मैंने तो खुद को समेटा था ऐसे, सात परदों में छुपा लिया हो जैसे, खामोशी मेरा पर्याय बन चुकी थी मैं, मैं नहीं, कुछ और हो चुकी थी खामोश दर्पण में अपना अक्स देखने वाली मैं न जाने कब और कहाँ खो चुकी थी स्याही सूख गयी थी शब्द धुंधला गए थे सरस्वती की उपासक कब धूमिल हो गयी पता ही नहीं चला | जो हंसती थी खिलखिला कर कभी अब हल्की मुस्कान भी अपना अस्तित्व खोज रही थी वो क्या थी कौन थी कौन जाने पर हाॅं जो भी हो वो लेखिका थी जब मन में भाव उमड़ते थे गम हो या खुशी उसके हाथ पन्ने रंगते थे कलम चित्र जैसे शब्द लुटाती थी आंखें भले ही आंसू बहाये, पर सुमि लिखती जाती थी रचनाएँ भी उसकी उससे सवाल करतीं क्यूँ तू अकेली है हम हैं न, पर क्या जवाब देती सुमि उसे तो कोई समझ ही नहीं पाया, सिर्फ उसका रंग रुप आंका गया उसकी भावना उसकी कला, जैसे कहीं खो गयी भगवान की बनाई वो नायाब मूर्ति जो शायद नायाब थी, पर जमाने ने वो सितम किए कि वो नाकामयाब ठहरा दी गयी, खुद में रोती सिसकती सुमि जो ठहाके लगाती थी, शरारतों का पिटारा थी जो , हर एक की प्यारी सुमि शायद कहीं गुम हो गई
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