समय बदल गया।
कोई सबूत, सनद या मिसाल मांगे तो शुभम दे सकता है।
चालीस साल पहले एक दिन उसकी नई- नवेली दुल्हन ने उसकी ताज़ा खरीद कर लाई गई पत्रिका अपनी सहेली रीना को पढ़ने के लिए दे दी थी, तो वह खासा नाराज़ हुआ था- उसे क्यों दे दी,अभी तो मैंने भी पढ़ी नहीं थी, वो कौन सी बड़ी पढ़ाका है, संभाल कर भी तो रखती नहीं,और मुझे तो ये भी याद नहीं है कि उसने कभी भी यहां से ली हुई कोई चीज़ लौटाई भी हो...
दिव्या को मन ही मन खुशी हुई पर उसने चेहरे से पति के प्रति थोड़ी सख़्ती व्यक्त की।
एक तो वो इस ख़्याल की कायल थी कि पतियों को शुरू शुरू में ही कसकर रखना चाहिए, वरना एक बार ढील मिल गई तो फ़िर वो आसानी से काबू में नहीं आते।
दूसरे उसे ये भी गवारा न हुआ कि छोटी सी चीज़ के प्रति भी पति का लगाव ऐसा हो जो पत्नी तक की उपेक्षा करवा दे और वो इस तरह उलाहना देकर बोल सके।
पर मन में इस बात को लेकर ख़ुशी भी झलकी कि पति उसकी सहेली रीना की सुंदरता के प्रति ज़रा भी नरम नहीं है और उसकी आदतों पर जम कर आलोचना कर रहा है, वह भी बेख़ौफ़!
दिव्या आश्वस्त हुई।
असल में बात ये थी कि उस ताज़ा खरीदी गई पत्रिका में शुभम का नाम छपा था और इसलिए वह उसे अपने पास संभाल कर रखना चाहता था।
नाम इसलिए छपा था क्योंकि शुभम ने उस पत्रिका में कोई आलेख पढ़ कर उसके संपादक को पत्र लिखा था जो उसमें छप गया था और पत्र के साथ नीचे शुभम का नाम भी था।
लेकिन ये चालीस साल पुरानी बात है। अब न दिव्या इस दुनिया में है और न रीना।
शुभम बिल्कुल अकेला है क्योंकि उन दोनों के बच्चे भी नौकरी और शादी के बाद अपनी- अपनी दुनिया में जा बसे हैं।
समय सचमुच बदल गया है।
आज का तो कोई छोटा बच्चा भी बता देगा कि चालीस साल में समय बिल्कुल बदल गया है, अब कोई किसी को खत या चिट्ठी नहीं लिखता।
डाकघर सोना बेचते हैं।
और समय के बदल जाने का सबसे बड़ा सबूत तो सुबह - सुबह शुभम ने खुद दे दिया।
आज छुट्टी का दिन होने के कारण उसकी खाना बनाने वाली बाई नहीं आई थी। सेवानिवृत्ति के बाद से उसे खाना खाने जैसे छोटे- मोटे काम के लिए बाहर जाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। अतः वो अपने हाथ से ही रोटी बनाना पसंद करता है।
रसोई में पहली रोटी तवे पर डालते ही उसकी नज़र रोटी रखने की जगह पर गई तो वह कैसरोल में लगाने के लिए कोई काग़ज़ लेने कमरे में आया। और फाड़ कर काग़ज़ के जिस टुकड़े को उसने रोटी के नीचे लगाया उस पर खुद शुभम की तसवीर छपी थी, जो उसकी लिखी किसी कहानी के साथ अख़बार के एक कौने पर दिखाई दे रही थी।
तसवीर उसे बिल्कुल चालीस साल पहले की दिव्या की तरह ही घूर कर देख रही थी। उसने घबरा कर भाप उड़ाती रोटी तसवीर के ऊपर ढक दी।
शुभम को अब कोई संदेह न रहा कि सचमुच समय बदल चुका है।
लेकिन समय का बदलना कभी बेकार नहीं जाता। समय बीती बातों को कहानी बना देता है। और कहानी समय को कम से कम कुछ समय के लिए तो रोक ही लेती है। उसकी झलक बार- बार दिखला देती है।
ये भी एक ऐसी ही कहानी थी।
इस कहानी का नायक शुभम तब जयपुर के एक कॉलेज में पढ़ता था। नायिका दिव्या भी किसी और कॉलेज में।
आम तौर पर कहानियां एक ही कॉलेज में,एक ही क्लास में पढ़ने वाले युवाओं के बीच पनपती हैं।
वे एक - दूसरे को देखते रहते हैं और समीप आने की कोशिशें करते रहते हैं।
किन्तु शुभम की कहानी में समीप आने की कोशिश नहीं थी।
जब प्रेम कहीं पनपता है तो लोग चांद और चकोर की बात करते हैं, तोता और मैना की बात करते हैं लेकिन शुभम और दिव्या के बीच शुरू से ही सूरज की धूप और तेज़ी का दख़ल था।
दिव्या बेहद मेधावी और विलक्षण मस्तिष्क वाली छात्रा थी। वह विज्ञान की विद्यार्थी थी और उसने अपने समय में राज्य भर में पहला स्थान प्राप्त किया था।
खास बात ये थी कि उन दिनों लड़कियों की संख्या शिक्षा के क्षेत्र में कम होने के कारण शिक्षा बोर्ड के परिणामों के लिए अलग अलग मेरिट लिस्ट निकाली जाती थी ताकि लड़कियों को भी लड़कों के समान अंक न आने पर भी प्रोत्साहन मिले।
