"चित्रलेखा""कुंडलिया"बचपन था जब बाग में, तोते पकड़े ढ़ेर।अब तो जंगल में कहाँ, मोटे तगड़े शेर।।मोटे तगड़े शेर, जी रहे अब पिजरे में।करते चतुर शिकार, नजर रहती गजरे में।।कह गौतम कविराय, उमर जब आती पचपन।मलते रहते हाथ, लौट आता क्या बचपन।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया" मिलती जब प्यारी विजय, खिल जाता है देश।वीरों की अनुगामिनी, श्रद्धा सुमन दिनेश।।श्रद्धा सुमन दिनेश, फूल महकाए माला।धनुष बाण गंभीर, अमर राणा का भाला।।कह गौतम कविराय, विजय की धारा बहती।भारत देश महान, नदी सागर से मिलती।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"लेकर दीपक हाथ में, कर सोलह शृंगार।नृत्य नैन सुधि साधना, रूपक रूप निहार।।रूपक रूप निहार, नारि नख-शिख जिय गहना।पहने कंगन हार, लिलार सजाती बहना।।कह गौतम कविराय, परीक्षा पूरक देकर।यौवन के अनुरूप, सजी सुंदरता लेकर।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"मेला कुंभ प्रयाग का, भक्ति भव्य सैलाबजनमानस की भावना, माँ गंगा पुर आबमाँ गंगा पुर आब, लगे श्रद्धा की डुबकीस्वच्छ सुलभ अभियान, दिखा नगरी में अबकीकह गौतम कविराय, भगीरथ कर्म न खेलाकाशी और प्रयाग, रमाये मन का मेला।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"मारे मन बैठी रही, पुतली आँखें मीच।लगा किसी ने खेलकर, फेंक दिया है कीच।।फेंक दिया है कीच, तड़फती है कठपुतली।हुई कहाँ आजाद, सुनहरी चंचल तितली।।कह गौतम कविराय, मोह मन लेते तारे।बचपन में उत्पात, बुढापा आ मन मारे।।महातम मिश्र, गौतम
"कुंडलिया" पाया प्रिय नवजात शिशु, अपनी माँ का साथ।है कुदरत की देन यह, लालन-पालन हाथ।।लालन-पालन हाथ, साथ में खुशियाँ आए।घर-घर का उत्साह, गाय निज बछड़ा धाए।।कह गौतम कविराय, ठुमुक जब लल्ला आया।हरी हो गई गोंद, मातु ने ममता पाया।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया" चादर ओढ़े सो रहा, कुदरत का खलिहान।सूरज चंदा से कहे, ठिठुरा सकल जहान।।ठिठुरा सकल जहान, गिरी है बर्फ चमन में।घाँटी की पहचान, खलल मत डाल अमन में।।कह गौतम कविराय, करो ऋतुओं का आदर।शीत गर्म बरसात, सभी के घर में चादर।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"कुल्हण की रबड़ी सखे, और महकती चाय।दूध मलाई मारि के, चखना चुस्की हाय।।चखना चुस्की हाय, बहुत रसदार कड़ाही।मुँह में मगही पान, गजब है गला सुराही।।कह गौतम कविराय, न भूले यौवन हुल्लण।सट जाते थे होठ, गर्म जब होते कुल्हण।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"अच्छे लगते तुम सनम यथा कागजी फूल।रूप-रंग गुलमुहर सा, डाली भी अनुकूल।।डाली भी अनुकूल, शूल कलियाँ क्यों देते।बना-बनाकर गुच्छ, भेंट क्योंकर कर लेते।।कह गौतम कविराय, हक़ीकत के तुम कच्चे।हो जाते गुमराह, देखकर कागज अच्छे।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"वीरा की तलवार अरु, माथे पगड़ी शान।वाहेगुरु दी लाड़िली, हरियाली पहचान।।हरियाली पहचान, कड़ा किरपाण विराजे।कैसी यह दीवार, बनाई घर-घर राजे।।कह गौतम कविराय, नशा मत करना हीरा।मत हो कुड़ी निराश, कलाई थाम ले वीरा।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
