मर्यादा में रहना हैं...
क्योंकि तुम एक बहू हो...।
घूंघट ओढ़ना हैं...
क्योंकि तुम एक बहू हो..।
बड़ों का कहना मानना हैं..
क्योंकि तुम एक बहू हो..।
अदब से चलना हैं...
क्योंकि तुम एक बहू हो..।
हर कहा मानना है...
क्योंकि तुम एक बहू हो..।
मायके के रिश्तों को अब भूलना हैं..
क्योंकि तुम एक बहू हो...।
जिस सांचे में ढालें उसमें ढलना हैं...
क्योंकि तुम एक बहू हो....।
बंदिशों में रहना सीखना हैं..
क्योंकि तुम एक बहू हो...।
बिना आज्ञा, बिना इजाजत कहीं ना जाना...
क्योंकि तुम एक बहू हो...।
अपनी इच्छाएं, अपनी ख्वाहिशें खत्म करनी हैं..
क्योंकि तुम एक बहू हो....।
हाँ.... मैं एक बहू हूँ...।
सास को मां और ससूर को पिता का दर्जा दिया हैं...।
हाँ मैं एक बहू हूँ...।
देवर को भाई और ननद को बहन माना हैं...।
हाँ मैं एक बहू हूँ...।
आपके सांचे में रहूंगी... घर की इज्जत बनाउंगी..।
लेकिन सिर्फ एक सवाल....
क्या आप कभी बहू नहीं थीं...?
क्या आपकी बेटी किसी घर की बहू नहीं हैं..?
क्यूँ फर्क किया जाता हैं.... बहू और बेटी में...?
क्यूँ बेटी सर्वे गुण सम्पन्न और बहू गुणहीन..?
क्यूँ बेटी को ससुराल में ढाक जमाने की हिदायत और बहू को चार दिवारों में कैद..?
क्यूँ बेटी के हर काम की तारीफ और बहू को सिर्फ तिरस्कार..?
मैं भी किसी की बेटी ही हूँ....
हाँ.... अभी अनाथ हूँ... पर क्या मैं आपकी कुछ नहीं...?
क्यूँ आपको कभी मेरे आंसू नहीं दिखते..?
क्यूँ आपको कभी मेरे लिए कुछ अहसास नहीं होता..?
माँ कहतीं हूँ..... फिर क्यूँ मुझे कभी बेटी नहीं माना जाता..?
आखिर क्यूँ माँ.... आखिर क्यूँ....?