श्रवण ने घर आकर कुछ देर राहत की सांस ली, वह सोफे पर लेटे लेटे सोचता रहा कि उसकी जिंदगी तो जैसे एक दौड़ती हुई गाड़ी बन चुकी थी जब देखो नए नए प्रोजेक्ट्स पर काम करना, न खाने का टाइम न पीने का टाइम, यहां तक कि कुछ गिने-चुने दोस्तों से बात करने या मिलने तक का समय नहीं था उसके पास और उस पर से चैन की नींद सोए तो जैसे उसको बरसों हो गए थे, देर रात को घर आना और फिर न जाने क्या क्या” |
यही सब सोचते सोचते उसकी आंख लग गई और जब वह उठा तो रात हो चुकी थी | वह उठकर खाने के लिए कुछ बनाने लगा कि तभी उसके दरवाजे की घंटी बजी | उसने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक दस से बारह साल की बच्ची खड़ी थी, जिसने मुस्कुराते हुए कहा,
“ अंकल..... यह लीजिए केक.... आज मेरा बर्थडे है, मम्मी ने भेजा है” |
तभी पास वाले फ्लैट से बाहर उस बच्ची की मां निकली, उन्होंने हंसते हुए कहा,
“ अरे भैया... आज आपको आते हुये मैंने देखा था, मुझे लगा बेटी का बर्थडे है तो आपको पड़ोसी होने के नाते केक भिजवा दूं, बस हमने घर पर ही मना लिया, बाहर से ज्यादा किसी को बुलाया नही, वैसे तो पता नहीं कितने महीनों पहले मैंने आपको देखा था, आज आप इतनी जल्दी आ गए? तबीयत तो ठीक है ना आपकी”?
श्रवण ने कहा, “ जी हां... मेरी तबीयत ठीक है और केक के लिए धन्यवाद” |
उसने मुस्कुराते हुये बच्चीके हाथ से केक लेकर घर में रखी चॉकलेट उसे देते हुए कहा,
“ हैप्पी बर्थडे बेटा” |
बच्ची खुश होकर अपनी मां के साथ चली गई |
श्रवण ने केक खाया और फिर पुराने फिल्मी गाने लगा कर खाना बनाने लगा | कुछ देर बाद जब वह खाना खा कर लेटा कि तभी उसे उस कुरियर की याद आई | उसने झट से वह कुरियर उठाया और उसे खोलना चाहा लेकिन तभी उसे लगा कि नहीं नहीं यह ठीक नहीं होगा, यह सोचकर उसने उस कुरियर को रख दिया और सक्सेना जी को फोन किया लेकिन उनका फोन अभी भी स्विच ऑफ था |
श्रवण फिर लेटकर गाने सुनने लगा लेकिन उसके मन में उस कुरियर को खोलने की एक अजीब सी बेचैनी हो रही थी | उसके जहन में आया कि मिस्टर सक्सेना तो बहुत ही सुलझे स्वभाव के हैं, अगर वह होते यहां पर तो जरूर कहते कि इसे खोल लो, अरे मुझसे क्या शर्माना, यही सब बातें सोच कर उसने खुद से कहा, “ चलो यार खोल ही लेते हैं, वैसे भी सक्सेना जी मिलेंगे तो मैं उनको दे दूंगा, मैं कौन सा इसे इस्तेमाल करने जा रहा हूं, बस देख ही तो रहा हूं” |
यही सोचकर उसने वो कुरियर खोला लेकिन उसे खोलते ही उसकी सारी जिज्ञासा खत्म हो गई क्युंकि उसमें एक कहानी की किताब थी, जिसका नाम था “ समय – कहानी समय मे खोई कुछ जिंदगियों की” |
उसने मन ही मन कहा, “ क्या यार.... बेकार मे हीं खोल दिया इसे, मुझे तो लगा कोई इंटरेस्टिंग सी चीज होगी लेकिन मैं तो ये भूल ही गया था कि यह सक्सेना जी का कुरियर है, उन्हें वैसे भी पढ़ाई लिखाई का काफी शौक है” |
ये कहते हुए उसने किताब को पढ़ना चाहा लेकिन फिर उसने सोचा क्यों न कल सफर में मैं इसे पढ़ लूंगा क्योंकि वह कुछ दिनों के लिए अपने घर जा रहा था, बहुत सालों बाद चैन की जिंदगी गुजारने, शायद..... |
इसके बाद वह अपना एक बड़ा सा बैग निकाल कर अपने कपड़े रखने लगा, आखिरकार वह इतने सालों बाद अपने घर जा रहा था, वह खुश भी था कि अपनों से क्या नाराजगी, यही सब सोचते सोचते उसने अपनी पैकिंग की और सो गया |
अगले दिन शाम को उसने बैंगलोर जाने वाली ट्रेन पकड़ ली क्योंकि श्रवण का गांव बैंगलोर से बीस किलोमीटर दूर एक छोटे से कस्बे में था |
शाम हो चली थी, सर्दी का मौसम जोरों पर था, दिसम्बर जो था | वो ट्रेन में अपनी सीट पर बैठा खिड़की से बाहर देख रहा था, कोहरे की हल्की सी चादर छाने लगी थी, उसके अंदर आज एक अजीब सी शांति थी जो उसे एक अलग ही सुकून दे रही थी | उसने अपना सामान अपनी सीट के नीचे रखा और ट्रेन के दरवाजे के पास खड़ा राहगीरों को देखने लगा कि तभी एक बच्चे ने उससे आकर कहा,
“ भैया.... भैया.... एक अखबार ले लो ना प्लीज” |
श्रवण ने कहा, “ नहीं बेटा.... मुझे अखबार की जरूरत नहीं, और वैसे भी अभी रात में मैं सो जाऊंगा और कल नया अखबार पढ़ लूंगा, शाम को अखबार कौन बेचता है यार” |
उस लड़के ने काफी उदास मन से कहा,
“ भैया ले लो ना प्लीज... आज बहुत कम बिके हैं, ले लो भगवान तुम्हारा भी भला करेगा, अभी जाके सब्जी भी लेनी है” |
श्रवण को उस लड़के पर दया आ गई और उसने एक की बजाय दो न्यूज़पेपर खरीद लिये, लड़का खुशी से उसकी ओर देखता चला गया कि तभी ट्रेन की सीटी बजी और ट्रेन चल दी, बाहर की भीड अब जल्दी जल्दी ट्रेन मे अन्दर आने लगी और लोग अपनी अपनी सीट ढूंढने लगे |
वैसे तो श्रवण के पास पैसों की कमी नहीं थी लेकिन फिर भी उसने एसी कंपार्टमेंट की जगह स्लीपर कंपार्टमेंट में अपनी टिकट बुक कराई थी क्युंकि उसे अच्छा लगता था लोगों को आता जाता देखते हुए, इस तरह उसका समय बहुत आसानी से गुजर जाता था इसलिए जब भी वह कभी अकेला सफर करता था तो स्लीपर कंपार्टमेंट में ही अपना टिकट बुक करा था |
श्रवण का कंपार्टमेंट बिल्कुल शांत था, कुछ सीट खाली थी और कुछ भरी, उसने वह दोनों पेपर सीट के पास लगी जाली में रख दिये और अपनी सीट पर लेट गया | ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी और कुछ ही देर में वह हवाओं को चीरती हुई अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ने लगी तभी उसे उस कहानी की किताब की याद आई और उसने झट से बैग खोलकर किताब निकाल ली |