किन्तु कई वर्ष बाद ऐसा संयोग आया कि दिव्या ने स्कूली शिक्षा में लड़के और लड़कियों की सम्मिलित सूची में अपना स्थान मेरिट में बनाया था।
शिक्षा की बात हो, तो शुभम भी अपने विवेक और बुद्धिमत्ता में कम नहीं था किन्तु उसकी विलक्षणता के पैमाने बिल्कुल अलग थे। वह कला का विद्यार्थी था।
प्रायः प्रेमकथाओं में खलनायक के रूप में या तो अमीरी- गरीबी होती है या फ़िर धर्म और जाति।
लेकिन संयोग से शुभम और दिव्या के परिवारों में आर्थिक स्तर में कोई अंतर नहीं था। दोनों ही सामान्य, उच्च मध्यम वर्ग के खाते- पीते परिवार थे। और दोनों की ही जाति भी एक। गोत्र भी अलग- अलग, जहां आसानी से विवाह हो सके,कोई बाधा नहीं।
शुभम और दिव्या एक ही शहर में रहते हुए मिलते रहे। घर में भी और बाहर भी।
लेकिन ये मिलना एक अलग तरह का मिलना था।
इसमें अकेले होने, बदन को सजा- संवार कर रखने, या शारीरिक आकर्षण की कोई जगह नहीं होती।
वे मिलते, दुनिया के हर विषय पर बातें करते, बहसें करते, लेकिन कहीं किसी को न तो ऐतराज़ होता और न ही जिज्ञासा।
लेकिन एक युवक और युवती आपस में मिलते रहें, बातें करें, साथ में फ़िल्म भी देखें और उनके बीच किसी तरह का दैहिक आकर्षण न हो, तो ये भी बिल्कुल सामान्य बात मानी जाए, ऐसा तो प्रायः नहीं होता।
इसका भी कोई न कोई कारण होना चाहिए, या तलाश किया जाना चाहिए।
कारण था।
कारण था दोनों प्रतिभाशाली मेधावी बच्चों के दिमाग़ की अपनी- अपनी ग्रंथियां।
लड़की के जेहन में अपने वजूद को लेकर तरह- तरह के सवाल होते।
लड़कियों को लोग लड़कों की तुलना में कम क्यों मानते हैं?
क्यों उन्हें पाकर वैसे ख़ुश नहीं होते, जैसे लड़के के जन्म पर होते हैं?
जब प्रकृति जीवन के लिए दोनों को ज़रूरी मानती है तो समाज क्यों विचार बदल कर बैठा है।
यह पक्षपात कब से है, और किस कारण है, इन बातों पर सोचने की अपेक्षा दिव्या की सोच इस ओर होती कि इसे ख़त्म कैसे किया जाए।
लड़कियां ऐसा क्या करें, कि लड़कों की तरह स्वीकार की जाएं। इस सोच के चलते दिव्या का सारा परिश्रम इसी दिशा में होता।
उधर शुभम के विचार भी आम लड़कों की तरह लड़कियों से दोस्ती करने और उनके साथ निकटता पाने की कोशिशों तक नहीं रहते थे।
उसे लगता था कि भारत जैसे देश को अपनी बेहतरी के लिए अपने जनसंख्या बल को सीमित करने की कोशिश करनी चाहिए।
छोटी उम्र में शादी, शादी की अनिवार्यता, शादी के बाद बच्चों की अनिवार्यता और फ़िर मरने से पहले बच्चों के बच्चे देखने की ललक...ये सब किसी चक्रव्यूह की जकड़न सा प्रतीत होता था शुभम को।
दूसरी ग्रंथि उसके मन में देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर भी होती थी।
यहां आप किसी संगीतकार, चित्रकार, दार्शनिक, खिलाड़ी या संन्यासी का जीवन भी खंगालने बैठें तो आप पाएंगे कि इसने जीवन में सबसे पहले डॉक्टर या इंजीनियर ही बनने की कोशिश की थी। स्वयं उसने नहीं तो उसके अभिभावकों ने उसके होश संभालते ही उसे मोटी कमाई वाले क्षेत्रों में धकेलने का मंसूबा ही बांधा था।
शुभम को ये सोच पागलों के पाप जैसा ही लगता था।
वे दोनों इन विषयों पर भी बातें किया करते थे।
और सच पूछा जाए तो अकेले में मिलने या एक दूसरे का साहचर्य पाने से ज़्यादा यही विषय और ग्रंथियां उन दोनों पर हावी रहते थे।
शुभम को लगता था कि अपने बच्चे हो जाने पर इंसान दूसरों की ओर ध्यान नहीं दे पाता और साम- दाम- दंड- भेद उनके जीवन यापन और अपने लिए सुरक्षित जीवन जुटाने की रेलमपेल में ख़र्च होने लगता है।
उसे लगता था कि सब एक दूसरे के सहायक बनें।
जिनके अपने बच्चे नहीं हैं वे बच्चों के लिए तड़पने- कलपने की जगह उन बच्चों को संभालें जिनके मां - बाप नहीं हैं।
जिन लड़कियों ने अकस्मात अपने पति को खो दिया, समर्थ युवक उन्हें सहारा दें। जिन परिवारों में जो रिश्ते न रहें,उनकी आपूर्ति भी हम अपने समाज के ही लोगों से करें।
कुछ लोगों के जीवन को अभागा- अभागी समझ कर नर्क की तरह नष्ट करके क्यों छोड़ें!
