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आठवां अध्याय - अक्षर ब्रह्मं योग

4 मई 2022

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(अर्जुन के सात प्रश्नो के उत्तर)

अर्जुन उवाच

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ (१)

भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे पुरुषोत्तम! यह "ब्रह्म" क्या है? "अध्यात्म" क्या है? "कर्म" क्या है? "अधिभूत" किसे कहते हैं? और "अधिदैव" कौन कहलाते हैं? (१)

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ (२)

भावार्थ : हे मधुसूदन! यहाँ "अधियज्ञ" कौन है? और वह इस शरीर में किस प्रकार स्थित रहता है? और शरीर के अन्त समय में आत्म-संयमी (योग-युक्त) मनुष्यों द्वारा आपको किस प्रकार जाना जाता हैं? (२)

श्रीभगवानुवाच

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ (३)

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो अविनाशी है वही "ब्रह्म" (आत्मा) दिव्य है और आत्मा में स्थिर भाव ही "अध्यात्म" कहलाता है तथा जीवों के वह भाव जो कि अच्छे या बुरे संकल्प उत्पन्न करते है उन भावों का मिट जाना ही "कर्म" कहलाता है। (३)

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌ ।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ (४)

भावार्थ : हे शरीर धारियों मे श्रेष्ठ अर्जुन! मेरी अपरा प्रकृति जो कि निरन्तर परिवर्तनशील है अधिभूत कहलाती हैं, तथा मेरा वह विराट रूप जिसमें सूर्य, चन्द्रमा आदि सभी देवता स्थित है वह अधिदैव कहलाता है और मैं ही प्रत्येक शरीरधारी के हृदय में अन्तर्यामी रूप स्थित अधियज्ञ (यज्ञ का भोक्ता) हूँ। (४)

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥ (५)

भावार्थ : जो मनुष्य जीवन के अंत समय में मेरा ही स्मरण करता हुआ शारीरिक बन्धन से मुक्त होता है, वह मेरे ही भाव को अर्थात मुझको ही प्राप्त होता है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। (५)

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌ ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ (६)

भावार्थ : हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है, जिस भाव का जीवन में निरन्तर स्मरण किया है। (६)

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥ (७)

भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा। (७)

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥ (८)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी चेतना (आत्मा) से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है, वह निरन्तर चिन्तन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है। (८)

कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌ ॥ (९)

भावार्थ : मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये जो कि सभी को जानने वाला है, पुरातन है, जगत का नियन्ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, सभी का पालनकर्ता है, अकल्पनीय-स्वरूप है, सूर्य के समान प्रकाशमान है और अन्धकार से परे स्थित है। (९)

प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌ ॥ (१०)

भावार्थ : जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है। (१०)

(सन्यास-योग और भक्ति-योग से परमात्मा की प्राप्ति)

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ (११)

भावार्थ : वेदों के ज्ञाता जिसे अविनाशी कहते है तथा बडे़-बडे़ मुनि-सन्यासी जिसमें प्रवेश पाते है, उस परम-पद को पाने की इच्छा से जो मनुष्य ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हैं, उस विधि को तुझे संक्षेप में बतलाता हूँ। (११)

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌ ॥ (१२)

भावार्थ : शरीर के सभी द्वारों को वश में करके तथा मन को हृदय में स्थित करके, प्राणवायु को सिर में रोक करके योग-धारणा में स्थित हुआ जाता है। (१२)

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌ ।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। (१३)

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥ (१४)

भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ। (१४)

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌ ।

नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ (१५)

भावार्थ : मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी अस्तित्व-रहित क्षणभंगुर संसार में पुनर्जन्म कभी नही होता है, बल्कि वह महात्मा परम-सिद्धि को प्राप्त करके मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है। (१५)

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ (१६)

भावार्थ : हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में निम्न-लोक से ब्रह्म-लोक तक के सभी लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रह्ते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त करके मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है। (१६)

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।

रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ (१७)

भावार्थ : जो मनुष्य एक हजार चतुर्युगों का ब्रह्मा का दिन और एक हजार चतुर्युगों की ब्रह्मा की रात्रि को जानते है वह मनुष्य समय के तत्व को वास्तविकता से जानने वाले होते हैं। (१७)

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ (१८)

भावार्थ : ब्रह्मा के दिन की शुरूआत में सभी जीव उस अव्यक्त से प्रकट होते है और रात्रि की शुरूआत में पुन: अव्यक्त में ही विलीन हो जाते हैं, उस अव्यक्त को ही ब्रह्म के नाम से जाना जाता है। (१८)

