इंसान की कीमत दूनिया में कुछ भी तो नहीं रह गई है,
इंसानियत की लत स्वार्थ के सैलाब में कहीं बह गई है.
किसी को किसी के दर्द से कोई पीड़ा नहीं होती यहां,
अपना अपना राग अपनी अपनी डफली ही रह गई है,
झूठ और बेईमानी का जाल फैल चुका है चारों तरफ,
सच्चाई और ईमानदारी की इमारत तो जैसे ढह गईं है.
ईर्ष्या का छाया कहर है लालच ने बसाए कईं शहर हैं,
कैसे भूल गए हम, ऋषियों की वाणी कया कह गई है.
आइए खुद से शुरूआत करते हैं बुराई को मात देते हैं,
उठो अब वीरो,अच्छाई ने जो सहना था वो सह गई है.