वह साल सन चौहत्तर था। दिसंबर महीने की सुनहरी धूप पीली चिड़िया की जैसी फुर्र से देखते ही देखते आसमान के उस पार निकल जाती। दिन बड़े लुभावने लगते।
तब की बात है मैं पटना में रहकर पढ़ाई करने लगा था। गाहे बगाहे साहोबीघा आना जाना लगा रहता था। एक बजकर पाँच मिनट की ट्रेन से हम जहानाबाद आते और फिर बस स्टैंड से ही साहोबीघा जानेवाली बस में सवार हो जाते। बस सवारियों से खचाखच भरी रहती। तिल रखने तक की जगह नहीं। ऐसा लगता जैसे सारा शहर आज ही यात्रा पर निकल पड़ा है।
के जी एन कंपनी की बस के ड्राइवर करैला मियाँ हुआ करते। करैला मियाँ पैसेंजरों के द्वारा दिया हुआ काल्पनिक नाम था। ड्राइवर करैला शब्द से बहुत चिढ़ता था, इसलिए उसे करैला नाम से लोग चिढ़ाते थे।