इस सोच में दोनों खोए रहते।
ये विचार ही दोनों के अंगों- उमंगों पर नियंत्रण रखा करते थे। किन्तु इसके कारण ही शायद दोनों एक दूसरे की नज़रों में और भी ऊंचे होते जाते।
दिव्या सोचती, ये लड़का कितना आदर्शवादी है, इसे स्त्री के सम्मान का इतना ध्यान है कि अकेले में भी कभी मुझे हाथ नहीं लगाता।
शुभम सोचता कि ये लड़की आम लड़कियों से कितनी अलग है। ये फ़ैशन, कपड़े, पैसा जैसी लालसाओं से कोसों दूर है।
ये सोच दोनों को एक दूसरे के और भी करीब करती चली जाती। दोनों एक दूसरे के आत्मीय बनते चले जाते।
उनके मन में दूर दूर तक शादी, मिलन या अकेले में मिलने के ख्याल न आते।
लेकिन हुआ ये कि जो बात उन दोनों में से किसी के भी मुंह से कभी नहीं उठ पाई, वो शहर में रहने वाले उनके रिश्तेदारों के मुंह से उठने लगी।
दोनों के मित्र और परिचित कई बार एक दूसरे को लेकर उनके मन टटोलने का काम करने लगे। ऐसे में वे दोनों ही सपाट सा चेहरा लेकर चुप रह जाते।
इतने दिनों के साथ के बाद अब दोनों के कई कॉमन मित्र भी हो चले थे।
फ़िर आवा जाही बढ़ने से खुद शुभम और दिव्या के परिवार भी एक दूसरे के निकट आने लगे थे।
अब चाहे कोई लहरों पर सैर करने के इरादे से ही नदी में नाव लेकर निकले, देखने वाले तो सोचते ही हैं कि नाव अब पार कैसे लगे।
एकाध मुंह लगे मित्रों ने साफ़ साफ़ भी पूछना शुरू कर दिया कि शादी कब कर रहे हो दोनों?
शुभम कला का विद्यार्थी था। वो ये बात अच्छी तरह जानता था कि केवल डिग्री के बल पर कोई नौकरी आसानी से नहीं मिलेगी। पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रतियोगिताओं के पापड़ बेलने पड़ेंगे, तब कहीं जाकर रोजगार की नैया पार लगेगी। वो भी अगर नसीब में हो तो। आसान नहीं था नौकरी पाना।
वो जब अपनी मार्कशीट को देखता तो उसे ये संतोष ज़रूर होता कि वह औसत से काफ़ी अच्छा विद्यार्थी है और इसी आधार पर उसके मित्र व घरवाले सोचते थे कि उसे तो पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी आसानी से मिल ही जाएगी। किन्तु केवल शुभम इस बात को समझता था कि शुभम का अच्छा परीक्षा परिणाम जिन कारणों से रहता था वे नौकरी पाने के लिए उपयुक्त नहीं थे।
उसे साहित्य, भाषा या चित्रकला जैसे विषयों में अच्छे अंक मिलते रहे थे जिनकी अहमियत नौकरी पाने में बिल्कुल नहीं थी।
गणित अंग्रेज़ी आदि उसे उबाऊ प्रतीत होते थे जिनके सहारे नौकरियां मिला करती थीं।
उधर राज्य भर में प्रथम आकर दिव्या ने विज्ञान की पढ़ाई भी निरंतर पदकों और प्रशंसाओं के सहारे की थी और उसके सामने तो सवाल ये था कि वो पढ़ाई पूरी होते ही वो किस क्षेत्र या नौकरी में जाए।
एक दिन विश्व विद्यालय स्विमिंग पूल के पीछे घूमते हुए शुभम और दिव्या की बहस के दौरान शुभम के मुंह से निकल गया कि भारत का हर बच्चा और उसके माता पिता उसके डॉक्टर या इंजीनियर बनने के पीछे ही पागल रहते हैं जिसके कारण रोजगार के हर क्षेत्र में लोग दोयम दर्जे का ठप्पा लगवा कर ही आते हैं। जबकि एक डॉक्टर या इंजीनियर के पास जीने का समय नहीं होता।
ये सुनते ही संवेदन शील दिव्या ने मानो मन ही मन ये फ़ैसला कर डाला कि वो किसी ऐसी नौकरी के पीछे नहीं भागेगी जिसमें श्रम ज़्यादा हो और समय कम मिले।
उसके सोच में ये लापरवाही धीरे धीरे झलकने भी लगी।
