कागज़ की कश्ती बनाके समंदर में उतारा था
हमने भी कभी ज़िंदगी बादशाहों सा गुजारा था,
बर्तन में पानी रख के ,बैठ घंटों उसे निहारा था
फ़लक के चाँद को जब, जमीं पे उतारा था,
न तेरा था न मेरा था हर चीज़ पे हक हमारा था
मासूम सा दिल जब कोरे कागज़ सा हमारा था,
बे-पनाह सी उमंगें थी,कई मंज़िल कई किनारा था
अब तन्हा जी रहे हैं हम तब महफ़िलों का सहारा था,
………..इंदर भोले नाथ.………..