“दोहा-मुक्तक”न्याय और अन्याय का किसको रहा विचार। साधू बाबा भग गए शिक्षा गई बेकार। नौ मन का कलंक लिए नाच रहा है चोर- दशा फिरी है आठवीं पुलक उठी भिनसार॥-१ दौलत का इंसाफ हो हजम न होती बात। सब माया का खेल है ठिठुर रही है रात। हरिश्चंद्र ओझल हुए सत्य ले गए साथ- बिन सबूत दिन
“दोहा-मुक्तक”घर की शोभा आप हैं, बाहर में बहुमान भवन सदन सुंदर लगे, जिह्वा मीठे गानधाम धाम में वास हो, सद आचरण निवासभक्ती भक्त शिवामयी, शक्ति गुणी सुजान॥-१घर मंदिर की मूर्ति में, संस्कार का वास प्रति मनके में राम हैं, प्रति फेरा है खाससबके साथ निबाहिए, अंगुल अंगुल जापनिशा
“दोहा मुक्तक”भूषण आभूषण खिले, खिल रहे अलंकार। गहना इज्जत आबरू, विभूषित संस्कार। यदा कदा दिखती प्रभा, मर्यादा सम्मान- हरी घास उगती धरा, पुष्पित हरशृंगार॥-१गहना हैं जी बेटियाँ, आभूषण परिवार। कुलभूषण के हाथ में, राखी का त्यौहार। बँधी हुई ये डोर है, कच्चे धागे प्रीत- नवदुर्गा की आरती, पुण्य प्रताप अपार
“दोहा मुक्तक”यह तो प्रति हुंकार है, नव दिन का संग्राम। रावण को मूर्छा हुई, मेघनाथ सुर धाम। मंदोदरी महान थी, किया अहं आगाह- कुंभकर्ण फिर सो गए, घर विभीषण राम॥-१ यह दिन दश इतिहास में , विजय पर्व के नाम। माँ सीता की वाटिका, लखन पवन श्रीराम। सेतु बंध रामेश्वरम, शिव मय राम मह
"दोहा मुक्तक" भर लो चाह बटोर कर, रख अपने भंडार। खड़ी फसल यह प्रेम की, हरियाली परिवार। बिना खाद बिन पान के, निधि अवतरे सकून- मन चित मधुरी भाव भरि, ममता सहज दुलार।।-1 प्रेम खजाना है मनुज, उभराता है कोष। अहंकार करते दनुज, निधि होती निर्दोष। कभी गिला करती नहीं, रखती सबका मान- पाए जो बौरात वह, संचय भार
"दोहा मुक्तक" अमिय सुधा पीयूष शिव, अमृत भगवत नाम सोम ब्योम साकार चित, भोले भाव प्रणाम मीठी वाणी मन खुशी, पेय गेय रसपान विष रस मुर्छित छावनी, सबसे रिश्ता राम।।-1 अमृत महिमा जान के, विष क्योकर मन घोल गरल मधुर होता नहीं, सहज नहीं कटु बोल तामस पावक खर मिले, लोहा लिपटे राख उपजाएँ घर घर कलह, निंदा कपट क
“दोहा-मुक्तक”नित मायावी खेत में, झूमता अहंकार। पाल पोस हम खुद रहे, मानों है उपहार। पुलकित रहती डालियाँ, लेकर सुंदर फूल- रंग बिरंगे बाग से, कौन करे प्रतिकार॥-१पक्षी भी आ बैठते, तकते हैं अभिमान। चुँगने को दाना मिले, कर घायल सम्मान। स्वर्ण तुला बिच तौल के, खुश होत अहंकार-चमक
शीर्षक -- फसल/ समानार्थी (एच्छिक मापनी) “दोहा मुक्तक” जब मन में उगती फसल, तब लहराते खेत खाद खपत बीया निरत, भर जाते चित नेत हर ऋतु में पकती फसल, मीठे मीठे स्वाद अपने अपने फल लिए, अपने अपने हेत॥-1 कभी क्रुद्ध होती हवा, कभी फसल बीमार गुर्राता है नभ कभी, कृषक
“दोहा-मुक्तक” घिरी हुई है कालिमा, अमावसी यह रात क्षीण हुई है चाँदनी, उम्मीदी सौगातहाथ उठाकर दौड़ता, देख लिया मन चाँद आशा में जीवन पला, पल दो पल की बात॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
“दोहा मुक्तक” माँ माँ कहते सीखता, बच्चा ज्ञान अपार माँ की अंगुली पावनी, बचपन का आधार आँचल माँ का सर्वदा, छाया जस आकाश माँ की ममता सादगी, पोषक उच्च बिचार॥-1 माँ बिन सूना सा लगे, हर रिश्तों का प्यार थपकी में उल्लासिता, गुस्सा करे दुलार करुणा की देवी जयी, चाहत सुत