शुभम को मन ही मन एक अपराध बोध सा होता कि वह एक विलक्षण छात्रा के मन से ऊंचाइयां छूने के सपने मिटा रहा है।
एक दिन दोनों का सुचित्रा सेन और संजीवकुमार की फ़िल्म "आंधी" देखने का कार्यक्रम अचानक बन गया।
फ़िल्म उतरने ही वाली थी और सिनेमा हॉल में बिल्कुल भी भीड़ नहीं थी।
किन्तु टिकिट खिड़की पर टिकिट लेते समय शायद बुकिंग करने वाले क्लर्क ने एक युवक और एक युवती को साथ में देख कर अनुमान लगा लिया कि ये कॉलेज से सीधे आए हैं, तो अपने आप अपनी अनुभवी दक्षता के तहत पीछे की ख़ाली पंक्ति में एकदम कौने के टिकिट दे दिए।
किन्तु दोनों ने उसके इस सहयोग का ख़ाली पड़े हॉल के एकांत में कोई लाभ उठाना तो दूर, बल्कि भीतर के कर्मचारी से अपनी सीट बदलवा कर बीचों बीच लोगों के कोलाहल में आकर फ़िल्म के हर फ़्रेम पर हमेशा की तरह वैचारिक टिप्पणियां करना जारी रखा।
किन्तु रात को नौ बजे एक लड़के और एक लड़की को एक साथ सिनेमा हॉल से निकलते देख कर उस समय सोच का कोई और विकल्प लोगों के पास नहीं होता था।
उन्हें पूरी तरह प्रेमी और प्रेमिका ही समझा जाता था।
कुछ समय और निकला फ़िर दिव्या को एक महानगर में अच्छी सी नौकरी मिल गई। वह चली गई।
और इसे भी संयोग ही कहेंगे कि शुभम को भी पढ़ाई पूरी होते होते सरकारी नौकरी मिल गई।
शायद अनुभव के लिए हर तरह की नौकरी के लिए अप्लाई करते रहना और सामान्य ज्ञान को शौकिया तौर पर ही बढ़ाते रहना ही इस नौकरी के कारण रहे।
शुभम को राजस्थान के ही एक शहर में नौकरी मिली और इस तरह दोनों का ही जयपुर शहर छूट गया।
शहर छोड़ कर जाते समय दोनों के ही मन में ज़रा सी देर के लिए भी ऐसा कोई भाव नहीं आया कि उन्हें एक दूसरे से बिछड़ने या दूर होने का कोई भी दुःख है।
कभी कभी त्यौहारों पर छुट्टियों में दोनों ही अपने अपने घर आते और इस तरह मिलना हो जाता।
लेकिन ये मिलना भी पूरी तरह मित्रों के मिलने जैसा ही होता जिसमें शरीर की कोई भी हरक़त, जुंबिश, खलिश या हरारत शामिल नहीं होती।
बाईस साल के लड़के और बीस साल की लड़की के बीच ऐसा- वैसा कुछ भी न हो, ये बात किसी को भी अजूबा ही लग सकती हो, पर ऐसा ही था।
लेकिन दोनों शहर में साथ- साथ घूमे थे।
विश्व विद्यालय के लॉन के किनारे, सीढ़ियों पर साथ - साथ बैठे थे। शाम को लाइब्रेरी से निकल कर आसमान के सितारे दोनों ने साथ- साथ देखे थे।
अतः दोनों ही घरों में चर्चा शुरू हो गई कि इन उड़ते पक्षियों का ठिकाना या आशियाना कहां होगा, कैसे होगा, कब होगा?
शुभम के घर में बहती हवा में बातों के कतरे इस तरह उड़ते -
अभी इतनी जल्दी क्या है,इससे चार साल बड़े भाई की शादी तो अभी पिछले साल ही हुई है, अभी कुल बाईस साल का ही तो है, अभी जो नौकरी लगी है वो कौन सी मनपसंद है, दूसरी परीक्षाओं में भी तो बैठना है,लड़की कहां भागी जा रही है...!
दिव्या के घर भी बातें होती थीं -
यूनिवर्सिटी टॉप करके अफ़सर बनी है, ऐसे मामूली घर में क्या मिलेगा, एक से एक अच्छे लड़के मिलेंगे, कम से कम डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस तो हो, इस लड़के के पिता तो रिटायर होने वाले हैं, छोटे भाई और छोटी बहन की शादी अभी बाक़ी है, कमा- कमा कर दोनों को इस घर में ही लगाना पड़ेगा, लड़के की मां अपने आगे एक न चलने देगी, बेचारी लड़की बंध कर रह जाएगी यहां!
उधर शुभम सोचता -
न तो शादी की जल्दी है और न इच्छा, पढ़- लिख कर कुछ ऐसा काम किया जाए जिससे लोगों का कुछ भला हो, आगे पढ़ने- लिखने- सोचने- घूमने का वक़्त मिले, शादी- नौकरी - बच्चे... ये तो सभी कर रहे हैं, फ़िर अपना परिवार होने के बाद आदमी बाक़ी दीन- दुनिया के लिए ख़ुदग़र्ज़ हो जाता है, उसे केवल अपना- अपना हित ही दिखाई देता है, रही बात शरीर की ज़रूरत की, तो ये ज़रूरत तो पंद्रह- सोलह साल की उम्र से ही मुंह फाड़े खड़ी है, जैसे अब तक चला वैसे आगे भी चल जाएगा,सच पूछो तो ये ज़रूरत भी सप्ताह में पंद्रह- बीस मिनट की है, फ़िर बुखार उतर ही जाता है, इतने से रोग के लिए घर में चौबीस घंटे का डॉक्टर रखने का क्या फ़ायदा!
और विदुषी व मेधावी दिव्या सोचती -
लड़की कितनी भी पढ़ी - लिखी या काबिल हो, उसे घर में दूसरे दर्जे पर ही माना जाता है, उसकी कद्र घर- परिवार संभालने में ही होती है, पर ये लड़का शुभम शुरू से ही मेरे गुणों की कद्र करता है, मेरी पढ़ाई - लिखाई से प्रभावित है, मुझे हमेशा जीवन में आगे बढ़ने के लिए ही उकसाता है, संवेदनशील और संजीदा है, इसके साथ समय भी अच्छा गुजरेगा और किसी तरह का बंधन भी नहीं रहेगा, शालीन है, प्रतिभाशाली है, जिस नौकरी में जाएगा आगे भी बढ़ेगा, देखने में मुझसे इक्कीस ही है, आम लड़कियों की तरफ़ देखता तक नहीं !
और इस तरह सबकी सोच के चलते जीवन जैसे किसी ढलान पर बहते पानी की तरह लुढ़कता आ रहा था।
सबकी अपनी - अपनी गति, किसी के पास किसी को रोकने का कोई कारण नहीं।
शुभम और दिव्या अब अपनी - अपनी नौकरी की जगह पर थे।
बीच में कभी कभी जयपुर आना होता था तो बात होती।
उस दौर में फ़ोन इतने प्रचलित नहीं थे कि अकारण कोई किसी को फ़ोन करे।
अब उनके बीच पत्रों का सिलसिला शुरू हो गया। लंबे लंबे पत्र दोनों ओर से लिखे जाते।
अपने- अपने घर में दोनों के संबंध में हुई बातों ने भी दोनों को सचेत किया कि इस संदर्भ में एक - दूसरे का मन टटोलें। जानें, कि क्या ये मित्रता जीवन साथी बनने की दिशा में जा रही है...या जानी चाहिए।
शुभम ने अपने लगभग हर पत्र में यह संकेत दिया कि वो दिव्या से प्रभावित है, उसके कैरियर को बढ़ते देखना चाहता है और उसकी दिलचस्पी ये जानने व देखने में है कि दिव्या जैसी लड़की जीवन में क्या करेगी, कैसे करेगी।
किन्तु दिव्या की ओर से आने वाले पत्रों में अब एक अलग तरह की गंध आने लगी थी। वह संकेत करती थी कि उसके घरवाले हम दोनों के संबंधों को लेकर अब संजीदा हैं और चाहते हैं कि या तो इन्हें जल्दी से किसी अंजाम पर पहुंचाया जाए या फ़िर स्पष्ट बताया जाए कि हम लोगों ने क्या सोच रखा है।
शुभम सकपका गया। उसने तो सोचा था कि दिव्या जैसी लड़की किसी भी तरह अपने घर वालों पर आश्रित नहीं है और घर वाले उस पर किसी भी तरह का दबाव नहीं बनाएंगे। यह सिलसिला स्वाभाविक रूप से चलता रहेगा और समयानुसार किसी निर्णय पर पहुंचेगा।
लेकिन जल्दी ही दिव्या के पिता की ओर से दोनों के लिए ही वह प्रश्नावली आ गई जिसमें केवल एक शब्द में उत्तर देना था "हां" या "ना"। और ये ताक़ीद भी थी कि हां माने "हां" और ना माने "ना"। बीच में कुछ नहीं।
यह एक असमंजस भरा मुकाम था।
यहां अपनी बात कहने के लिए विपक्ष में कुछ भी नहीं था। दोनों के ही घर वाले जन्मपत्री आदि में विश्वास नहीं रखते थे। स्वयं शुभम और दिव्या की भी इन बातों में आस्था नहीं थी। इसलिए किसी भी स्तर पर ये नहीं कहा जा सकता था कि कुंडली नहीं मिली। जाति धर्म का कोई मसला आड़े नहीं आता था।
दोनों ही परिवारों में छोटे भाई- बहन होने के कारण सारे अनुशासन का आधार यही था कि या तो स्पष्ट कहो कि हम शादी नहीं करेंगे या करो! तीसरा कुछ नहीं।
और इस बात का फ़ैसला न तो कोई बहस- मुबाहिसा ही कर पाया और न कोई लंबा- चौड़ा खत।
दिव्या ने पहली बार छुट्टी लेकर उस शहर में आने का मन बनाया जहां शुभम की पोस्टिंग थी।
दिव्या चली आई।
शायद उसकी समझदारी ने उसे सचेत कर दिया था कि वह अपने होने वाले पति की पूरी आंतरिक और शारीरिक पड़ताल करे।
उसे पता चले कि शुभम केवल उससे प्रभावित मानस- मित्र ही है या उसके तन मन में दिव्या को लेकर आंधी- तूफ़ान भी उठते हैं।
शुभम अपने ऑफिस से कुछ दूरी पर एक छोटे से फ़्लैट में रहता था मगर फ़िर भी उसके मन में ये ख्याल आया कि उसके साथ घर में एक लड़की को देखकर आसपास वाले क्या सोचेंगे और यदि किसी ऑफिस के व्यक्ति ने देखा तो बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगेगी।
शुभम ने पड़ोस में रहने वाले एक परिवार से अनुरोध करके उनके मकान में एक कमरा दिव्या के लिए रखवा दिया और उन परिचित की पत्नी को सारी बात समझा भी दी कि किस तरह हमारे शहर की एक लड़की यहां किसी काम से आ रही है।
वे लोग बहुत ख़ुश हुए और उन्होंने पूरी तरह दिव्या की मेहमान नवाजी किसी घरेलू रिश्तेदार की ही भांति की।
दिव्या जिस प्रयोजन से आ रही थी उसमें, ऐसा स्वागत कोई बहुत संतोषजनक तो नहीं लगा उसे,पर फ़िर भी वो इस बात से संतुष्ट ज़रूर हुई कि शुभम ने उसकी आवभगत और छवि खराब न होने देने के जतन तन्मयता से किए हैं। इससे शुभम में उसका विश्वास और बढ़ा।
शाम को घूम कर आने के बाद थोड़ी देर वह शुभम के फ़्लैट में भी उसके साथ रही, लगभग एक घंटा।
यही वो इम्तहान था जो लेने के लिए दिव्या इतनी दूर से इस शहर में आई थी और इसके परिणाम पर ही उसका आगे का जीवन और वैवाहिक निर्णय आधारित था।
शुभम की इस "परीक्षा" का परिणाम क्या रहा, ये तत्काल वो नहीं जान पाया क्योंकि परिणाम का गोपनीय लिफ़ाफा बंद करके दिव्या अपने साथ ले गई।
शुभम को इस परिणाम की भनक तब लगी, जब कुछ ही दिन बाद खुद उसके घर से उसे बुलाने के आदेश का पत्र आया। वह तुरंत छुट्टी लेकर घर गया।
अब बात शुभम की माताजी ने सीधे ही उससे की।
उनका कहना था कि दिव्या के माता पिता जल्दी से शादी की तारीख निकलवाना चाहते हैं परन्तु हम और तुम्हारे पिताजी ख़ुद तुम्हारे मुंह से ये जानना चाहते हैं कि क्या दिव्या से विवाह करने के लिए तुम्हारी इच्छा या सहमति है?
इस प्रश्न का उत्तर शुभम ने प्रश्नों के ही एक गुलदस्ते से दिया, कहा- मम्मी,अगर शादी करनी ही है तो अपने समाज में दिव्या से अच्छी लड़की हो सकती है क्या?
लेकिन शुभम ने इतना ज़रूर कहा कि मैं कोई जल्दबाजी नहीं करना चाहता क्योंकि अभी मैं अपने कैरियर से पूरी तरह संतुष्ट नहीं हूं।
मां इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुईं।
उन्होंने शुभम से स्पष्ट कहा कि वो इस रिश्ते के लिए साफ़ मना कर दे क्योंकि दुनिया का कोई भी लड़का अपने से ज़्यादा काबिल और कमाने वाली लड़की के साथ कभी खुश नहीं रहा।
उन्होंने कहा कि दो - तीन साल तक शुभम को शादी के बारे में न सोच कर अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए और मेहनत से अपने वो सपने पूरे करने चाहिएं जिनके लिए वर्षों से तैयारी की है।
पिताजी भी यही चाहते हैं कि अपनी काबिलियत के अनुसार कोई ऊंचा पद पाने के बाद ही शादी के लिए सोचना ग़लत नहीं होगा, क्योंकि उन्हें शुभम के किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के प्रति पूरा भरोसा है। उसे छोटी सी नौकरी से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, खासकर ऐसी जो बिना किसी खास प्रयास के आसानी से मिल गई है।
शुभम ने समझदारी से काम लेते हुए होली के त्यौहार पर घर आई दिव्या से कहा कि हम दोनों के विवाह में कोई अड़चन नहीं है पर हमें दो वर्ष इंतजार करना चाहिए और तब तक आपस में मिलना भी नहीं चाहिए।
इस बीच कुछ बड़ी प्रतियोगिताओं की तैयारी करने और उनमें बैठने का शुभम ने हवाला भी दिया।
दिव्या चली तो गई पर अपने मन में कई तरह के संशय लेकर गई - क्या शुभम के माता- पिता ने उनकी शादी के लिए इनकार कर दिया है? या शुभम ही उसके नज़दीक आने के बाद उससे दूर जाना चाहता है? वह दो साल रुकने के लिए क्यों कह रहा है? क्या वह दिव्या से छुटकारा पाना चाहता है? दो साल रुकना कोई बड़ी बात नहीं, मगर इस बीच आपस में न मिलने की बात क्यों की जा रही है? क्या शुभम में उससे मिलने की वही तीव्रता जाग्रत नहीं हुई जो खुद दिव्या को होती रही है? क्या ये आपस में हमेशा के लिए अलग हो जाने का मीठा बहाना है?
उधर दिव्या के पिता को जब ये मालूम हुआ कि शादी के बारे में शुभम की बात अपने पिता से नहीं बल्कि मां के साथ ही हुई है तो उन्होंने शुभम के पिता से मुलाक़ात की और कहा कि शुभम ख़ुद दिव्या से शादी करने के लिए लालायित है मगर संकोच वश कुछ कह नहीं पा रहा है।
इतना सुनते ही शुभम के पिता ने निस्पृह भाव से दिव्या के पिता और शुभम पर ही इस बात का फ़ैसला छोड़ दिया।
दिव्या के पिता ने दिव्या से न जाने क्या कहा पर उन्होंने शुभम से कहा कि तुम्हारे पिता तुम्हारा विवाह जल्दी से जल्दी करदेना चाहते हैं क्योंकि तुम लोग नौकरी के सिलसिले में घर से बाहर रहते हो और आपस में मिलते भी रहते हो।
शुभम और दिव्या फ़िर मिले।
शुभम ने दिव्या से कहा कि अपने पिता को मैं अच्छी तरह से समझता हूं, वो मेरी छोटी से छोटी इच्छा के लिए भी कभी इनकार नहीं करते क्योंकि अपने चारों पुत्रों में से वो मुझे सबसे ज़्यादा चाहते हैं जबकि मैं दो बड़े भाइयों के बाद तीसरे नंबर पर हूं।
इसलिए मेरे पिता ने यदि तुम्हारे पिताजी से विवाह जल्दी कर देने के लिए कहा है तो हम विवाह से पहले सगाई की रस्म कर लेने के लिए उन्हें कहते हैं, फ़िर दो साल बाद विवाह करेंगे।
इससे सबके मन की बात पूरी हो जाएगी। तुम्हारे पिता भी आश्वस्त हो जाएंगे और हमें शादी से पहले दो वर्ष का समय भी मिल जाएगा।
ये बात दिव्या को भी जंची और वो आश्वस्त हो गई कि विवाह में किसी भी तरह की अड़चन नहीं है।
एक सादगीपूर्ण आत्मीय वातावरण में शुभम और दिव्या की सगाई हो गई।
कई वर्षों से उनके आपस में मिलते - जुलते रहने के कारण किसी को भी इस रिश्ते से कोई कौतूहल नहीं हुआ।
सभी इसे "होना ही था" के रूप में देख रहे थे।
सगाई के बाद शुभम और दिव्या वापस अपनी - अपनी नौकरियों पर लौट गए।
शुभम ने अपने कैरियर के प्रति गंभीर व संजीदा होते हुए अपना तबादला एक छोटे से गांव में करवा लिया और वो हर तरफ़ से अपना ध्यान हटा कर एक बड़ी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में जुट गया।
वह शीघ्र ही इसमें आंशिक रूप से सफल भी रहा और लिखित परीक्षा पास करने के बाद आगे के स्तरों की तैयारी में संलग्न हो गया।
उधर महानगर में ऊंची नौकरी में दिनों दिन दिव्या के मध्यम वर्गीय कस्बाई विचारों ने भी बदलना शुरू किया और वो "दो वर्ष" दूर रहने की बात की अनदेखी करके शुभम के पास आने- जाने लगी।
दो बार ऐसा होते ही शायद दिव्या के पिता को चौकन्ना होकर आनन- फानन में विवाह कर देने के लिए सोचना पड़ा।
घर से सूचना आई कि एक महीने बाद ही विवाह की तारीख निश्चित कर दी गई है और इन्विटेशन कार्ड शीघ्र पहुंच रहे हैं।
दोनों को छुट्टी लेकर जल्दी से घर आ जाने का आग्रह भी भेज दिया गया।
विवाह हो गया।
शुभम और दिव्या एक दूसरे के लिए ही बने थे। वे बिना मिले और बिना बोले भी एक दूसरे के मन की बात समझ लेते थे।
उनके लिए एक दूसरे के पास होने या एक दूसरे से दूर होने में कोई अंतर नहीं था।
दुनियादारी की परवाह दोनों में से किसी को भी नहीं थी।
लेकिन...
लेकिन इस प्रेम कहानी में भी एक "लेकिन" था।
दिव्या शुभम से दो साल छोटी थी। शुभम उससे दो साल पहले इस दुनिया में आया था।
वो दोनों ही ग्रह नक्षत्र कुंडली भाग्य जैसी किसी बात में यकीन नहीं करते थे किन्तु आयु में दो साल का ये अंतर दोनों की जन्मकुंडली में अलग- अलग ग्रह चाल लेकर किसी विषधर की भांति कुंडली मार कर बैठा था और अगले दो साल उन दोनों के लिए कष्टकारी, एक दूसरे के प्रति शंका और अविश्वास लाने वाले सिद्ध हुए।
दोनों के बिना बाधा के जीवन पथ में अनिष्ट का बीज इन दो सालों ने बोया।
और इस अनिष्ट की काली छाया जीवन पर्यन्त दोनों के हंसते खेलते जीवन पर रही।
विवाह होते ही शुभम के पिता चल बसे।
स्वस्थ, सक्रिय, घर की जिम्मेदारियों को आसानी से निभाते हुए वे एक रात ऐसे सोए कि सुबह नहीं उठे।
इस पारिवारिक आघात से मानसिक, आर्थिक,सामाजिक छुटकारा पाते पाते ये खबर भी मिली कि दिव्या गर्भवती है।
महानगर में अकेली रहती पत्नी की देखभाल के लिए अपने परिवार को छोड़कर शुभम को भी तबादला लेकर महानगर में जाना पड़ा।
पीछे विधवा मां, एक अनब्याही बहन और एक पढ़ते हुए छोटे भाई से संबंध के धागे खींच- उधेड़ कर अपने भविष्य में आने वाले परिवार की आवभगत के लिए जाना पड़ा।
इस प्रयाण ने शुभम के कैरियर प्रयासों पर तो विराम लगाया ही, वरिष्ठता से पदोन्नति पाने के अवसर को छोड़ कर नितांत अजनबी माहौल में नौकरी के लिए जाना पड़ा।
और नियति इतने पर ही नहीं थमी।
जिस संतति की अगवानी के लिए ये सब उथल पुथल हुई, वो भी दुनिया में आ न सकी।
दिव्या को दो जुड़वां संतानें हुईं किन्तु दोनों ही दुनियां में कदम रखते ही अलविदा कह गईं।
एक ही साल के भीतर दो नवजात पुत्रों को खोकर, पिता को खोने का दुख भी जैसे फ़िर से हरा हो गया।
शुभम और दिव्या अपने घर परिवार से दूर अपने सपनों के खंडहर में एक दूसरे के सामने किसी श्वेत श्याम चित्र की तरह अकेले- अकेले खड़े रह गए।
तीखी धूप का ये टुकड़ा दो साल का था। ये सरक सरक कर ज़िन्दगी से चला गया।
इस धूप का साया गुज़र जाने के बाद दोनों ने अपने - अपने कैरियर को बेहतरी की उम्मीद में फ़िर से सान पर चढ़ा दिया।
ज़िन्दगी जैसे फ़िर से शुरू हुई।
दिव्या और शुभम फ़िर से नई नौकरी पाकर एक महानगर से दूसरे महानगर में आ गए।
यहां आने के बाद मानो कुदरत ने पश्चाताप किया और दिव्या और शुभम को उनकी ज़िंदगी दो सुन्दर फूलों के साथ फ़िर से लौटाई।
दिव्या ने अपना तन मन धन इन दो फूलों को पालने पोसने में लगा दिया और शुभम ने जैसे फ़िर कोई अनहोनी न हो, ये मन्नत मांगते हुए सपनों के बिछावन पर उम्मीदों के फूल चुनते हुए ये समय बिताया।
दिव्या और शुभम की सारी मेधा,सारी प्रतिभा, सारी त्वरा,सारी उम्मीद ये दो बच्चे ही बन कर रह गए।
ये भी अपने साथ नक्षत्रों की ऐसी चाल लेकर आए कि इन्होंने न कभी अपने माता पिता को कोई कष्ट दिया,न संशय और न कोई दुविधा।
उनसे कुछ भी न मांगा, और बदले में उन्हें तन मन धन से सौभाग्य दिया।
समय ने मानो अतीत की अपनी टेढ़ी चाल का प्रायश्चित किया।
एक दिन बड़े होकर, अच्छी नौकरी पाकर, मनपसंद शादी करके
वो दोनों भी दूर चले गए।
फ़िर आमने- सामने खड़े रह गए दिव्या और शुभम!
एक नव निर्मित विश्वविद्यालय में कुलपति बन कर दिव्या ने कदम रखा और उसके शुभारंभ के यज्ञ में पहले ही दिन समिधा बन कर अपना जीवन होम कर दिया।
उस अपावन यज्ञ की लपटों ने शुभम के जीवन पर ग्रहण के बादल छितरा दिए। और वो हर आने वाले पल को अनिष्ट से बचाने के लिए मन ही मन हर सांस में "जल तू जलाल तू" जैसा कोई मंत्र जपता रहा... अकेला!
और...
और आज जब रोटी के कटोरदान में शुभम ने अपनी ताज़ा छपी कहानी का अख़बारी काग़ज़ फ़ैला कर लगाया तो उसे महसूस हुआ कि सचमुच समय कितना बदल गया है।
(समाप्त)
- प्रबोध कुमार गोविल