कर्म-विपाक
(1)
कर्म-अकर्म
अवसर पर ऑंखें बदले।
बनता है सगा पराया।
काँटा छिंट गया वहाँ पर।
था फूल जहाँ बिछ पाया॥1॥
जो रहा प्यारे का पुतला।
वह है ऑंखों में गड़ता।
अपने पोसे-पाले को।
है कभी पीसना पड़ता॥2॥
जिसकी नहँ उँगली दुखते।
ऑंखों में ऑंसू आता।
जी खटके पीछे पड़कर।
है वही पछाड़ा जाता॥3॥
जिसका मुँह बिना विलोके।
दिन था पहाड़ हो पाता।
वह मुँह न दिखावे, ऐसा।
है कभी चित्त फट जाता॥4॥
हैं भली भली ही बातें।
हैं बुरी बुरी कहलाती।
पर लाग लगे पर-घर में।
है आग लगाई जाती॥5॥
है झूठा तो झूठा ही।
सच्चा है भला कहाता।
पर लगता ही रहता है।
झूठी बातों का ताँता॥6॥
खलता है पग के नीचे।
चींटी का भी पड़ जाना।
पर कभी ठीक जँचता है।
लाखों का लहू बहाना॥7॥
जी बहुत दुखी होता है।
अवलोक और का दुखड़ा।
हैं कभी फेर लेते मुँह।
देखे दुखियों का मुखड़ा॥8॥
थोड़ा भी सितम किसी का।
है कहाँ कौन सह पाता।
पर दबकर कड़े पड़े का।
है तलवा चाटा जाता॥9॥
सब कुछ है समय कराता।
यह बात गयी है मानी।
है भरी दाँव-पेचों से।
भव कर्म-अकर्म-कहानी॥10॥
(2)
उत्ताकल तरंगित वारिधिक।
यदि रत्नराजि देता है।
तो द्वीपपुंज को भी वह।
हो क्षुब्धा निगल लेता है॥1॥
चल परम प्रचंड प्रभंजन।
यदि है विशुध्दि कर पाता।
तो दुर्गति कर तरुओं की।
भव में रज है भर जाता॥2॥
यदि बरस-बरसकर वारिद।
बनता है जीवनदाता।
तो मार-मारकर पत्थर।
भू पर है वज्र गिराता॥3॥
यदि आ दिनमणि की किरणें।
जग में हैं ज्योति जगाती।
तो करके नाश निशा का।
तम को हैं तमक दिखाती॥4॥
यदि बहु भलाइयाँ भू की।
पावक द्वारा हैं होती।
तो जगी ज्वाल-मालाएँ।
हैं आग धारा में बोती॥5॥
हैं देवधुनी के धाता।
गिरि हैं भूधार कहलाते।
पर वे पाषाण-हृदय हैं।
पविता उनमें हैं पाते॥6॥
सरिताएँ हैं रस देती।
कल कल रव कर हैं गाती।
पर टेढ़ी चालें चल-चल।
हैं बहु विचलित कर पाती॥7॥
उनमें है सुधा गरल है।
हैं विविध विनोद व्यथाएँ।
हैं भरी जटिलताओं से।
भव कर्म-अकर्म-कथाएँ॥8॥
(3)
वह गूढ़ ग्रंथि है ऐसी।
जो खुली न मति-नख द्वारा।
वह है वह जटिल समस्या।
जिससे समस्त जग हारा॥1॥
है अविज्ञात गति जिसकी।
मिलता है नहीं किनारा।
वह है अन्त:सलिला की।
वह अन्तर्वत्तअधिकतरी धारा॥2॥