सीता की शादी के लिए उसके माता-पिता एवं अन्य रिश्तेदार पिछले कई सालों से प्रयास कर रहे थे मगर कहीं बात न जम रही थी। इधर शादी की बात जमाते-जमाते रमाकांत के पैरों की एड़ी घिसती जा रही थी और उधर सीता की उमर बढ़ती जा रही थी। अबकी सावन में वह अट्ठाइस की होने वाली है़।
आसपास की महिलाएँ तरह-तरह की बातें बनाने लगीं थीं। कोई कहता लड़की में दोष है़ कोई कहता इसके भाग्य ही में शादी नहीं लिखा है़। सीता की माँ उर्मिला के कानों में जब ये बातें पहुँचती तो उनका कलेजा मुँह को आ जाता। बेटी को लेकर वह भी काफ़ी दुःखी रहने लगीं थीं। कितने ही देवी देवताओं के यहाँ मन्नतें मान रखी थीं मगर शायद देवी-देवता भी उससे रुष्ट थे। लोग जो भी उपाय बताते उर्मिला लाख जतन करके भी उस उपाय का संधान करती मगर जब उससे भी कुछ काम बनता न दिखता तो मारे हताशा के वह कभी देवी-देवताओं तो कभी सीता पर ही कुपित हो बैठती थी।
एक दफ़ा अपने किसी पहचान वाले के कहने पर उर्मिला सीता को साथ लेकर बनारस के प्रसिद्ध ज्योतिषी पंडित बृजकिशोर शर्मा के पहुँची। पंडित बृजकिशोर बनारस का नाम बनारस ही नहीं बल्कि पूरे प्रांत में ज्योतिष विद्या के क्षेत्र में बहुत ही ख्यातिप्राप्त था। पंडित जी के पास पहुँचकर उर्मिला बड़े ही दुःखी वन से अपना सारा दुखड़ा कह सुनाई। सारी कहानी सुनने के बाद पंडित जी जब सीता की कुंडली जाँचने बैठे तो उन्हें ऐसा कोई खाश दोष नज़र नहीं आया। बस एक बाहरी बाधा थी जो बनते हुये काम को बिगाड़ देती थी। पंडित जी ने उर्मिला को बाबा विश्वनाथ के दर्शन के लिये कहा और फिर कुछ वस्त्र और नारियल को दिये हुये मंत्र का उच्चारण करते हुये गंगा में प्रवाहित करने का निर्देश दिया।
उर्मिला ने पंडित जी के निर्देश को सराखो पर रखते हुये निर्देशानुसार सारे कर्म किये। सीता हालाँकि इन सब पर ज्यादा यकीन नहीं करती थी मगर पिछले कुछ सालों की घटनाओं और माँ-बाप की चिंता को देखते हुये इसका विरोध भी नहीं कर सकी। सारा प्रक्रम करने के बाद उर्मिला बड़े ही शुकून के साथ घर लौटी। इस समय उसकी अंतरात्मा से आवाज आ रही थी कि उसकी मनोरथ जल्द ही पूरी होने वाली है़।
सीता रमाकांत और उर्मिला की तीन संतानो.में सबसे छोटी है़। रंग-रूप से सीता में कोई कमी नहीं है़। गोरा रंग,एकहरा बदन और लंबी कद-काठी।सीता लिखने-पढ़ने में भी काफ़ी होशियार है़। अभी दो वर्ष पहले ही एम ए की परीक्षा प्रथम डिवीजन से पास की थी और उसके बाद भी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये प्रयासरत है़। उसके ये गुण किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने का माद्दा रखते हैं। यहीं कारण है़ कि आजतक जितने भी लोग सीता को रिश्ते के लिये देखने आ चुके थे उनमें से एक-दो को छोड़ दिया जाये तो किसी ने भी लड़की को अस्वीकार नहीं किया था भले ही दूसरे करणों की वजह शे शादी तय नहीं हो पायी थी।
रमाकांत काफ़ी खुले विचारों वाले व्यक्ति हैं और वे अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर विशेष ध्यान देते हैं। यहीं कारण है़ कि जब तक सीता कॉलेज की पढ़ाई कर रही थी उन्होंने कभी भी उसके सामने उसकी शादी-ब्याह के बारे में कभी कोई बात नहीं की। यहाँ तक कि उनके इस रवैए कि बहुत से लोगों ने दबी जुबाँ से निंदा भी की मगर फिर भी रमाकांत टस से मस न हुये। उस समय उन्हें भी कहाँ मालूम था कि बेटी की शादी के लिए इतना झेलना पड़ेगा।
