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“क़ता”

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“कता”चाहत तो होती है पा लूँ तुझे। उड़ आऊँ कैसे मैं छा लूँ तुझे। रहते बालम जिया बन गगन क्यों- सुन सकोगे सजना गा लूँ तुझे॥खिली धवल चाँदनी हँसने लगे। टपकी बूँद बदरी डँसने लगे। भिगाती हवा हिया काँटा चुभे- निरे आवारे हो भसने लगे॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

बह्र- २२२१ २२२१ २२२१ २१२ काफ़िया-अते, रदीफ़- आर में “क़ता”हम भी आ नहीं पाए तिरे खिलते बहार मेंतुम भी तो नहीं आए मिरे फलते गुबार में इक पल को ठहर जाते कभी तुम भी पुकार करतो शिकवा न करती डगर बढ़ी ढ़लते किनार में॥ महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी

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