समय भी कैसे-कैसे दुर्दिन दिखाता है। आज सुखवंती की ऐसी स्थिति हो गयी थी कि न तो भाग्य को कोस पा रही थी और न तो इतरा ही रही थी। कोई कितना भी बीते दिनों की यादों की चादर में खुद को गर्म रखने की कोशिश करे, मगर वर्तमान की मनःस्थिति की शीतलहरी, उस चादर को हटाकर सर्वस्व ठंडा कर डालती है।
सुखवंती अपने बीते दिनों में खो जाती थी, मगर कबतक ?
ऐसे ही अपनी यादों में खोयी सुखवंती, महेश के सामने खड़ी थी तो उसने कहा ’’ मेरी सुक्खो, मेरी हिम्मत नहीं है कि तुम्हारी आँखों में आँसू देख पाउं। ’’ सुखवंती और भी कूछ अच्छा महसूस कर रही थी कि पति ने एक मुक्का जमाया तो वो यादों से बाहर आयी, दुसरी शादी करने के बाद लात-घुसे और गंदी-भद्दी गालियाँ ही सुखवंती की जिन्दगी बन गई थी, उसकी आँखों से बहते आँसू को देखकर नवीन ने कहा ’’ तुम्हारी नकली आँसूओं से मैं पिघलने वाला नहीं। ’’
सुखवंती सोच रही थी कि पहले वाला पति आँखों में आँसू देखकर ही पीघल जाता था और दुसरा पति आँसू तो क्या खून के निकलने से भी न पीघले, सो अब खुद के आँसू को ही पीना होगा, सुखवंती ने गहरायी से सोचा और नवीन से पुछा ’’ क्या है जी ? ’’
’’ चल जुते-मौजे उतार। ’’
सुखवंती अब यह सोचने लगी कि मेरा झूकना कहीं गिरा न दे मुझको।