छठ मैया की अर्चना आस्था, श्रद्धा, अर्घ्य और विश्वास का अर्चन पर्व है, इस पर्व का महात्म्य अनुपम है, इसमें उगते व डूबते हुए सूर्य की जल में खड़े रहकर पूजा की जाती है और प्रकृति प्रदत्त उपलब्ध फल-फूल व नाना प्रकार के पकवान का महाप्रसाद (नैवेद्य) छठ मैया को अर्पण कर प्रसाद का दान किया जाता है ऐसे महिमा
"कुंडलिया"पावन गुर्जर भूमि पर, हुआ सत्य सम्मान।भारत ने सरदार का, किया दिली बहुमान।।किया दिली बहुमान, अनेकों राज्य जुड़े थे।बल्लभ भाइ पटेल, हृदय को लिए खड़े थे।।कह गौतम कविराय, धन्य गुजराती सावन।नर्मद तीरे नीर, हीर जल मूर्ति पावन।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
मित्रों शुभ दिवस, दिल खोल कर हँसें और निरोग रहें।"कुंडलिया"बदहजमी अच्छी नहीं, भर देती है गैस।कड़वी पत्ती नीम की, चबा रही है भैंस।।चबा रही है भैंस, निरक्षर कुढ़ती रहती।बँधी पड़ी है खूँट, दूध ले घूँट तरसती।।कह गौतम कविराय, हाय रे मूर्खावज्मी।कुछ तो करो विचार, हुई क्योंकर बदहजमी।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुर
"कुंडलिया" होता है दुख देखकर, क्योंकर बँधे परिंद।पिजड़े के आगोश में, करो प्यार मत बिंद।।करो प्यार मत बिंद, हिंद की जय जय बोलो।दुखता इनका स्नेह, बंद दरवाजा खोलो।।कह गौतम कविराय, खेत क्यूँ बावड़ बोता।बहुत मुलायम घास, काश प्रिय पंछी होता।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
"कुंडलिया"भावन अदा लिए हुए, लाल शुभ्र प्रिय रंगपारिजात कैलाश में, रहता शिव के संगरहता शिव के संग, भंग की चाह निरालीजटा सुशोभित गंग, ढंग महिमा श्री कालीकह गौतम कविराय, निवास पार्वती पावननमन करूँ दिन-रात, आरती शिव मनभावन।।महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
“कुंडलिया”कितना कर्म महान है, व्यर्थ न होती नाल सरपट घोड़ा दौड़ता, पाँव रहे खुशहाल पाँव रहे खुशहाल, सवारी सुख से दौड़े मेहनती मजदूर, स्वस्थ रहता जस घोड़े कह गौतम कविराय, कर्म फलता है इतनाजितना फलता आम, काम सारथी कितना॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
“कुंडलिया”आती पेन्सल हाथ जब, बनते चित्र अनेक। रंग-विरंगी छवि लिए, बच्चे दिल के नेक॥ बच्चे दिल के नेक, प्रत्येक रेखा कुछ कहती। हर रंगों से प्यार, जताकर गंगा बहती॥ कह गौतम हरसाय, सत्य कवि रचना गाती। गुरु शिक्षक अनमोल, भाव शिक्षा ले आती॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
शिक्षक दिवस, 05-09-2018 के ज्ञान शिरोमणि अवसर पर सर्व गुरुजनों को सादर नमन, वंदन व अभिनंदन “कुंडलिया”पढ़ना- लिखना, बोलना,विनय सिखाते आप। हर अबोध के सारथी, वीणा के पदचाप॥ वीणा के पदचाप, आप शिक्षक गुरु ज्ञानी। खड़ा किए संसार, बनाकर के विज्ञानी॥ कह गौतम कविराय, सिखाते पथपर बढ़ना। सृजन रंग परिधान, सु-सृष्ट
“कुंडलिया” मोहित कर लेता कमल, जल के ऊपर फूल। भीतर डूबी नाल है, हरा पान अनुकूल॥ हरा पान अनुकूल, मूल कीचड़ सुख लेता। खिल जाता दु:ख भूल, तूल कब रंग चहेता॥ कह गौतम कविराय, दंभ मत करना रोहित। हँसता खिलकर खूब, कमल करता मन मोहित॥महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
“कुंडलिया” आगे सरका जा रहा समय बहुत ही तेज। पीछे-पीछे भागते होकर हम निस्तेज॥ होकर हम निस्तेज कहाँ थे कहाँ पधारे। मुड़कर देखा गाँव आ गए शहर किनारे॥ कह गौतम कविराय चलो मत भागे-भागेकरो वक्त का मान न जाओ उससे आगे॥महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी