*बुंदेली कुण्डलिया:-*दारू में गुन भौत है, दारू करती ढ़ेर।दारू से कइयक मिटे, पार लगे ना फैर।।पार लगे ना फेर, ग्रहस्थी चौपट देखें |आन-वान सँग
"कुंडलिया"गुड़तिल मिलकर खाइये, सुंदर बने विचारस्वाद भरी खिचड़ी भली, मकर महा त्यौहारमकर महा त्यौहार, पतंगा उड़े गगन मेंक्यारी महके फूल, सुबासित पवन चमन मेंकह 'गौतम' कविराज, रहो रे घर में हिलमिलसीख दे रहे धान, मिलाकर रखना गुड़तिल।।महातम मिश्र 'गौतम' गोरखपुरी
"कुंडलिया"हँसते कुछ कुछ रो रहे, हैं भावों के रूप ईमोजी के खेत में, चेहरे चर्चित चूपचेहरे चर्चित चूप, धूप में छाँव तलाशेबारिश की दीवार, कहाँ तक धरे दिलाशेकह गौतम कविराज, नींव दलदल में फँसतेरिश्ता बिन महमान, देख सब यूँ ही हँसते।। महातम मिश्र 'गौतम' गोरखपुरी
"कुंडलिया"मधुवन में हैं गोपियाँ, गोकुल वाले श्याम।रास रचाने के लिए, है बरसाने ग्राम।।है बरसाने ग्राम, नाम राधिका कुमारी।डाल कदम की डाल, झूलती झूला प्यारी।।कह गौतम कविराय, बजा दो वंशी उपवन।गोवर्धन गिरिराज, आज फिर आओ मधुवन।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"बचपन में पकड़े बहुत, सबने तोतारामकिये हवाले पिंजरे, बंद किए खग आमबंद किए खग आम, चपल मन खुशी मिली थी कैसी थी वह शाम, चाँदनी रात खिली थीकह गौतम कविराय, न कर नादानी पचपनहो जा घर में बंद, बहुरि कब आए बचपन।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"बंसी मेरे बीच में, क्यों आती है बोलकान्हा की परछाइयाँ, घूम रही मैं गोलघूम रही मैं गोल, राधिका बरसाने कीमत कर री बेहाल, उमर है हरषाने कीकह गौतम कविराय, मधुर बन पनघट जैसीछोड़ अधर रसपान, कृष्ण की प्यारी बंसी।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"मेरे बगिया में खिला, सुंदर एक गुलाबगेंदा भी है संग में, मीठा नलका आबमीठा नलका आब, पी रही है गौरैयारंभाती है रोज, देखकर मेरी गैयाकह गौतम कविराय, द्वार पर बछिया घेरेसुंदर भारत भूमि, मित्र आना घर मेरे।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"बदरी अब छँटने लगी, आसमान है साफधूप सुहाना लग रहा, राहत देती हाँफराहत देती हाँफ, काँख कुछ फुरसत पाईझुरमुट गाए गीत, रीत ने ली अंगड़ाईकह गौतम कविराय, उतारो तन से गुदरीकरो प्रयाग नहान, भूल जाओ प्रिय बदरी।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"चादर बर्फीली तनी, पसरा बर्फ दुवारकैसे ओढ़े री तुझे, हड्डी चढ़ा बुखार।।हड्डी चढ़ा बुखार, निखार कहाँ से लाऊँकाँप रहे हैं होठ, गीत प्रिय कैसे गाऊँ।।कह गौतम कविराय, हाय री ठंडी दादरगर्म न होती रात, दिवस में भीगे चादर।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"उलझन में है गागरी, लेकर पतली डोर।लटका रक्खी कूप में, यह रिश्ते की छोर।।यह रिश्ते की छोर, भोर टपकाए पानी।ठिठुर रही है रात, घात करती मनमानी।।कह गौतम कविराय, न राह सुझाती सुलझन।गोजर जैसे पाँव, लिए लहराती उलझन।।उलझन मत आना अभी, लेकर अपने पाँव।गाय बछेरु ठिठुरते, काँप रहा घर गाँव।।काँप रहा घर गा