आखिर कार उर्मिला का प्रयास रंग लाया। सावन के बीतते-बीतते सीता के शादी की बात तय हो गई। रमाकांत के भावी संबंधी बनारस के ही रहने वाले हैं। नाम गोपाल दास है़ जो की बनारस में ही किराने की दुकान चलाते हैं । उनकी पत्नी केतकी देवी उनके कामों में बराबर की साथी हैं। इन्हीं के इकलौते पुत्र रोहित के साथ सीता का विवाह होना तय हुआ है़। रोहित के पिता को एक ही नज़र में सीता पसंद आ गई और यहीं हाल रोहित और उसकी माता जी का भी हुआ। सीता की तस्वीर देखते ही दोनों ने अपनी सहमति दे दी।
रिश्ता तय हो जाने के बाद जहाँ एक तरफ रमाकांत और उर्मिला के चेहरे पर शुकून दिखाई देने लगा वहीं दूसरी ओर सीता के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी और व्यवहार में बेचैनी दिखाई दे रही है़। इस ख़ुशी के अवसर पर ऐसा क्यों है़ इसका जवाब सिवाय सीता के कोई और नहीं दे सकता है़ मगर सीता स्वयं ही ही इतनी उलझी-उलझी है़ कि उसे अपने आप का होश ही नहीं है़।
ऐसा पहले भी कई बार हो चुका था मगर सीता ने इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताया था या फिर यूँ कहूँ कि बताने की हिम्मत ही न हुई थी तो गलत न होगा। बात ही कुछ ऐसी है़ कि उसे किसी के सामने बताने में दिल-दिमाग दोनों बैठे जाते हैं।
आज से पहले जब कभी भी सीता का रिश्ता तय हुआ, उसी रात उसको एक अजीब सा ख्वाब आया जिसे देखकर वह चीख़ पड़ी और फिर कुछ देर के लिये अपना सुध-बुध खोकर एक टक बस सामने की दीवार की तरफ ताकती रह गई, मिनटों तक उसकी पलकें नहीं झपकती और जब कोई कुछ पूछता तो उसे बड़े ही अजीब नजरों से घूरने लग जाती। मुँह से से कोई जवाब नहीं निकलता। सुबह होते ही वह सब कुछ भूल जाती और एकदम सामान्य सी दिनचर्या हो जाती। अगर कोई रात की घटना के बारे में पूछता भी तो वह बिल्कुल मासूम सा उत्तर दे देती,"क्या हुआ था रात को? कुछ हुआ था क्या? मुझे तो कुछ भी याद नहीं।" इतना कहकर वह खुद भी बड़ी गंभीरता से सोचने बैठ जाती इस उम्मीद में कि शायद कुछ याद आ जाये मगर वह अपने प्रयास में कितना सफल होती थीं यह तो वहीं जानती थी। लोगों को यह सुनकर बहुत आश्चर्य होता। उन्हें लगता कि क्या सचमुच सीता को कुछ नहीं पता या फिर वह उस बारे में बात ही नहीं करना चाहती। इस घटना के एक दो दिन बाद ही बना-बनाया रिश्ता टूट जाता मगर इसका कारण पता न चलता।
यहीं क्रम पिछले दो-तीन वर्षों से चला आ रहा था। जिस दिन कोई रिश्ता तय होता उसी रात सीता को फिर वहीं ख्वाब आता। इस बारे में कभी घर वालों को पता चलता था और कभी नहीं भी। मगर अगले कुछ दिनों बाद ही रिश्ते की बात टूट जाती थी। उर्मिला अफवाहों और बदनामी के डर से बहुत दिनों तक इस बात की चर्चा किसी से न कि मगर जब बिल्कुल हताश हो गई तब अपने एक रिश्तेदार से इस बात का जिक्र की, उन्ही के परामर्श पर वह सीता को लेकर बनारस गई थी।
इस बार भी रिश्ता तय होने के बाद निर्मला के मन में भी कहीं न कहीं एक डर बना हुआ है़ मगर पंडित बृजकिशोर के द्वारा बताये गये उपायों को अपनाने के बाद उसके माँ में इस ओर से चिंता काफ़ी कम हो गई है़ मगर फिर भी पूर्णतया समाप्त नहीं हुई है़। रही बात सीता की तो वह उसके मन की बस वहीं जानती है़। उसके चेहरे पर उभरी चिंता की लकीरें उसके दिल का हाल बयाँ करने के लिये काफ़ी हैं मगर इसके पीछे का कारण किसी और को मालूम न होता है़।
