जब उस,खंडहर से बिराने मे…
जहाँ मीली थी बेसुमार,
खुशियाँ,हमें किसी जमाने मे…
आज वो बदल सा गया है…
जो कभी खिला-खिला सा था,
आज वो ढल सा गया है…
आने का उसे इंतेजार हो…
न जाने कब से वो किसी,
से मिलने को बेकरार हो…
वो किसी के जाने से…
लगे सिने मे उसके गम,
कोई गहरा हुआ सा हो..
वो गुज़रा हुआ सा वक़्त,
वहीं ठहर हुआ सा हो…
अपनी आतुर निगाहों से…
कई दर्द उभर रहे थें,
उसकी हर एक आहों से…
मुझे देखता ही रहा गया…
उसकी खामोशियों ने जैसे,
हमसे सब कुछ हो कह दिया…
क्या हाल सुनाउँ मैं तुमसे,
अपने दर्द के आलम का…
बिछड़ के तूँ भी तो,
हमसे तन्हा ही रहा…
मिलके,दोनो ही रोते चले गये…
निकला हर एक आँसू,
ज़ख़्मों को धोते चले गये…
एक-दूसरे के आगोश मे…
जैसे बरसों बाद मिला हो,
बिछड़ के कोई “दोस्ताना”…
मासूम सा “बचपन” का वो ठिकाना…