कुंडलियामाना दिल से आप ने, जिसको अपना देश।वही खा गया आप को, धर राक्षस का वेश।।धर राक्षस का वेश, विशेष कहूँ क्या मितवा।बँटवारे की रात, सो गए सारे हितवा।।कह गौतम कविराय, छद्म को किसने जाना।राजा हुए गुलाम, ध्येय गद्दी को माना।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"अंकुश अपने आप पर, रखना मित्र जरूर।जीवन की नौका बहुत, होती है मगरूर।।होती है मगरूर, बहा ले जाती धारा।बहुत फिसलते घाट, न पकड़े बाँह किनारा।।गौतम मीठी बात, करो दिल होता है खुश।संयम अरु नियंत्रण, सु-गहना होता अंकुश।।खलती है दिन-रात प्रिय, पावंदी की बात।बचपन की हर चाल पर, मिले मुफ्त सौगात।।मिले
शारदीय नवरात्र पर आप सभी मित्रों को जय माता दी, कुंडलियाममता के पांडाल में, माता जी की मूर्ति।नव दिन के नवरात में,सकल कामना पूर्ति।सकल कामना पूर्ति, करें आकर जगदंबा।भक्तों के परिवार में, एक मातु अवलंबा।कह गौतम कविराय, न देखी ऐसी समता।होते पूत कपूत, मगर आँचल में ममता।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"सूत उलझता ही गया, मुख से निकला राम।पदचिन्हों पर आज भी, मचा हुआ संग्राम।मचा हुआ संग्राम, काम का चरखा चौमुख।कात रहे सब सूत, सपूत अपनों से बिमुख।कह गौतम कविराय, नमन हे भारती दूत।लगे न मन में गाँठ, सुंदर था चरखा सूत।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"चाहत दिल की लिख रहा, पढ़ लो तनिक सुजानसूरज बिन पश्चिम गए, करता नहीं बिहानकरता नहीं बिहान, नादान बु-द्धि का पौनाहँसता है दिल खोल, रुदन करता जस बौनाकह गौतम कविराय, हाय रे दिल के आहतविश्वास बिना का प्रेम, न समझे मन की चाहत।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
'"कुंडलिया"बालक नन्हा धूल में, जीने को मजबूरलाचारी से जूझता, इसका कहाँ कसूरइसका कहाँ कसूर, हुजूर वस्र नहिं दानामाता-पिता गरीब, रहा नहिं काना नानाकह गौतम कविराय, प्रभो तुम सबके पालकबचपन वृद्ध समान, सभी हैं तेरे बालक।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"बालू पर पदचिन्ह के, पड़ते सहज निशान।आते- जाते राह भी, घिस देती पहचान।।घिस देती पहचान, मान मन, मन का कहना।स्वारथ में सब लोग, भूलते भाई बहना।।कह गौतम कविराय, नाचता है जब भालू।गिरते काले बाल, सरकते देखा बालू।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
कुंडलियाधू धू कर के जल रहे, गेंहूँ डंठल बालधरा झुलसलती हो विकल, नोच रहे हम खालनोच रहे हम खाल, हाल बेहाल मवालीसमझाए भी कौन, मौन मुँह जली परालीकह गौतम कविराय, चाय सब पीते फू फूयह है नई दुकान, तपेली जलती धू धू।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"चैत्री नव रात्रि परम, परम मातु नवरूप।एक्कम से नवमी सुदी, दर्शन दिव्य अनूप।।दर्शन दिव्य अनूप, आरती संध्या पावन।स्वागत पुष्प शृंगार, धार सर्वत्र सुहावन।।कह गौतम कविराय, धर्म से कर नर मैत्री।नव ऋतु का आगाज़, वर्ष नूतन शुभ चैत्री।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"परचम लहराता चला, भारत देश महान।अंतरिक्ष में उड़ रहा, शक्तिसाक्ष्य विमान।शक्तिसाक्ष्य विमान, देख ले दुनिया सारी।वीरों की यह भूमि, रही सतयुग से न्यारी।कह गौतम कविराय, तिरंगा चमके चमचम।सात्विक संत पुराण, वेद फहराए परचम।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी