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भाग - 4

9 जून 2022

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प्यारे ही से बन सकते हैं।

पराये भी अपने प्यारे।

बचाना है अपने को तो।

और को पत्थर क्यों मा॥4॥


सँभाले, मुँह, करते रहकर।

जीभ की पूरी रखवाली।

जब बुरी गाली लगती है।

तब न दें औरों को गाली॥5॥


जगत में कौन पराया है।

कौन याँ नहीं हमारा है।

मान तो हम सबको देवें।

मान जो हमको प्यारा है॥6॥


क्यों किसी को कोई दुख दे।

क्यों किसी को कोई ताने।

क्यों न अपने जी जैसा ही।

दूसरों के जी को जाने॥7॥


कौन किसको सुख देता है।

किसी को कौन सताता है।

किये का ही फल मिलता है।

कर्म ही सुख-दुख-दाता है॥8॥


(4)


प्रति दिवस उदयाचल पर आ।

भव-दृगों से हो अवलोकित।

कीत्तिक दिनमणि-कर पाता है।

लोक को करके आलोकित॥1॥


सुधा को लिये सिंधु को मथ।

सुधाकर नभ पर आता है।

रात-भर बिहँस-बिहँस उसको।

धारातल पर बरसाता है॥2॥


तारकावलि तैयारी कर।

तिमिर से भिड़ती रहती है।

ज्योति देकर जगतीतल को।

प्रगति-धारा में बहती है॥3॥


वात है मंद-मंद चलता।

महँक से भरता रहता है।

पास आ कलिका कानों में।

विकचता बातें कहता है॥4॥


वारि से भर-भरकर वारिद।

सरस हो-हो रस देता है।

मुग्धता दिखा दिग्वधू की।

बलाएँ बहुधा लेता है॥5॥


व्योमतल में नभ-यान विहर।

विविध कौतुक दिखलाते हैं।

कीत्तिक विज्ञान-विधानों की।

विपुल कंठों से गाते हैं॥6॥


हिमाचल अचल कहाकर भी।

द्रवित हो रचता सोता है।

निर्झरों से झंकृत रहकर।

ध्वनित सरिध्वनि से होता है॥7॥


गगनचुम्बी मंदिर के कलश।

उच्च प्रासाद-पताकाएँ।

प्रचारित करती रहती हैं।

कला-कौशल गुण-गरिमाएँ॥8॥


महँकते हैं रस देते हैं।

हँस लुभाते ही रहते हैं।

फूल सब अपना मुँह खोले।

कौन-सी बातें कहते हैं॥9॥


काम में रत रह गाने गा।

खोजते फिरते हैं चारा।

कौन-सा भेद बताते हैं।

विहग-कुल निज कलरव द्वारा॥10॥


भ्रमर-गुंजन तितली-नर्त्तन।

हो रहा है किस तंत्री पर।

मत्त होती है मधुमक्खी।

कौन-सा मधुप्याला पीकर॥11॥


विपुल वन-उपवन के पादप।

ह परिधानों को पहने।

सजाये किसके सजते हैं।

फूल-फल के पाकर गहने॥12॥


महा उत्ताकल तरंगों पर।

विजय पोतों से पाता है।

मिल गये किसका बल गोपद।

सिंधु को मनुज बनाता है॥13॥


सत्यता से सब दिन किसकी।

सिध्दि के साथ निबहती है।

सफलता-ताला की कुद्बजी

हाथ में किसके रहती है॥14॥


सुशोभित है दिव की दिवता।

दिव्यतम उसकी सत्ता से।

विलसता है वसुंधरातल।

कर्म की कान्त महत्ता से॥15॥

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रचनाएँ
पारिजात
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हरिऔध जी पहले ब्रज भाषा में कविता किया करते थे | किंतु द्विवेदी जी के प्रभाव से खड़ी बोली के क्षेत्र में आए और खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रयुक्त किया | यह भारतेंदु के बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि थे | जो नए विषयों की काव्य जगत में स्थापना की उनके साहित्य पर भारतेंदु युग की प्रवृत्तियों की छाप स्पष्ट है | इनके काव्य में जहां एक ओर भावुकता है वहीं दूसरी ओर बौद्धिकता का समावेश भी है | हरिऔध जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार है | इनमें सरल से सरल भाषा तथा कठिन भाषा लिखने की क्षमता थी, खड़ी बोली एवं ब्रजभाषा दोनों पर इनका समान अधिकार था | हिंदी की खड़ी बोली के सार्थक एवं समर्थक प्रयोग पर जितना इनका अधिकार रहा उतना इन के युग में शायद किसी कोई और कवि का रहा हो | इनकी भाषा प्रमुख रूप से संस्कृत गर्वित और उर्दू फारसी मिश्रित हिंदुस्तानी थी
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पारिजात / प्रथम सर्ग / भाग -1

9 जून 2022
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(1) गेय गान शार्दूल-विक्रीडित आराधे भव-साधना सरल हो साधें सुधासिक्त हों। सारी भाव-विभूति भूतपति की हो सिध्दियों से भरी। पाता की अनुकूलता कलित हो धाता विधाता बने। पाके मादकता-विहीन मधुता हो म

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भाग -2

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दिव्य दशमूर्ति गीत जय-जय जयति लोक-ललाम, सकल मंगल-धाम।         भरत भू को देख अभिनव भाव से अभिभूत।         राममोहन रूप धर भ्रम-निधन-रत अविराम॥1॥         विविध नवल विचार-विचलित युवक-दल अवलोक।

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भाग -3

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कामना गीत विधि-विधन हो मधुमय मृदुल मनोहर। आलोकित हो लोक अधिकतर हो काल विपुल अनुकूल सकल कलि-मल टले॥1॥         विमल विचार-विवेक-वलित हो मानस।         पाये तेज दलित हो तामस।         मंजुल-तम

