ़ रोटी I '
नहीं ! नहीं ! मैं खा लूँगा रूखी सूखी !'
-उषा
मैं एक मनोवैज्ञानिक जिसका झुकाव दर्शन शास्त्र की ओर अधिक है पेशे से शिक्षिका प्रधानाचार्या और शौक के लिहाज़ से एक लेखिका ,कवियित्री, चित्रकार व गायिका . D