रात में सीता पंडित जी के बताए मंत्र का जाप करने के बाद सो गई। उसे सोए हुये अभी कुछ घण्टे ही हुये थे कि उसे ऐसा लगा कोई उसे पुकार रहा है़। उसकी नींद अचानक ही खुल गई। उसकी नज़र सामने दीवार की तरफ गई तो वहाँ एक साया नज़र आया। थोड़ी ही देर में वह साया अपने असली रूप में परिवर्तित हो गया। उस रूप को देखते ही सीता की आंखे फटी की फटी रह गईं। ऐसा लगा कि उसकी धमनियों में बहता रक्त धमनियों में ही जम गया हो। वह चीखना चाह रही है़ मगर उसके मुँह से बोल नहीं निकल रहें हैं मगर उसे अहसास हो रहा है़ कि वह जोर-जोर से चीख़ रही है़ मगर उसकी आवाज कोई सुन नहीं पा रहा है़।
सीता के सामने जो चेहरा उभर कर आया था सीता उसे भलीभाँति पहचानती थी। थोड़ी देर के बाद वह साया जो अभी तक दीवार से लगकर खड़ा हुआ प्रतीत हो रहा था धीरे-धीरे सीता की तरफ बढ़ा मगर उसके पास न गया बल्कि वहीं पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया और बोला, "सीता! क्या तुमने मुझे नहीं पहचाना? मैं गोविंद हूँ गोविंद। तुम्हारा गोविंद।"
यह.सुनते ही सीता की आँखों से आसुँओ का झरना बह निकला मगर फिर भी डर के मारे उसके मुँह से कुछ न निकला।
गोविंद को भी शायद यह अहसास हो गया। वह बड़े ही प्यार से सीता को ढाढ़स बँधाते हुये बोला- "सीता तुम शायद मुझसे डर रही हो मगर मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हें मुझसे डरने की जरूरत नहीं है़। मैं तुम्हें कोई नुकसान पहुँचाने नहीं आया हूँ। तुम्हें नुकसान पहुँचाने के बारे में तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता हूँ। मैं तुमसे प्यार करता हूँ। पहले भी करता था और आगे भी करता रहूंगा। अगर ऐसा न होता तो तुम्हारे जरा से कहने से उस दिन अपनी जान थोड़े दे देता। उस दिन तुम्हीं ने तो कहा था कि मुझसे सचमुच प्यार करते हो तो क्या मेरे लिये जान भी दे सकते हो? और मैने जान देकर दिखला दिया कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ। मगर क्या तुम जानती हो, उस दिन उस पहाड़ी से कूदने के बाद भी नीचे गिरने पर मेरी जान नहीं निकली थी। शायद तुम्हारी मुहब्बत का ही असर था मगर तुम मुझे नीचे गिरता हुआ देख वहाँ से भाग आय। इससे मेरे दिल को बड़ी तकलीफ हुई और फिर कब मेरी सांसे मेरे शरीर का साथ छोड़ गईं पता ही न चला। जब होश आया तो खुद को तुम्हारे सामने खड़ा पाया। मुझे लगा तुमने मेरी मुहब्बत स्वीकार कर ली है़ इसलिए तो मैं इस तरह तुम्हारे सामने खड़ा था। तबसे लेकर आजतक मैं तुम्हारे आस-पास ही रहता आया हूँ।
मैने हमारे बीच किसी तीसरे को कभी आने नहीं दिया और आगे भी कभी नहीं आने दूँगा।"
सीता सिर झुकाए चुपचाप गोविंद की बातें सुनती रही और उसकी आंखों से अश्कों का झरना बहता रहा। उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह नज़र उठाकर गोविंद की तरफ देख सके। इसके दो कारण थे। पहला वह गोविंद के लाख समझाने के बाद भी गोविंद से डर रही थी और दूसरा उस घटना के जिक्र के बाद दुःख और पछतावे के कारण। थोड़ी देर बाद जब गोविंद सारी कहानी कहने के बाद चुप हुआ तो सीता एक बारगी साहस कर उसकी तरफ नज़र घुमाई मगर अब वहाँ उसे कोई नज़र न आया। वह एकदम से चौंक पड़ी। थोड़ी देर बाद अचानक एक आवाज गूँजी। "सीता! तुम उस दिन मुझे अकेला क्यों छोड़कर चली जा रही थी?" यह सुनते ही सीता एकदम से चिँहुक उठी और एकदम से हड़बड़ा कर अपनी चादर फेंक कर उठ बैठी। सीता को अब अहसास हुआ कि वास्तव में वह अभी तक वह कोई सपना देख रही थी। मगर उस सपने में कही और सुनी हर बात बिल्कुल सत्य थी। और आखरी में वह सवाल कितना मर्मभेदी था,"सीता तुम मुझे छोड़कर क्यों चली आयी?"
सीता उसके बाद सो न सकी। नींद उसकी आंखों को छोड़कर मीलों दूर निकल गई थी। अब केवल वह करवटें बदलती रही। उसकी आंखों के सामने कुछ साले पहले घटी हुई घटना एकदम से सजीव हो उठी।