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भाग -4

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कामना गीत विधि-विधन हो मधुमय मृदुल मनोहर। आलोकित हो लोक अधिकतर हो काल विपुल अनुकूल सकल कलि-मल टले॥1॥         विमल विचार-विवेक-वलित हो मानस।         पाये तेज दलित हो तामस।         मंजुल-तम

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भाग - 5

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भारत-भूतल शिखरिणी             सिता-सी साधें हो सुकथन सुधा से मधुर हो।             अछूते भावों से भर-भर बने भव्य प्रतिभा।             रसों से सिक्ता हो पुलकित क सूक्ति सबको।             विचारो

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पारिजात / द्वितीय सर्ग / भाग - 1

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(1) अकल्पनीय की कल्पना शार्दूल-विक्रीडित सोचे व्यापकता-विभूति प्रतिभा है पार पाती नहीं। होती है चकिता विलोक विभुता विज्ञान की विज्ञता। लोकातीत अचिन्तनीय पथ में है चूकती चेतना। कोई व्यक्ति अक

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भाग -2

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विभु-विभुता शार्दूल-विक्रीडित चाहे हों फल, फूल, मूल, दल या छोटी-बड़ी डालियाँ। चाहे हो उसकी सुचारु रचना या मुग्धकारी छटा। जैसे हैं परिणाम अंग-तरु के सर्वांश में बीज के। वैसे ही उस मूलभूत विभु

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भाग -3

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शार्दूल-विक्रीडित         आती तो न सजीवता अवनि में जो वायु होती नहीं।         कैसे तो मिलती उसे सरसता जो वारि देता नहीं।         तो मीठे स्वर का अभाव खलता जो व्योम होता नहीं।         कैसे लोक वि

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भाग - 4

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जब ज्ञान-नयन को खोला। अगणित ब्रह्मांड दिखाये। प्रति ब्रह्म-अण्ड में हमने। बहु विलसित ता पाये॥1॥         ये अखिल अंड विभुवर के।         तन-तरु के कतिपय दल हैं।         उस वारिद-से वपुधर के।   

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भाग - 5

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सब विबुध अबुध हो बैठे। बन विवश बुध्दि है हारी। हैं अविदित अगम अगोचर। विभु की विभूतियाँ सारी॥1॥     क्या नहीं ज्ञान है विभु का?     यह ज्ञान किन्तु है कितना।     उतना ही हो बूँदों को     वारिध

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पारिजात / तृतीय सर्ग / भाग -1

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आकाश (1) शार्दूल-विक्रीडित सातों ऊपर के बड़े भुवन हों या सप्त पाताल हों। चाहे नीलम-से मनोज्ञ नभ के ता महामंजु हों। हो बैकुंठ अकुंठ ओक अथवा सर्वोच्च कैलास हो। हैं लीलामय के ललाम तन से लीला-भ लो

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भाग -2

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कोई है कहता, अनन्त नभ में ये दिव्य ता नहीं। नाना हस्त-पद-प्रदीप्त नख हैं व्यापी विराटांग के। कोई लोचन वन्दनीय विभु का है तीन को मानता। राका-नायक को, दिवाधिकपति को, विभ्रद्विभावद्रि को॥1॥ वंशस्थ

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भाग -3

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शार्दूल-विक्रीडित लेके मंजुल अंक में प्रथम दो धारें सदाभामयी। पा के नूतन लालिमा फिर मिले प्यारी प्रभा भानु की। ऐसा है वह कौन लोक जिसको है मोह लेती नहीं। लीलाएँ कर मन्द-मन्द हँस के प्राची दिशा सुन्

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भाग -4

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शार्दूल-विक्रीडित है राकापति, मंजुता-सदन है, माधुर्य-अंभोधि है। है लावण्य-सुमेरु-शृंग, जिसको आलोक-माला मिली। पाती हैं उपमा सदैव जिसकी सत्कान्ति की कीत्तियाँ। जो है शंकर-भाल-अंक उसको कैसे कलंकी कहे

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भाग - 5

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वंशस्थ अनन्त में भूतल में दिगन्त में। नितान्त थी कान्त वनान्त भाग में। प्रभाकराभा-गरिमा-प्रभाव से। प्रभावित दिव्य प्रभा प्रभात की। शार्दूल-विक्रीडित हैं मुक्तामय-कारिणी अवनि की, हैं स्वर्ण-आभा

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भाग -6

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सरस समीर ( 1) विकसित करता अरविन्द-वृन्द। बहता है ले मंजुल मरन्द। मानस को करता मोद-धाम। आता समीर है मन्द-मन्द॥1॥ है कभी बजाता मंजु वेणु। कीचक-छिद्रों में कर प्रवेश। है कभी सुनाता सरस गान। दे

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पारिजात / चतुर्थ सर्ग / भाग -1

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हिमाचल (1) गीत                 अवलोकनीय अनुपम।                 कमनीयता- निकेतन।                 है भूमि में हिमाचल।                 विभु-कीत्तिक कान्त केतन॥1॥                 है हिम-समूह-मंडि

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भाग - 2

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(2) शार्दूल-विक्रीडित चोटी है लसती मिले कलस-सी ज्योतिर्मयी मंजुता। होती है उसमें कला-प्रचुरता स्वाभाविकी स्वच्छता। नाना साधन, हेतु-भूत बन के हैं सिध्दि देते उसे। है देवालय के समान गिरि के सर्वा

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भाग -3

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विपिन (1) शार्दूल-विक्रीडित शोभाधाम ललाम मंजुरुत की नाना विहंगावली। लीला-लोल लता-समूह बहुश: सत्पुष्प सुश्री बड़े। पाये हैं किसने असंख्य विटपी स्वर्लोक-संभूत-से। रम्योपान्त नितान्त कान्त महि में

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भाग -4

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गीत (3) कहाँ हरित पट प्रकृति-गात का है बहु कान्त दिखाता। कहाँ थिरकती हरियाली का घूँघट है खुल पाता। कहाँ उठा शिर विटपावलि हैं नभ से बातें करती। कहाँ माँग अपनी लतिकाएँ मोती से हैं भरती॥1॥ कोटि-क

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भाग -5

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(2) शार्दूल-विक्रीडित माली के उर की अपार ममता उन्मत्ताता भृंग की। पेड़ों की छवि-पुंजता रुचिरता छायामयी कुंज की। पुष्पों की कमनीयता विकचता उत्फुल्लता बेलि की। देती है खग-वृन्द की मुखरता उद्यान को

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भाग - 6

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(2) पाकर किस प्रिय तनया को। गिरिवर गौरवित कहाया। किसने पवि-गठित हृदय में। रस अनुपम स्रोत बहाया॥1॥ हर अकलित सब करतूतें। कर दूर अपर अपभय को। बन सकी कौन रस-धारा। कर द्रवीभूत हिम-चय को॥2॥ प्र

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भाग -7

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(4) शार्दूल-विक्रीडित पाता है रस जीव-मात्रा किससे सर्वत्र सद्भाव से। धारा है रस की अबाधा किसके सर्वांग में व्यापिता। हो-हो के सब काल सिक्त किससे होती रसा है रसा। पृथ्वी में सरि-सी रसाल-हृदया है क

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भाग - 8

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(7) वंशस्थ न चित्त होगा सुप्रफुल्ल कौन-सा। न प्राप्त होगी किसको मिलिन्दता। वसुंधरा के सरसी-समूह में। विलोक शोभा अरविन्द-वृन्द की॥1॥ लगे हुए दर्पण हैं जहाँ-तहाँ। विलोकने को दिव-लोक-दिव्यता। ज

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भाग -9

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(2) किस वियोगिनी के ऑंसू हो। किस दुखिया के हो दृग-जल। किस वेदनामयी बाला की। मर्म-वेदना के हो फल॥1॥ निकले हो किस व्यथित हृदय से। हो किस द्रव मानस के रस। क्या वियोग की घटा गयी है। आकुलतामय वार

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पारिजात / पंचम सर्ग / भाग - 1

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समुद्र रोला (1) वर विभूतिमय बनी विलसते विभव दिखाये। रसा नाम पा सकी रसा किसका रस पाये। अंगारक-सा तप्तभूत शीतल कहलाया। किसके बल से सकल धारातल बहु सरसाया॥1॥ शस्यश्यामला बनी हरितवसना दिखलाई। ललि

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भाग - 2

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रत्नाकर की रत्नाकरता (3) वह कमल कहाँ पर मिलता। जो धाता का है धाता। पाता वह वास कहाँ पर। जो सब जग का है पाता॥1॥ भव-विजयी रव-परिपूरित। प्रिय कंबु कहाँ पा जाते। रमणी रमणीय रमापति। कौस्तुभ-मणि

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भाग - 3

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सागर की सागरता (5) फूल पत्तो जिससे पाये। मिली जिससे मंजुल छाया। मधुरता से विमुग्ध हो-हो। मधुरतम फल जिसका खाया॥1॥ जो सहज अनुरंजनता से। नयन-रंजन करता आया। काट उस ह-भ तरु को। जन-दृगों में कब ज

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भाग -4

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है उत्ताकल तरंग में विलसती उद्दीप्त शृंगावली। किंवा हैं जल-केलि-लग्न जल में ज्योतिष्क आकाश के। किंवा हीरक-मालिका उदधिक में हैं अर्बुदों शोभिता। किंवा हैं हिम के समूह बहुश: पाथोधिक में तैरते॥6॥ ज

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पारिजात / षष्ठ सर्ग / भाग -1

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वसुन्धारा (1) प्रकृति-बधूटी केलि-निरत थी काल अंक था कलित हुआ। तिमिर कलेवर बदल रहा था, लोकालय था ललित हुआ। ज्योतिर्मण्डित पिंड अनेकों नभ-मंडल में फिरते थे। सृजन वारिनिधिक-मध्य बुद्बुदों के समूह-से

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भाग -2

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मानव ने ऐसे महान अद्भुत मन्दिर हैं रच डाले। ऐसे कार्य किये हैं जो हैं परम चकित करनेवाले। ऐसे-ऐसे दिव्य बीज वह विज्ञानों के बोता है। देख सहस्र दृगों से जिनको सुरपति विस्मित होता है॥21॥ आज बहु विम

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भाग -3

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किसके बहु श्यामायमान वन बन-ठन छटा दिखाते हैं। नन्दन-वन-समान सब उपवन किसकी बात बनाते हैं। किसके ह-भ ऊँचे तरु नभ से बातें करते हैं। कलित किसलयों से लसते हैं, भूरि फलों से भरते है॥6॥ किसकी कलित-भूत

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भाग -4

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विकंपित वसुंधरा (5) वसुंधरा ! यह बतला दो तुम, क्यों तन कम्पित होता है। क्यों अनर्थ का बीज लोक में कोप तुम्हारा बोता है। माता कहलाती हो तो किसलिए विमाता बनती हो। पूत पूत है, सब पूतों को तुम्हीं क्

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भाग -5

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विविध भाँति की बहु विद्याएँ श्रम-संकलित कलाएँ कुल। हैं उसको गौरवित बनाते कौशल-वलित अनेकों पुल। सुर-समूह को कीत्तिक-कथाएँ उड़ नभ-यान सुनाते हैं। विहर-विहर जलयान जलधिक में गौरव-गाथा गाते हैं॥11॥ अ

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भाग -6

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आरक्ता कलिकाल-मूर्ति कुटिला काली करालानना। भूखी मानव-मांस की भय-भरी आतंक-आपूरिता। उन्मत्ताक करुणा-दया-विरहिता अत्यन्त उत्तोजिता। लोहू से रह लाल है लपकती भू-लाभ की लालसा॥4॥ देशों की, पुर-ग्राम की

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भाग -7

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लाखों भूप हुए महा प्रबल हो डूबे अहंभाव में। भू के इन्द्र बने, तपे तपन-से, डंका बजा विश्व में। तो भी छूट सके न काल-कर से, काया मिली धूल में। हो पाई किसकी विभूति यह भू? भू है भयों से भरी॥24॥ ऑंखें

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पारिजात / सप्तम सर्ग / भाग -1

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मन (1) मंजुल मलयानिल-समान है किसका मोहक झोंका। विकसे कमलों के जैसा है विकसित किसे विलोका। है नवनीत मृदुलतम किसलय कोमल है कहलाता। कौन मुलायम ऊन के सदृश ऋजुतम माना जाता॥1॥ मंद-मंद हँसनेवाला छवि-

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भाग -2

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कौन-कौन व्यंजन कैसा है, तुरत यह समझ जाता है। मधुर फलों की मधुमयता का भी अनुभव कर पाता है। जो जैसा है भला-बुरा उसको वैसा कह देता है। रसनाहीन कौन बहु रसनाओं से सब रस लेता है॥4॥ मधुर लयों से बड़े म

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भाग -3

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चाह पीसने लग जाती है, आह बहुत तड़पाती है। कभी टपकते हैं तो टपक फफोलों की बढ़ जाती है। पागल बने नहीं मन कैसे जब कि हैं पहेली ऑंखें। सिर पर उसके जब सवार हैं दो-दो अलबेली ऑंखें॥8॥ शार्दूल-विक्रीडित

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भाग -4

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दो क्या विंशति बाँह का वधा हुआ है स्वर्णलंका कहाँ। हो गर्वान्धा सहस्रबाहु बिलटा उत्पीड़नों में पड़ा। दंभी तू मन हो न भूलकर भी है दंभ तो दंभ ही। होगा गर्व अवश्य खर्व, न रहा कंदर्प का दर्प भी॥20॥

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पारिजात / अष्टम सर्ग / भाग -1

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अन्तर्जगत् हृदय (1) मुग्धकर सुन्दर भावों का। विधाता है उसमें बसता। देखकर जिसकी लीलाएँ। जगत है मंद-मंद हँसता॥1॥ रमा मन है उसमें रमता। वह बहुत मुग्ध दिखाती है। कलाएँ करके कलित ललित। वह विलसत

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भाग -2

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(2) भी वह छिलता रहता है। कभी बेतरह मसलता है। कभी उसको खिलता पाया। कभी बल्लियों उछलता है॥1॥ खीजता है इतना, जितना। खीज भी कभी न खीजेगी। कभी इतना पसीजता है। ओस जितना न पसीजेगी॥2॥ कभी इतना घब

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भाग -3

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टूट पड़ना है बिजली का। हाथ जीने से है धाोना। किसी पत्थर से टकराकर। कलेजे के टुकड़े होना॥5॥ जायँ पड़ काँटे सीने में। लहू का घूँट पड़े पीना। नहीं जुड़ पाता है टूटे। कलेजा है वह आईना॥6॥ भूल ह

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भाग - 4

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सुरा का सर में सौदा भर। पी उसे बनकर मतवाला। किसलिये ढलका दे कोई। सुधा से भरा हुआ प्यारेला॥5॥ बड़े सुन्दर कमलों के ही। क्यों नहीं बनते अलिमाला। क्यों बना वे बुलबुल हमको। रंगतें दिखा गुलेलाला॥6

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भाग -5

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थीं कान्त क्यारियाँ फैली। थे उनमें सुमन विलसते। पहने परिधन मनोहर। वे मंद-मंद थे हँसते। था उनका रंग निराला॥3॥ उनके समीप जा-जाकर। थी कभी मुग्ध हो जाती। अवलोक कभी मुसकाना। थी फूली नहीं समाती।

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भाग -6

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है शरद-व्योम-सा सुन्दर। गुणगण तारकचय-मंडित। कल कीत्तिक-कौमुदी-विलसित। राकापति-कान्ति-अलंकृत॥9॥ उसके समान ही निर्मल। अनुरंजनता से रंजित। उसके समान ही उज्ज्वल। नाना भावों से व्यंजित॥10॥ है प

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भाग - 7

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जब मेरा हृदय पसीजे। ऑंखों में ऑंसू आता। तब कौन पिपासित जन की। मुझको है याद दिलाता॥3॥ जब मे अन्तस्तल में। बहती है हित की धारा। तब कौन बना देता है। मुझको वसुधा का प्यारा॥4॥ पर-दुख-कातरता मेर

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भाग - 8

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.पतिपरायणा (15)  प्यारे मैं बहुत दुखी हूँ। ऑंखें हैं आकुल रहती। कैसे कह दूँ चिन्ताएँ। कितनी ऑंचें हैं सहती॥1॥ मन बहलाने को प्राय:। विधु को हूँ देखा करती। पररूप-पिपासा मेरी। है उसकी कान्ति न

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भाग -9

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गुण है गौरव गरिमा-रत। हित-निरत नीति का नागर। मानवता उर अभिनन्दन। सुख-निलय सुधा का सागर॥12॥ वह है भव-भाल कलाधर। जो है कल कान्ति विधाता। यह है शिव-शिर-सरि का जल। जो है जग-जीवन-दाता॥13॥ पुलकि

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भाग -10

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मर्मवेधा (19)  त्याग कैसे उससे होगा। न जिसने रुचि-रस्सी तोड़ी। खोजकर जोड़ी मनमानी। गाँठ सुख से जिसने जोड़ी॥1॥ एकता-मंदिर में वह क्यों। जलायेगी दीपक घी का। कलंकित हुआ भाल जिसका। लगा करके कलं

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भाग -11

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कौन (22) चाल चलते रहते हैं लोग। चाह मैली धुलती ही नहीं। खुटाई रग-रग में है भरी। गाँठ दिल की खुलती ही नहीं॥1॥ न जाने क्या इसको हो गया। फूल-जैसा खिलता ही नहीं। खटकता रहता है दिन-रात। दिल किसी

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भाग -12

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मन-नन्दन-वन अहह अब कहाँ वह प्रसून है पाता। जिसका सौरभ सुरतरु सुमनों-सा था मुग्ध बनाता। उदधिक-तरंगों-जैसी अब तो उठतीं नहीं तरंगें। वैसी ही उल्लासमयी अब बनतीं नहीं उमंगें॥3॥ हो पुरहूत-चाप आरंजित ज

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भाग 13

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जिसमें पड़ता रहता था। सब स्वर्ग-सुखों का डेरा। कैसे है उजड़ा जाता। अब वन नन्दन-वन मेरा॥8॥ किसलिए धारा सुध-बुध खो। है रत्न हाथ के खोती। क्यों नहीं समुद्र-तरंगें। अब हैं बिखेरती मोती॥9॥ क्या

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भाग -14

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बातें क्यों करते कदापि मुँह भी तो खोल पाते नहीं। कोई काम करें, परन्तु उनको है काम से काम क्या। खायेंगे भर-पेट नींद-भर तो सोते रहेंगे न क्यों। लेते हैं ऍंगड़ाइयाँ सुख मिले वे खाट हैं तोड़ते॥16॥ त

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भाग -15

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होता जो चित में न चोर, रहती तो ऑंख नीची नहीं। होता जो मन में न मैल, दृग क्यों होते नहीं सामने। जो टेढ़ापन चित्त में न बसता, सीधो न क्यों देखते। जो आ के पति बीच में न पड़ती, ऑंसू न पीते कभी॥36॥ द

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पारिजात / नवम सर्ग / भाग -1

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सांसारिकता (1) स्वभाव गोद में ले रखता है प्यारे। सरस बन रहता है अनुकूल। मुदित हो करती है मधुदान। भ्रमर से क्या पाता है फूल॥1॥ धारा कर प्रबल पवन का संग। भरा करती है नभ में धूल। गगन बरसाता है

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भाग -2

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भंग करके सद्भाव समेत। मनुजता का अनुपम-तम अंग। नर-रुधिकर से रहता है सिक्त। सुरंजित राजतिलक का रंग॥5॥ बना बहु प्रान्तों को मरुभूमि। विविध सुख-सदनों का बन काल। जनपदों का करता है धवंस। राजभय प्रब

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भाग -3

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आग-बगूले बने, कब नहीं। किसके दिल में पड़े फफोले। खिचें खिंच गयी हैं तलवारें। बमके, चलते हैं बमगोले॥3॥ चिढ़े, सताता है वह इतना। जिसे देखकर कौन न दहला। ऐंठे, किससे लिया न लोहा। दिया लहू से किसे

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भाग - 4

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(14) अनर्थ-मूल स्वार्थ  स्वार्थ ही है अनर्थ का मूल। औरों का सर्वस्व-हरण कर कब उसको होती है शूल। तबतक सुत सुत है वनिता वनिता है उनसे है बहु प्यारे। स्वार्थदेव का उनके द्वारा जबतक होता है सत्कार।

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भाग -5

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(20) शार्दूल-विक्रीडित व्याली-सी विष से भरी विषमता आपूरिता क्रोधाना। अन्धाकधुन्धा-परायणा कुटिलता की मूर्ति व्याघ्रानना। है अत्यन्त कठोर उग्र अधामा, है लोक-संहारिणी। है दुर्दान्त नितान्त वज्र-हृदय

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भाग -6

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ऑंखें हैं छवि-कांक्षिणी, श्रवण है लोभी सदालाप का। जिह्ना है रस-लोलुपा, सुरभि की है कामुका नासिका। सारी प्रेय विभूति को विषय को हैं इन्द्रियाँ चाहती। जाता है बन योग रोग, किसको है भोग भाता नहीं॥21॥

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पारिजात / दशम सर्ग / भाग - 1

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स्वर्ग सुरपुर (1) स्वर्ग है उर-अंभोज-दिनेश। भाव-सिंहासन का अवनीप। सदाशा-रजनी मंजु मयंक। निराशा-निशा प्रदीप्त प्रदीप॥1॥ यदि मरण है तम-तोम समान। स्वर्ग तो है अनुपम आलोक। प्रकाशित उससे हुआ सदै

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भाग - 2

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कहाँ बजाकर वीणा तुम्बुरु सुधा प्रवाहित करता है। कहाँ गान कर हाहा हूहू ध्वनि में गौरव भरता है। उनके तालों स्वरों लयों से जो विमुग्धता होती है। परमानन्द-बीज वह अभिरुचि शुचि अवनी में बोती है॥3॥ जिस

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भाग -3

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अमरावती (5) मणि-जटित स्वर्ण के मंदिर। विधिक को मोहे लेते हैं। विधु को हैं कान्त बनाते। दिव को आभा देते हैं॥1॥ हैं कनकाचल-से उन्नत। परमोज्ज्वल त्रिकभुवन-सुन्दर। हैं विविध विभूति-विभूषित। दिव

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भाग -4

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अप्रतिहत - गति - अधिकारी। निज वेग-वारि-निधिक-मज्जित। नभ-जल-थल-यान अनेकों। अति आरंजित बहु सज्जित॥21॥ जब उड़ते तिरते चलते। किसको न चकित थे करते। श्रुतिमधुर मनोहर मंजुल। रव थे दिगंत में भरते॥22॥

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भाग -5

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ए हैं वे प्रसून जो खिलकर म्लान नहीं होते हैं। सौरभ-बीज जगत में जो सुरभित हो-हो बोते हैं। आदर पाकर जो हैं सुरपति-शीश-मुकुट पर चढ़ते। जो खिल-खिलकर भव-प्रमोद का पाठ सदा हैं पढ़ते॥11॥ देवपुरी उनके व

