प्रिय सखी।
कैसी हो ।हम अच्छे है । औरों का पता नही हम पूर्णतः स्वस्थ है। हां लोग कोशिश करते है अपनी बीमारी दूसरे पर लादकर उसे बीमार घोषित करने मे लगे रहते है पर जनता और जानकार बेवकूफ नहीं है उन्हें समझ आता है कौन सही है कौन गलत।अब तुम्हें बताऊं सखी कल मेरे साथ क्या हुआ ।कोई "नव्या " नाम से एक पाठक थी भगवान जाने थी या बनाईं गयी थी वो हमारे दूसरे मंच तक भी पहुंच गयी और वहां पर हमारी रचनाओं पर बेसिर पैर की समीक्षाएं देने लगी ।ऐसी मानसिकता वालों को ये नही पता कि धावक जितनी बाधाएं उसके रास्ते मे आती है उनको पार करके वो और तेज दौडता है।
आज तो ससुर जी का श्राद्ध है ।सुबह ही जल्दी उठकर सब तैयारी की । पतिदेव थोड़ा क्या पूरे नास्तिक है। इसलिए उनका सुबह सुबह ही पति पुराण चालू था।
अब आज के दैनिक विषय पर आते है
"बचपन की मित्रता"
दोस्त एक ऐसा व्यक्ति होता है जिससे हम अपने मन की सारी बातें कर लेते है ।और वह बचपन का हो तो क्या कहने ।खैर बचपन मे हम लड़कों की तरह रहते थे ।सोई लड़कियां हमारे साथ चलने मे सेफ महसूस करती थी।अकसर लड़कों को पीट देते थे ।बचपन मे तो कोई खास दोस्ती नही थी हमारी पर कालेज टाइम का एक किस्सा है हमारे जेहन मे वो बताना चाहेंगे।
हम ने कालेज मे नया नया एडमिशन लिया था।उस दिन क्लास मे एक और नया एडमिशन हुआ था । मुझे याद है वो लडकी ऊंची सी पोनीटेल बना कर , चश्मा लगाकर क्लास मे आई।मै हमेशा से एक अलग पर्सनैलिटी की लड़कियों से दोस्ती करती थी।वो मुझे पढ़ाकू किस्म की लगी उसका नाम "किरन" था।
धीरे धीरे मेरी और उसकी दोस्ती हो गयी।हम दोनों हमेशा साथ रहते कालेज मे ।पर मुझे आश्चर्य होता जब हम लंच करते तो वो कभी भी अपना लंच मुझसे शेयर नही करती थी। हां मेरा खा लेती थी ।वो कभी अपने नाम के साथ अपना सरनेम नही लगाती थी।
एक दिन मैने ऐसे ही उससे पूछ लिया ,"किरन । क्या कारण है जो तुम अपना लंच शेयर नही करती।"
"बस ऐसे ही ।"उसने आंखों मे आंसू भरकर कहा।
मैंने कहा,"और हां तू अपने नाम के आगे सरनेम भी नही लगाती"
वो एकदम से बोली,"अगर मै अपना सरनेम बता दूंगी तो तुम मेरा खाना तो दूर ।मेरी दोस्ती तक तोड़ दोगी।"
अब तो मुझे पूरी उत्सुकता हो गयी उसका सरनेम जानने मे मैने उससे पूछा,"अब बताओ भी तुम्हारी कास्ट क्या है ?"
वह बोली,"हम चमार है।"
मै जोर से हंसी और उठ पड़ी वो बोली,"बस मुझे पता था तुम मेरी दोस्ती तोड़ कर चली जाओगी।"
मैं उसके पास गयी और उसका हाथ पकड़ा और बोली,"चलो"
वह बोली,"कहां?"
मैंने ह़सते हुए जवाब दिया,"तुम्हारे घर।खाना नही खिलाओगी अपनी मम्मी के हाथ का।"
कसम से वो रोने लगी ।हम दोनों उसके घर गये और हम ने एक ही थाली मे खाना खाया।
हमारी दोस्ती बहुत सालों तक रही ।फिर वो अपनी दुनिया मे रम गयी और मै अपनी।
बहुत से ऐसे भी दोस्त होते है जो अपने दोस्त की ग़लत बातों मे आंख मींचकर उसका साथ देते है ।वो उसे एहसास नही दिलाते की तुम यहां पर गलत हो ।ऐसा मत करो।वो सच्ची दोस्ती का कितना ही दंभ भरे वो सच्चे दोस्त कभी नही हो सकते।
अब चलते है सखी। उपन्यास जो प्रतियोगिता में है दूसरे मंच पर उसका भाग भी लिखना है।अब अलविदा।