धारावाहिक परछाईं
भाग-४
देर रात मायाविनी एक जंगली बिल्ली का रूप लेकर नगर में घुस आई।वह एक घर म़े बिल्ली बनकर रहने लगी।
आधी रात बीत गई थी..।राजकुमार मध्य को जैसे किसी ने जगाया..।वह खुली आँखों से देख रहा था कि मायाविनी एक बिल्ली बनकर एक घर में रह रहीहै।
अब वह सही गणना करने लगा..दो दिन बारह घंटे और..।
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सुबह हो चला था।राजकुमार सुमेर अपनी यात्रा आगे बढ़ाने के लिए तैयार हो रहा था।घने जंगलों में उसे सही रास्ता तलाशने में बहुत दिक्कत आ रही थी।
बहुत देर इधरउधर भटकने के बाद वह पानी की झरझर की आवाज सुना।वह पानी की आवाज सुनकर उसी दिशा म़े आगे बढ़ता गया।
काफी देर तक चलने के बाद आखिरकार वह झरने के पास पहुंच गया।
वाकई..,झील..झरना बहुत ही खूबसूरत था।ऊपर के चट्टानों से नीचे गिरता जल बहुत ही रमनीयता उत्पन्न कर रहा था।राजकुमार अपलक उस खूबसूरत छटा को निहारते रहे..फिर उन्हें याद आया कि इस झरने को भी पार करके आगे जाना है।
उसने झरने को आवाज दी
"ओ,झरने के पानी..अपने दरवाजे तो खोल मुझे आगे जाना है..पिघला चट्टान लाना है।"
थोड़ी देर में झरने का पानी दो भाग में बँट गया और बीच में एक पतला सँकरा रास्ता बन आया।
राजकुमार आहिस्ताआहिस्ता घोड़े पर बैठकर आगे बढ़ने लगा।
एकदम साफ सुथरी पतली पगडण्डी..पर सफेद काले संगमरमर से बनी।राजकुमार स्वयं आश्चर्यचकित थे..।
लगभग एक घंटे तक चलने के बाद वह एक खूबसूरत बगीचे में आ गया,जहां तरह तरह के वृक्ष लगे थे।पेड़ों पर कोयलें कूज रहीं थ़ी।पेड़ों पर चिड़ियों के घोंसले बने थे।बहुत ही खूबसूरत बाग था।
सुमेर इधरउधर देख रहाथा वह चमकती शिला कहाँ है।
तभी उसकी नजर एक छोटे से बहुत मोटे वृक्ष पर पड़ी।
,,,हाँ...,यही है वह चमकती शिला..।वह अपने आप को उसपर छाया पड़ने दिया।यह तो चमत्कार ही था!!, वह शिला धीरे धीरे चटकने लगी।फिर पिघलने लगी।
राजकुमार ने एक वृक्ष लगे घट की मिट्टी हटाकर उसपर पिघलती शिला डालकर ढँक दिया और वापस लौटने लगा।
***
इधर बिल्ली बनकर मायाविनी राजमहल तक पहुंच गई।वह गुस्से से पागल थी।उसने एक ..एक करके तीन चार सैनिकों को घायल कर दिया।
किसी को जब तक समझ में आता तब तक कई सैनिक उसकी मायाजाल में आ गए थे।
वह उसे न पकड़ ही रहे थे न ही मार रहे थे।
वह बिल्ली महारानी बैजंती देवी के महल में घुसकर उन्हें अपने पंजों से नोचकर बेहोश कर दिया।
पूरे राजमहल में हड़कंप मच गया था।
उसी समय राजकुमार अच्युत अपनी पत्नी सुकन्या के साथ वापस बसंतीपुर आ पहुंचे।
वह अपने माता पिता को प्रणाम करने के लिए राजमहल आए थे।
राजकुमार के पास सुनकर और देखकर समझने की अद्भुत शक्ति आ गई थी.इसलिए वह काली बिल्ली की पंजों को देखकर समझ गया कि इसे कैसे मारना है।
महारानी की दशा देखकर वह बहुत दुखी हुए।
बस..किसी तरह एक रात और बीत जाए..कल तक सुमेर पिघला शीशा चट्टान ले आएगा फिर इसका अंत..निश्चित..है।
***
रात बहुत हो गई थी।बसंतवन भी जंगली जानवरों से भरा था।राजकुमार सुमेर ने अपने साथ लाया पिघला चट्टान सुरक्षित रख स्वयं भी एक पेड़ के ऊपर सो गया।
आधी रात बीत गई।वह भी गहरीनींद में था
उसने भी वही स्वप्न देखा जो उसके भाई और माता ने देखे थे।
एक गहरी नदी..नीला गहरा पानी..और एक युवती..जिंदा बचने के लिए हाथ पैर मारती हुई.."राजकुमार सुमेर..मुझे बचाईये..!!"