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भाग-6

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जिसके तरल हृदय की महिमा जलधिक-तरंगें गाती हैं। कल-कल रव करके सरिताएँ जिसकी कीत्तिक सुनाती हैं। सकल जलाशय जिसके करुणामय आशय के आलय हैं। पा जिसका संकेत पयोधार सदा बरस पाते पय हैं॥11॥ करके जीवन-दान

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भाग -7

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स्वर्ग की कल्पना (8) अच्छा होता, दुख न कभी होता, सुख होता। सब होते उत्फुल्ल, न मिलता कोई रोता। उठती रहतीं सदा हृदय में सरस तरंगें। कुचली जातीं नहीं किसी की कभी उमंगें॥1॥ बजते होते घर-घर में आन

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भाग -8

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क्या इनमें से कोई भी सर्वोत्ताम तारा। स्वर्ग नाम से जा सकता है नहीं पुकारा। हैं तारक के सिवा सौर-मंडल कितने ही। क्या हैं बहु विख्यात अलौकिक स्वर्ग न वे ही॥6॥ क्या न सौर-मंडल हमलोगों का है अनुपम।

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पारिजात / एकादश सर्ग / भाग -1

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कर्म-विपाक (1) कर्म-अकर्म अवसर पर ऑंखें बदले। बनता है सगा पराया। काँटा छिंट गया वहाँ पर। था फूल जहाँ बिछ पाया॥1॥ जो रहा प्यारे का पुतला। वह है ऑंखों में गड़ता। अपने पोसे-पाले को। है कभी पी

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भाग -2

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पच्ची होता रहता है। जिसके निमित्त जग माथा। अविदित रहस्य-परिपूरित। वह है वह अद्भुत गाथा॥3॥ खोले जिसका अवगुंठन। खुलता न कभी दिखलाया। वह है वह प्रकृति-वधूटी। जिसकी है मोहक माया॥4॥ जैसी कि लोक

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भाग -3

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(5) कर्म का मर्म (1) फूल काँटों को करता है। संग को मोम बनाता है। बालुकामयी मरुधारा में। सुरसरी-सलिल बहाता है॥1॥ जहाँ पड़ जाता है सूखा। वहाँ पानी बरसाता है। धूल-मिट्टी में कितने ही। अनूठे फ

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भाग - 4

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प्यारे ही से बन सकते हैं। पराये भी अपने प्यारे। बचाना है अपने को तो। और को पत्थर क्यों मा॥4॥ सँभाले, मुँह, करते रहकर। जीभ की पूरी रखवाली। जब बुरी गाली लगती है। तब न दें औरों को गाली॥5॥ जगत

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भाग -5

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(6) कर्म का त्याग (1) यह सुखद पावन भूति-निकेत। सुरसरी का है सरस प्रवाह। वह मलिन रोग-भरित अपुनीत। कर्मनाशा का है अवगाह॥1॥ यह हिमाचल का है वह अंक। विबुध करते हैं जहाँ विहार। जहाँ पर प्रकृति-व

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भाग -6

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चित्त इतना हो जाय दयार्द्र। दु:ख औरों का देख सके न। अगम भवहित का पंथ विलोक। पाँव पौरुष का कभी थके न॥5॥ न ममता छले न मोहे मोह। असंयम सके हृदय को छू न। मिले परमार्थ-शंभु का शीश। स्वार्थ बन जाय

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भाग -7

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(2) भाग्य-लिपि मानना बड़ी है भ्रान्ति। वह पतन गूढ़ गत्ता की है राह। वह नदी है भयंकरी दुर्लङ्घ्य। आज तक मिल सकी न जिसकी थाह॥1॥ क्यों न उसको मरीचिका लें मान। है दिखाती सरस सलिल-आवास। पर सकी मिल

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भाग -8

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चलें सारी चालें उलटी। भली बातों से मुँह मोड़े। किसलिए माथा तो ठनके। किसलिए तो सिर को तोड़े॥5॥ काम के काम न कर पायें। न तो हित की बातें सोचें। क्यों न तो ठोकर खायेंगे। चौंककर सिर को क्यों नोचे

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भाग -9

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(2) देख उत्ताकल तरंगों को। कार्यरत कब घबराता है। शक्ति कुंभज-सी धारण कर। पयोनिधिक को पी जाता है॥1॥ कार्य-पथ का बाधक देखे। वीर पौरुष से भरता है। पर्वतों को पवि बन-बनकर। धूल में परिणत करता है॥

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भाग -10

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नाम हैं कर्म-भोग का लेते। पर बने हैं बहुत बड़े भोगी। भाग्य की भूल में पड़े हैं जब। तब भलाई न दैव से होगी॥5॥ चौंक भूले हुए हरिण की-सी। किसलिए नर छलाँग भरता है। कर रहा है सदैव मनमानी। तो वृथा द

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भाग -11

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हो सावेश नहीं मनुष्य करता है कौन-सी क्रूरता। हो क्रोधान्धा महा अनर्थ करते होता नहीं त्रास्त है। क्या है बर्बरता महा अधामता क्या दानवी कृत्य है। प्राणी है यह सोच ही न सकता विक्षिप्त हो वैर से॥4॥

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पारिजात / द्वादश सर्ग / भाग -1

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प्रलय-प्रपंच परिवर्तन (1) जल को थल होते देखा। थल है जलमय हो जाता। है गत्ता जहाँ पर गहरा। था गिरिवर वहाँ दिखाता॥1॥ वे द्वीप जहाँ सुरपुर-से। बहु सुन्दर नगर दिखाते। हैं उदधिक-गर्भगत अधुना। है

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भाग -2

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अवसर पर वसन बदलता। जैसे जन है दिखलाता। वैसे ही जीव पुरातन। तन तज, नव तन है पाता॥5॥ जैसे मिट्टी में मिल तन। है विविध रूप धार पाता। तृण-लता गुल्म पादप हो। बनता है बहु-फल-दाता॥6॥ वैसे ही निज

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भाग -3

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व्यक्ति में रहता है व्यक्तित्व। उसी से है उसका संबंधा। पर मिला एक बार वह कभी। नियति का है यह गूढ़ प्रबन्धा॥17॥ पंचतन्मात्राकओं का मिलन। लाभ कर आत्मा का संसर्ग। प्राणियों का करता है सृजन। पृथक

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भाग - 4

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संकटों के संहारनिमित्त। किए जाते हैं जितने कर्म। पुण्य के उपकारक उपकरण। जिन्हें माना जाता है धर्म॥7॥ भाव वे जो होते हैं सुखित। दीन-दुखियों को दान दिला। सबों में अवलोके दृग खोल। मृत्यु का भय प

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भाग -5

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(8) प्रलय-प्रसंग खुले, रजनी में निद्रा-गोद। जब शयन करता है मनुजात। अंक में उसके रखकर शीश। भूलकर भव की सारी बात॥1॥ सुषुप्तावस्था का यह काल। कहा जाता है नित्य प्रलय। क्योंकि हो जाता है उस समय।

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भाग -6

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करेंगे कलिका का न विकास। परसकर उसका मृदुल शरीर। करेंगे सुमन को न उत्फुल्ल। डुलाकर मंजुल व्यजन समीर। प्रकृति के कर अतीव सुकुमार॥11॥ कगा नहीं मनों को मुग्ध। भगा नहीं मही में मोद। बनाएगा न वृत्त

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भाग -7

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(11) शार्दूल-विक्रीडित है पाताल-पता कहाँ, गगन भी है सर्वथा शून्य ही। भू है लोक अवश्य, किन्तु वह क्या है एक तारा नहीं। संख्यातीत समस्त तारक-धारा के तुल्य ही लोक हैं। लोकों की गणना भला कब हुई, होगी

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पारिजात / त्रयोदश सर्ग / भाग -1

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कान्त कल्पना सिन्दूर (1) सिखाए अनुरंजन का मन्त्रा। जमाए अनुपम अपना रंग। लोक-हित-पंकज-पुंज-निमित्त। कहाए विलसित बाल-पतंग॥1॥ भर रग-रग में भव-अनुराग। मानसों को कर बहु अभिराम। रखे शुचि रुचि की

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भाग -2

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किसका मंजुल मनोभाव है वह कल कुसुम खिलाता। जिसके सौरभ से मन-उपवन है सुरभित हो जाता। है किसकी अनुपम कृपालुता कल्पद्रुम की छाया। पा जिसका अवलम्बन मानव ने वांछित फल पाया॥4॥ किसके अंकुश में मद-सा मदम

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भाग - 3

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कमनीय कामना (12) बहु गौरवित दिखाये जाये न गर्व से गिर। सब काल हिम-अचल-सा ऊँचा उठा रहे शिर। अविनय-कुहेलिका से हो अल्प भी न मैली। सब ओर सित सिता-सी हो कान्त-कीत्तिक फैली॥1॥ विलसे बने मनोहर बहु द

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भाग -4

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विमलसलिला सरिताएँ क्यों। मधुर कल-कल ध्वनि करती हैं। क्यों ललित लीलामय लहरें। मंजु भावों से भरती हैं॥5॥ हिम-मुकुट हीरक-चय-मंडित। नगनिकर ने क्यों पाया है। धावलता मिस वसुधा-तल पर। क्षीर-निधिक क्

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भाग -5

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(19) फूले-फले बुरों से बुरा नहीं माना। भले बन उनके किए भला। हमारी छाया में रहकर। चाल चलकर भी लोग पले॥1॥ पास आ क्यों कोई हो खड़ा। हो गये हैं जब हम खोखले। कहाँ थी पूछ हमारी नहीं। कभी थे हम भी

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भाग -6

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(29) आँख और ऍंधोर दिवाकर की भी हुई कृपा न। भले ही वे हों किरण-कुबेर। उसे दिन भी कर सका न दूर। सामने जो था तम का ढेर॥1॥ ज्योति भी भागी तजकर संग। दृगों पर हुआ देख ऍंधोर। कौन किसका देता है साथ।

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भाग -7

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(39) आँख की लालिमा पूत सम्बन्धा दिव्य मन्दिर में। लाग की आग आ लगाये क्यों। प्रेम की अति ललाम लाली को। क्रोधा की लालिमा जलाये क्यों॥1॥ रंग अनुराग का अगर बिगड़ा। अंधता ही अगर लुभाती है। था भला

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भाग -8

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(49) आँख की लालिमा उषा-सी लोक-रंजिनी बन। साथ लाती है उँजियाली। अलौकिक कान्ति-कला दिखला। दूर करती है अंधियारा । बना करती है बन-ठन के। छलकती छविवाली प्यारेली। लालिमा विलसित आँखों की। मुँहों क

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भाग -9

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(59) आँख का जल पास अपने कोई पापी। नहीं पाता पावन सोता। बड़े ही बु-बु धाब्बे। अधाम प्राणी कैसे धोता॥1॥ कालिमामय कोई कैसे। कालिमाएँ अपनी खोता। जलन जी की कैसे जाती। जो न आँखों का जल होता॥2॥

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भाग -10

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(69) आँसू और दिल आँसुओ, यह बतला दो, क्यों। कभी झरनों-सा झरते हो। कभी हो झड़ी लगा देते। कभी बेतरह बिखरते हो॥1॥ गिर गये जब आँखों से तब। किसलिए उनको भरते हो। निकल आये दिल से, तब क्यों। फिर जगह

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भाग - 11

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(79) खुली आँखें किसी में मकर मिला फिरता। किसी में भूख भरी पाई। किसी में चोट तड़पती थी। किसी में साँसत दिखलाई॥1॥ किसी में लगन की लहर थी। किसी में था लानत-लेखा। आँसुओं की बूँदों को जब। खोलकर

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पारिजात / चतुर्दश सर्ग / भाग -1

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सत्य का स्वरूप विभु-विभूति (1) भरा है नभतल में भरपूर। कौन-से श्यामल तन का रंग। मिले किसके कर का अवलंब। अधर में उड़े असंख्य पतंग॥1॥ किस अलौकिक विभु का बन भव्य। आरती करती है सब काल। जगमगाती ज

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भाग -2

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है सरस भावुकता-परिणाम। करुण रस का उर में संचार। कहाँ तब पाया हृदय पसीज। दृगों में बही न जो रस-धार॥3॥ शान्ति-जननी सत्यता-विभूति। पूततम भावों की हैं पूत्तिक। मही में है बहु महिमावान। दिव्य है म

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भाग -2

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है सरस भावुकता-परिणाम। करुण रस का उर में संचार। कहाँ तब पाया हृदय पसीज। दृगों में बही न जो रस-धार॥3॥ शान्ति-जननी सत्यता-विभूति। पूततम भावों की हैं पूत्तिक। मही में है बहु महिमावान। दिव्य है म

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भाग -3

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विवाह (8) पूततम है विधन विधिक का। नियति का है नियमित नियमन। प्रकृति का है अनुपम आशय। वेद का वन्दित अनुशासन॥1॥ वंश-वर्ध्दक वसुधा-हित-रत। सदाचारी सपूत को जन। क्षेत्रा में विश्व-सृजन के वह। सद

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भाग -4

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दिव्यताएँ उसकी अवलोक। दिव्यतम बनता है भव-कूप। अपावन जन का है अवलम्ब। परम पावन है सत्य-स्वरूप॥8॥ (12) हँसी है कभी उड़ाती उसे। कभी छलती है मृदु मुसकान। कभी आँखों के कुछ संकेत। नहीं करते उसका स

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भाग -5

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जब नहीं तिमिर सकेगी टाल। क तब क्यों प्रकाश की साधा। वदन क्यों उसका सके विलोक। अधामता होती है जन्मांधा॥12॥ कगी कैसे उसे पसंद। जो कि है परम पुण्य की मुर्ति सदा है पापरता चित-वृत्तिक। कुजनता है

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भाग -6

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कभी रखना न मैल दिल में। चलाना कभी नहीं चोटें। क्यों न टोटा पर टोटा हो। पर गला कभी नहीं घोटें॥3॥ काटना जड़ बुराइयों की। बदी को धाता बता देना। चाल चल-चल या छल करके। कुछ किसी का न छीन लेना॥4॥

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भाग -7

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जो माला फिरती रहे प्रति घटी होगा न तो भी भला। जो संध्या करते त्रिककाल हम हों तो भी नपेगा गला। जो हों योग-क्रिया सदैव करते तो भी न होंगे सुखी। होती है यदि अज्ञता विमुखता से सत्यता वंचिता॥6॥ अन्यो

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पारिजात / पंचदश सर्ग / भाग -1

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परमानन्द आनन्द-उद्बोध (1) गले लग-लगकर कलियों को। खिला करके वह खिलता है। नवल दल में दिखलाता है। फूल में हँसता मिलता है॥1॥ अंक में उसको ले-लेकर। ललित लतिका लहराती है। छटाएँ दिखला विलसित बन।

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भाग -2

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दिवसमणि निज कर से जिसको। मणि-खचित मुकुट पिन्हाता है। नग-निकर से परिपूरित रह। नगाधिकप जो कहलाता है॥3॥ देख कृति जिसकी क्षण-भर भी। छटा है अलग नहीं होती। जलद आलिंगन कर जिसपर। बरसते रहते हैं मोती॥

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भाग -3

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मोहते हुए मनों को जब। दिखाते हैं वे छवि न्यारी। कौन तब देता है दिखला। दृगों को फूली फुलवारी॥8॥ कलानिधि मंद-मंद हँसकर। जब कलाएँ दिखलाता है। जिस समय राका-रजनी को। चूमकर गले लगाता है॥9॥ चाँदन

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भाग - 4

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मुरलिका के मृदुतम रव में। माधुरी कौन मिलाता है। सुने शहनाई कानों को। सुधा-रस कौन पिलाता है॥5॥ मँजीरा मँजे करों में पड़। मंजुता किससे पाता है। सकल करतालों को रुचिकर। ताल दे कौन बनाता है॥6॥

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भाग -5

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(8) बताता है किसको बहु दिव्य। कपोलों पर का कलिताभास। प्रकट करता है किसकी भूति। सरस मानस का मधुर विकास॥1॥ दृगों में भरकर कोमल कान्ति। वदन को देकर दिव्य विकास। किसे कहता है बहु कमनीय। अधर पर व

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भाग -6

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मुँह खुला जो न सुगंधिकत बन। किसी से हिले-मिले तो क्या। रज-भरा जो है मानस में। फूल की तरह खिले तो क्या॥5॥ लोकरंजन करनेवाली। चाँदनी जो न छिटक पाई। किसलिए हृदय हुआ विकसित। हँसी क्यों होठों पर आय

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भाग -7

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(12) परमानन्द सत्य ही है जिसका सर्वस्व। धर्ममय है जिसका संसार। ज्ञानगत है जिसका विज्ञान। रुचिरतम है जिसका आचार॥1॥ जिसे सच्चा है तत्तव-विवेक। शुध्द है जिसका सर्व विचार। लोकप्रिय है जिसका सत्क

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भाग -8

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छोड़ हिंसा-प्रतिहिंसा-भाव। दूर कर मानस-सकल-विकार। नीति-पथ पर हो दृढ़ आरूढ़। त्याग कर सारा अत्याचार॥5॥ हो दलित-मानस-लौह-निमित्त। मंजुतम पारस तुल्य महान। किये कंगालों का कल्याण। अकिंचन को कर कं

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भाग -9

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देती है भर भाव में सरसता कान्तोक्ति में मुग्धता। खोती है तमतोम लोक-उर का आलोक-माला दिखा। कानों में चित में विमुग्ध मन में है ढाल पाती सुधा। हो दिव्या सविता-समान कविता देती महानन्द है॥9॥ लाती है

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