धारावाहिक कहानीः परछाईं-भाग१
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बहुत पुरानी कहानी है।गुजरात राजस्थान सीमा पर एक राज्य था-बसंतीपुर।वहां के राजा थे पटवर्द्धन सिंह।राजा पटवर्द्धन बहुत ही न्यायप्रिय और खुशमिजाज व्यक्ति थे।उनकी प्रजा उनपर अपनी जान छिड़कती थी।राजा भी अपनी प्रजा को बहुत प्यार करते थे।
राजा के तीन बेटे थे।तीनों ही अपने पिता की तरह ही खुशमिजाज और कर्त्तव्यनिष्ठ थे ।
बड़ा बेटा अच्युतवर्द्धन तलवार बाजी में निपुण था।वह एक ही वार में कम से कम दस दस लोगों के सिर कलम कर सकता था।उसे अपने गुरु का विशेष आशिर्वाद प्राप्त था।
दूसरा बेटा मध्यवर्द्धन पढाई लिखाई और ज्योतिषशास्त्र में पारंगत था।समय और तिथि देखकर वह इतनी सटीक गणना करता कि लोग दाँतों तले उंगली दबा लेते।वह ज्यादातर अपनी गूढ़ विद्या में ही लगा रहता या फिर पूजापाठ में ही डूबा रहता।
राजा का सबसे छोटा बेटा सुमेर सिंह अभी युवावस्था में कदम ही रखा था। चौदह पंदरह वर्ष का युवक।अभी पढ़ाई कर रहा था।वह स़ंगीत विद्या में महारत हासिल कर रहा था।उसे भी तलवारबाजी बहुत अधिक पसंद था।
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समय बीतता जा रहा था।राजा पटवर्धन अब दिनों दिन बूढ़े होते जा रहे थे।उनका बड़ा बेटा राजकुमार अच्युत सिंह अब जवान हो रहा था।राजा चाहते थे कि राजकुमार की अच्छी सुशील और गुणवान लड़की से शादी हो जाए और वह राज्य का कार्य भार भी संभाल ले।
पर वह डरते थे।राजा के संबंध अपने पड़ोसी राज्यों के साथ बहुत ही मधुर थे।उनको डर लगता था कि इतनी मेहनत से उन्होंने अपने पड़ोसियों के साथ जो स्नेहिल संबंध स्थापित किये हैं वह कहीं उनका बेटा डुबो न दे। वह चाहते थे कि राजकुमार अच्युत भी उनकी ही तरह एक योग्य शासक बने।
इसी संबंध में उन्होंने अपने मंत्री तथा सभापतियों के साथ सलाह मशवरा किया।वह राजकुमार के धैर्य तथा साहस की परीक्षा लेना चाहते थे।
राजा के कुलगुरु पंडित सुभद्र स्वामी एक बहुत ही पहुंचे हुए संत थे।राजा पटवर्द्धन की राज तथा गुरूभक्ति से बहुत ही प्रसन्न रहते थे।उन्होंने राजा को एक मार्ग सुझाया।
बसंतीपुर चारों तरफ घने जंगलों से घिरा हुआ था।उनमें से एक जंगल जो राज्य के दक्षिणी छोर में अवस्थित था वह था मेघम वन। मेघमवन अपनी हरियाली और घने वृक्षों के लिए मशहूर था।
यह वन इतना घना था,पर फिर भी यहां सूरज की किरणें बहुत आसानी से धरती को छू लेतीं थीं ।यह वन राजा को भी बहुत ही पसंद था,वह अक्सर आखेट के लिए यहां आते थे तो कभी महारानी के साथ भ्रमण के लिए आते ही रहते थे।
परंतु इस वन में कुछ गहरे रहस्य छिपे थे जिनका सच किसी को भी नहीं पता था।
बहुत सारे लोग और बहुमत..कुछ लोग कुछ बातें किया करते थे..कुछ लोग कुछ..!
घने जंगलों के बीच एक सोता(स्त्रोत)बहता था।वह एक विशाल जलकुंड का रूप ले चुका था। वह सोता कब और कैसे उत्पन्न हुआ यह किसी को भी नहीं पता था।लोग कहते थे कि यक्षिणियों ने अपने लिए यह जलाशय बनवाया था..,कुछ लोग कहते कि उस कुंड में जलपरियां रहती हैं.उनका आधा शरीर तो नारी का होता है और आधा मछलियों के जैसा।
कुछ कहते कि वन के गहरे भाग में यक्षिणियों का वास है।वे तरह तरह का रूप लेकर घूमती रहती हैं।
उस जलकुंड का पानी अत्यंत ही मीठा और ताजगी से भरपूर होता था पर वहां तक पहुंचना ही बहुत दुस्कर कार्य था।जलपरियां किसी को भी वहां आने नहीं देतीं थीं।लोग भी वहां जाने से डरते थे।
बसंतीपुर के लोगों ने कभी भी वन के उस भाग में कदम तक नहीं रखा।
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राजगुरु सुभद्र ने राजकुमार अच्युत के साहस को परखने के लिए यही शर्त रखी थी कि राजकुमार अच्युत मेघमवन जाकर एक स्वर्ण कलश में उस जल कुंड का निर्मल जल भरकर लाएंगे।अगर वह लाने में सक्षम हुए तो वह राज्य के उत्तराधिकारी घोषित कर दिए जाएंगे।
परीक्षा की यह शर्त सुनकर राजा पटवर्द्धन खुद ही डर गए।वह सोचने लगे कि एक राजमहल का एक कोमल बालक..इतना कठिन कार्य कैसे कर लेगा।परन्तु बसंतीपुर के भविष्य का सवाल था...वह मान तो गए..पर उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच गई।
वह सोचते..,,अगर राजकुमार जल ले आया तब तो ठीक है..,लेकिन अगर नहीं ला पाया तो..फिर उनकी गद्दी का वारिस कौन होगा?,,
पर उन्हें अपने कुलगुरु पर अखंड विश्वास था..वह बेमन से ही पर राजकुमार की परीक्षा लेने के लिए तैयार हो गए।
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जब राजकुमार अच्युत सिंह ने उत्तराधिकारी के लिए यह शर्त सुना तो वह तुरंत ही तैयार हो गया।
पर राज्य सिंहासन के लिए इतना कठिन प्रस्ताव सुनकर राजमाता वैजंती देवी बेहोश हो गईं।
बेहोशी में बडबड़ाने लगी...राजकुमार..को मत भेजो....मत जाओ...राजकुमार....!"
इस खबर को सुनने के बाद राजमाता की तबीयत खराब होने लगी,उधर राजकुमार अच्युत अपने प्रण पूरे करने के लिए हठ लगाए बैठा था।
वह माता के स्वस्थ होने का इंतजार कर रहा था।
वह हर दिन अपनी माता के शयनकक्ष में जाता और वन जाने की आज्ञा माँगता..कई दिनों तक ऐसे ही चलता रहा।वह आज्ञा माँगता पर राजमाता कोई न कोई बहाने से टाल देतीं।
एक दिन सोते हुए राजमाता ने एक स्वप्न देखा ।
एक गहरे सरोवर में एक लड़की हाथ पैर मारती हुई..डूबती हुई, राजमाता से मदद की गुहार लगा रही है "राजमाता..,मुझे बचा लीजिए..!"
राजमाता बैजंती देवी नींद से जागकर उठ बैठीं और बेचैन हो गईं।वह उस लड़की के बारे म़े जानने को बहुत ही व्यग्र हो उठीं।
तभी राजकुमार फिर से उनके कक्ष में आज्ञा हेतू गए।राजमाता ने उन्हें अपने स्वप्न के बारे में बताया और मेघमवन जाने की आज्ञा दे दी।
राजमाता के मुँह से यह सुनकर राजकुमार अच्युत प्रसन्न हो उठे।उन्होंने कहा
"माता,अब पिताजी को प्रसन्न करने का समय आ गया है।मैं अपनी योग्यता सिद्ध करके ही लौटूँगा।मैं उनका सिर कभी भी झुकने नहीं दूंगा।" उन्होंने झुककर अपनी माता को प्रणाम किया।राजमाता ने भी उन्हें गले लगाकर आशिर्वाद दिया।
शर्त अत्यंत ही कठिन था..और रास्ता दुर्गम..।पर राजकुमार अच्युत वन जाने को तैयार हो गया।
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आज राजकुमार वन जाने को तैयार खड़े थे...उनकी विजय यात्रा का पूजन चल रहा था।राजकुमार के दोनों भाई मध्यवर्धन और सुमेर वर्धन भी गुरूकुल से वहां आए हुए थे।
राजमाता ने बड़े प्रेम से राजकुमार के ललाट पर रोली और चँदन का एक टीका लगाया और आरती उतारी।
राजकुमार अच्युत माता पिता को प्रणाम कर अपने भाईयों को प्यार करके अपनी तलवार कमर में खोंसकर अपने घोड़े हवाई में बैठकर जंगल की ओर निकल पड़े।
राजकुमार अच्युत का घोड़ा हवाई बहुत ही शक्तिशाली था।उसके पास बहुत सारी अलौकिक शक्तियां थीं।वह मनुष्यों की तरह बोल भी सकता था।इतना तेज भागता था मानों बादलों पर दौड़ रहा हो।
राजकुमार जा रहे थे और प्रजा 'राजकुमार अच्युत की जय हो' 'राजकुमार विजयी हों' के नारे लगा रही थी।
****स्वरचित...सीमा..
क्रमशः
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