राजकुमार सुमेर नींद से जाग उठा।वह बहुत बेचैन हो उठा।
उस लड़की की खूबसूरती उससे भूलाया ही नहीं जा रहा था।
,,कौन है वह युवती..!!,इस स्वप्न का क्या अर्थ हो सकता है!!वह परेशान हो गया था।
सुबह हो गई थी।उसे वापस महल लौटना था।वह शीशे वाला कलश लेकर बसंतीपुर लौटआया।
उस कलश को लेकर सुमेर कुलगुरु सुभद्र की कुटिया में पहुंचा।
गुरू के चरणों में कलश को रख उसने झुक कर भक्ति भाव से गुरु को प्रणाम किया।
गुरु सुभद्र ने राजकुमार अच्युत को बुलाया और उससे उसकी तलवार माँगा।
राजकुमार अच्युत ने अपनी तलवार गुरू को दे दी।
तब गुरू ने सुमेर से कहा ,,उस कलश का ढक्कन हटाओ और पिघला हुआ चट्टान इस तलवार पर डालो।,,
राजकुमार सुमेर ने यही किया।
तलवार अब चमचमाती चाँदी की तरह चमकने लगी थी।
गुरु सुभद्र ने राजकुमार मध्यवर्द्धन से सही गणना का समय पूछा।राजकुमार मध्य ने सही समय बतला दिया।
अब गुरु सुभद्र ने अच्युत से कहा
" पुत्र,समय हो गया है।जाओ,उसकी सारी माया उसकी मायावी आँखों में ही बसती है।इस तलवार की चमक में उसकी सारी शक्तियाँ खंडित हो जाएगी।
"जी,गुरुदेव प्रणाम।"राजकुमार ने प्रणाम किया और महल की ओर चल दिया।
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मायावी मायाविनी परछाईं बनकर घूम रही थी।किसी को भी नजर नहीं आ रही थी।राजकुमार अच्युत को बनदेवी का आशीर्वाद मिला था-अलौकिक दृष्टि का,और फिर उसके पास अब दिव्य तलवार भी था..इसलिए उसे सब दिख रहा था।
बस धीरे धीरे बिना किसी पदचाप के वह उस परछाईं का पीछा करता रहा..समय हो गया था..कुमार वर्द्धन ने जो समय बतलाया था..बस...एक वार ..!!,एक वीभत्स चीख पूरे वातावरण में गूंज उठी..इतनी भयानक..कि..सब लोग सहम उठे।
फिर पूरे वातावरण में शाँति छा गई।वो हो गया था जो आजतक नहीं हुआ था..मायावी पिशाचिनी मायाविनी मारी गई थी।
उसका जादू खत्म हो गया था।महारानी बैजंती देवी गहरी नींद से जाग उठी थी।सारे वो सैनिक जो मायाविनी के चंगुल में फँसे थे,सब बाहर आ गए थे।
अब बसंतीपुर खुश था कि एक पापिनी का अ़ंत हो गया था।
लेकिन पूरी शांति कहाँ आई थी।राजकुमार सुमेर बहुत अधिक दुखी था।वह दिन रात बस उस युवती की चीख और उसके खयालों के उधेड़बुन में खोया रहता था।
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राजा पटवर्द्धन अब निश्चिंत थे कि राज्य का कोई भी बाल बाँका नहीं कर सकता।
अब बहुत दिन बीत गए थे।राजा राजकुमार मध्यवर्द्धन का विवाह करना चाहते थे।वह चाहते थे कि कोई सुंदर,सुयोग्य संगिनी मध्य को मिले,क्योंकि मध्य आम युवक न होकर कुछ अलग हटकर था।
उन्होंने पूरे राज्य तथा आसपास के राज्यों में भी संदेशे भेजे कोई गुणवान कन्या हो तो बसंतीपुर आए।
राजकुमार मध्यवर्द्धन एक दिन अपने साथी मित्रों के साथ बसंतवन आखेट पर गया।उसके सारे मित्र एक हिरण को देखकर उसके पीछे पीछे चले गए और इधर राजकुमार मध्य बिल्कुल अकेले हो गए।
वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे।उसी समय एक मृग दूसरी तरफ से आकर मध्य के पास पहुंच गई।
लह आम इंसानों की भाषा में बोलने लगी
"राजकुमार मध्य,इस वृक्ष के ऊपर एक घड़ा है आप उसे सावधानी से उतारकर अपने साथ ले जाईए।
इस घड़े को चाँद की रात में खुले आसमान के नीचे रख दीजिएगा।"
"अच्छा..!,फिर क्या होगा?"
"राजकुमार आपके लिए सुयोग्य संगिनी इसी में है।"
हिरणी ने कहा।
राजकुमार मध्य द्रवित हो गया।बोला
"मृगा,मैं तुम्हें मारने आया था और तुम मेरा घर बसा रही हो।"
"कोई बात नहीं,राजकुमार।आप महान हैं।कृपया आप ये काम कर लीजिए और घर जाईए।"हिरणी बोली और अदृश्य हो गई।
राजकुमार मध्य हैरानी से इधरउधर देखता रहा फिर सिर उठाकर देखा तो सचमुच एक गोल सा मिट्टी का घड़ा पेड़ की चोटी पर लटका हुआ था।
राजकुमार मध्य सावधानी से वृक्ष पर चढ़ा और घड़ा उतार लिया।
तबतक उसके बाकी साथी भी आ गए थे।सूरज ढलने लगा था,सबलोग वापस नगर को लौटने लगे।
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स्वरचित...सीमा..
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क्रमशः
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