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ (१९)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! वही यह समस्त जीवों का समूह बार-बार उत्पन्न और विलीन होता रहता है, ब्रह्मा की रात्रि के आने पर विलीन हो जाता है और दिन के आने पर स्वत: ही प्रकट हो जाता है। (१९)

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ (२०)

भावार्थ : लेकिन उस अव्यक्त ब्रह्म के अतिरिक्त शाश्वत (अनादि-अनन्त) परम-अव्यक्त परब्रह्म है, वह परब्रह्म सभी जीवों के नाश होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता है। (२०)

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌ ।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ (२१)

भावार्थ : जिसे वेदों में अव्यक्त अविनाशी के नाम से कहा गया है, उसी को परम-गति कहा जाता हैं जिसको प्राप्त करके मनुष्य कभी वापस नहीं आता है, वही मेरा परम-धाम है। (२१)

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।

यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ॥ (२२)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! वह ब्रह्म जो परम-श्रेष्ठ है जिसे अनन्य-भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसके अन्दर सभी जीव स्थित हैं और जिसके कारण सारा जगत दिखाई देता है। (२२)

(प्रकाश-मार्ग और अन्धकार-मार्ग का निरूपण)

यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥ (२३)

भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ! जिस समय में शरीर को त्यागकर जाने वाले योगीयों का पुनर्जन्म नही होता हैं और जिस समय में शरीर त्यागने पर पुनर्जन्म होता हैं, उस समय के बारे में बतलाता हूँ। (२३)

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ (२४)

भावार्थ : जिस समय ज्योतिर्मय अग्नि जल रही हो, दिन का पूर्ण सूर्य-प्रकाश हो, शुक्ल-पक्ष का चन्द्रमा बढ़ रहा हो और जब सूर्य उत्तर-दिशा में रहता है उन छः महीनों के समय में शरीर का त्याग करने वाले ब्रह्मज्ञानी मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। (२४)

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।

तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ (२५)

भावार्थ : जिस समय अग्नि से धुआँ फ़ैल रहा हो, रात्रि का अन्धकार हो, कृष्ण-पक्ष का चन्द्रमा घट रहा हो और जब सूर्य दक्षिण दिशा में रहता है उन छः महीनों के समय में शरीर त्यागने वाला स्वर्ग-लोकों को प्राप्त होकर अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर पुनर्जन्म को प्राप्त होता है। (२५)

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।

एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥ (२६)

भावार्थ : वेदों के अनुसार इस मृत्यु-लोक से जाने के दो ही शाश्वत मार्ग है - एक प्रकाश का मार्ग और दूसरा अंधकार का मार्ग, जो मनुष्य प्रकाश मार्ग से जाता है वह वापस नहीं आता है, और जो मनुष्य अंधकार मार्ग से जाता है वह वापस लौट आता है। (२६)

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ (२७)

भावार्थ : हे पृथापुत्र! भक्ति में स्थित मेरा कोई भी भक्त इन सभी मार्गों को जानते हुए भी कभी मोहग्रस्त नहीं होता है, इसलिये हे अर्जुन! तू हर समय मेरी भक्ति में स्थिर हो। (२७)

वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्‌ ।

अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्‌ ॥ (२८)

भावार्थ : योग में स्थित मनुष्य वेदों के अध्यन से, यज्ञ से, तप से और दान से प्राप्त सभी पुण्य-फलों को भोगता हुआ अन्त में निश्चित रूप से तत्व से जानकर मेरे परम-धाम को ही प्राप्त करता है, जो कि मेरा मूल निवास स्थान है। (२८)

ॐ तत्सदिति श्री मद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णार्जुनसंवादे अक्षर ब्रह्मयोगो नामाष्टमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'अक्षरब्रह्म-योग' नाम का आठवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ |

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

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रचनाएँ
श्रीमद्भगवत गीता
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि जो भी मनुष्य भगवद गीता की अठारह बातों को अपनाकर अपने जीवन में उतारता है वह सभी दुखों से, वासनाओं से, क्रोध से, ईर्ष्या से, लोभ से, मोह से, लालच आदि के बंधनों से मुक्त हो जाता है। आगे जानते हैं भगवद गीता की 18 ज्ञान की बातें। 1. आनंद मनुष्य के भीतर ही निवास करता है। हरियाणा के कुरुक्षे‍त्र में जब यह ज्ञान दिया गया तब तिथि एकादशी थी।श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा मै ही अविनाशी परमात्मा हूं। जब जब अधर्म की मात्रा बढ़ती है, जब जब धर्म की हानि होती है मैं योग माया से अधर्म के नाश के लिए और धर्म की पुर्नस्थापना के लिए जन्म लेता हूं।
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पहला अध्याय - श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद

