आज!
तेरे पास,
मेरे लिए!
वक्त नहीं ।
जब कि-
मैंने!
खर्च कर दिया,
अपनी!
सारी की-
सारी!
भावनाओं को,
जो तेरे!
वक्त से ज्यादा,
मूल्यवान रहीं।
यह-
समझकर,
कि-
तुम भी!
समझ सकोगी,
मेरी भावनाएं!
लेकिन-
तुम तो,
वक्त का-
परिंदा निकली।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
(चित्र:साभार)