भाग - 3
लगभग पाँच दिन मोहनी को यूं ही मायके में निकल गया, लेकिन वह खिड़की एक - दिन भी नहीं खुली।
मोहनी को यह समझ में नहीं आ रही थी कि उसे क्या हो गया है....?
क्या वह कमरा खाली करके चला गया, जो अक्सर खिड़की से झांक कर मुझको देखकर मुस्कुरा उठता था। लेकिन कभी वह कुछ बोलता नहीं था।
जब मैं छत पर किसी काम से जाती, तो वह भी भागता हुआ अपने छत पर आता, लेकिन सामने कभी नहीं आता था। वह सीढ़ियों के पास से ही मेरे छत की ओर देखता।
और मुझे छत पर से नीचे उतरने से पहले हीं वह अपने छत पर से नीचे उतर आता था।
वो लगभग एक साल से ऐसा हीं करते आ रहा था, लेकिन न मैं आजतक उसका नाम जान सकी और न कभी वो सामने आने का हिम्मत जुटा पाया।
खैर, इसी सोच-विचार करते-करते पंद्रह दिन मोहनी को मायके में निकल गयें, और एक दिन ससुराल से बुलावा आ गया। मोहनी ससुराल चली गयी ..... ।
दो साल बाद...।
और फिर दो साल बाद मोहनी मायके वापस लौटी तब... ।
अबकी बार मोहनी के साथ में रोहन भी था...।
और...
मोहनी जब दो साल के बाद मायके लौटी तो वह बहुत ही खुश दिखाई दे रही थी, तथा साथ में रोहन भी।
दो साल में इस शहर में बहुत कुछ बदल गया था। जो मोहनी के मकान के इर्द-गिर्द पहले खाली और परीत खेत दिखाई देतें रहतें थें, आज उनमें नये-नये बहुमंजिले मकान बन गयें थें। बड़े - बड़े अपार्टमेंट से लेकर माॅल तक हवा में सिर उठाये बदलते हुए शहर के परिवेश का साक्षी बन रहें थें।
और जहाँ तक मिक्की की बातें करें तो...
मिक्की भी पहले से ज्यादा दो साल के अंदर ही बड़ी दिखाई देने लगी थी। उसका शरीर पहले से कहीं ज्यादा हस्टपुस्ट हो गई थी। मिक्की की बड़ी - बड़ी आँखों में देखने से ऐसा लगता था कि वह पुरी दूनिया को अपने आँखों की गहराई में समेट लेगी। मिक्की की आवाज में इतना जादू था कि रोहन तो मिक्की की सुरीली आवाज को सुनतें ही स्वयं को रोक नहीं पाता था।
जब मिक्की ने रोहन को देखकर मुस्कुराती हुई अपनी बहन मोहनी से बोली थी, - "अबकी बार न जीजू, मैं आपको यहाँ से जल्दी नहीं जाने दूंगी और नहीं दीदी को समझे की ना समझें...।"
तब मिक्की को इस मधूर विनय भरी बातों पर रोहन ने मुस्कुराते हुए आँखों ही आँखो में ज्यादा न बोलने की सलाह देते हुए आगे उस दिशा की ओर बढ़ चला था, जिधर मोहनी के पिता जगदीश बाबू कुर्सी पर बैठे हुए समाचार पत्र पढ़ रहें थें।
रोहन को पता था कि जो मिक्की मुझसे मोबाइल फोन पर घंटों प्रेम भरी बातें किया करती है, कहीं मोहनी के सामने कुछ और न बोल दे तो समस्या बन जायेगी, इसलिए उसके सामने से फिलहाल हट जाना ही उचित होगा।
यह सोचते हुए....
रोहन ने आगे बढ़कर जगदीश बाबू को पैर छूकर आशिर्वाद लिया, और आशिर्वाद लेने के बाद बोल पड़ा. - "डैड मोहनी को इसी शहर में.... ।"
रोहन इससे ज्यादा कुछ और बोल पाता उससे पहले,
"मैं जानता हूँ... बैठिए।" - कुछ इसी अंदाज में विजय बाबू ने रोहन से बातें की जैसे कि वो रोहन से कोई ज्यादा खुश नहीं हों।
जगदीश बाबू की बातें सुनकर रोहन पर क्या असर हुआ ये तो रोहन ही जानें, लेकिन वो सामने लगे कुर्सी पर बैठते हुए एक व्यंग्यात्मक भाव चेहरा पर अवश्य ले आया था।