4 मई 2022
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(योद्धाओं की गणना और सामर्थ्य) धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ (१) भावार्थ : धृतराष्ट्र ने कहा - हे संजय! धर्म-भूमि और कर्म-भूमि म

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दूसरा अध्याय - सांख्य योग

4 मई 2022
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(अर्जुन के शोक का कारण) संजय उवाच तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌ । विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥ (१) भावार्थ : संजय ने कहा - इस प्रकार करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरे हुए व्याकुल नेत्

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तीसरा अध्याय - कर्म योग

4 मई 2022
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(कर्म-योग और ज्ञान-योग का भेद) अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥ (१) भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन! हे केशव! यदि आप निष्काम-कर्म म

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चौथा अध्याय - ज्ञान कर्म सन्यास योग

4 मई 2022
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(कर्म-अकर्म और विकर्म का निरुपण) श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥ (१) भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मैंने इस अविनाशी योग-विधा

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पांचवा अध्याय - कर्म सन्यास योग

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(सांख्य-योग और कर्म-योग के भेद) अर्जुन उवाच संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्‌ ॥ (१) भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! कभी आप सन्यास-माध्यम (स

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छठवाँ अध्याय - आत्म संयम योग

4 मई 2022
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(योग में स्थित मनुष्य के लक्षण) श्रीभगवानुवाच अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः । स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥ (१) भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की इच्

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सातवाँ अध्याय - ज्ञान विज्ञानं योग

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(विज्ञान सहित तत्व-ज्ञान) श्रीभगवानुवाच मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः। असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥ (१) भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! अब उसको सुन जिससे तू योग

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आठवां अध्याय - अक्षर ब्रह्मं योग

4 मई 2022
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(अर्जुन के सात प्रश्नो के उत्तर) अर्जुन उवाच किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥ (१) भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे पुरुषोत्तम! यह "ब्रह्म" क्या ह

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नवा अध्याय - राज विद्या राज गुह्यः योग

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(सृष्टि का मूल कारण) श्रीभगवानुवाच इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे । ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥ (१) भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! अब मैं तुझ ईर्ष्या न कर

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दसवाँ अध्याय - विभूति योग

4 मई 2022
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(भगवान की ऎश्वर्य पूर्ण योग-शक्ति) श्रीभगवानुवाच भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः । यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ (१) भावार्थ : श्री भगवान्‌ ने कहा - हे महाबाहु अर्जुन! तू मेरे परम-प

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ग्यारहवा अध्याय - विश्व रूप दर्शन योग

4 मई 2022
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(अर्जुन द्वारा विश्वरूप के दर्शन के लिये प्रार्थना) अर्जुन उवाच मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌ । यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ (१) भावार्थ : अर्जुन ने कहा - मुझ पर कृपा करने के

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बारहवाँ अध्याय - भक्ति योग

5 मई 2022
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अर्जुन उवाच एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ (१) भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे भगवन! जो विधि आपने बतायी है उसी विधि के अनुसार अनन्य भक्ति से आप

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तेरहवाँ अध्याय क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग

10 मई 2022
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(क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विषय) अर्जुन उवाच प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च । एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ॥ (१) भावार्थ : अर्जुन ने पूछा - हे केशव! मैं आपसे प्रकृति एवं पुरुष

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चौदवां अध्याय - गुण त्रय विभाग योग

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(प्रकृति और पुरुष द्वारा जगत्‌ की उत्पत्ति) श्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌ । यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ (१) भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन!

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पंद्रहवाँ अध्याय - पुरुषोत्तमयोग

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अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ৷৷1৷৷

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सोलहवाँ अध्याय - देव असुर संपदा विभाग योग

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(दैवीय स्वभाव वालों के लक्षण) श्रीभगवानुवाच अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्‌ ॥ (१) भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे भरतवंशी अर्जुन! परमात्मा पर

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सत्रहवाँ अध्याय - श्रद्धा त्रय विभाग योग

12 मई 2022
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(स्वभाव के अनुसार श्रद्धा) अर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥ (१) भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रों के

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अठारवा अध्याय - मोक्ष सन्यास योग

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त्याग का विषय अर्जुन उवाच सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्‌ । त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे महाबाहो! हे अन्तर्यामिन्‌! हे वासुदेव! मैं संन्यास और त्याग

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