स्वर्ग
सुरपुर
(1)
स्वर्ग है उर-अंभोज-दिनेश।
भाव-सिंहासन का अवनीप।
सदाशा-रजनी मंजु मयंक।
निराशा-निशा प्रदीप्त प्रदीप॥1॥
यदि मरण है तम-तोम समान।
स्वर्ग तो है अनुपम आलोक।
प्रकाशित उससे हुआ सदैव।
हृदय-तल परम मनोरम ओक॥2॥
उरों में भर बहु कोमल भाव।
सजाती है व्यंजन के थाल।
कराती है कितने प्रिय कर्म।
कामना सुरपुर की सब काल॥3॥
पुष्पवर्षण होता है ज्ञात।
अस्त्राशस्त्राों का प्रबल प्रहार।
बनाता है रण-भू को कान्त।
वीर का स्वर्गलाभ-संस्कार॥4॥
खुदे सरवर बन सरस नितान्त।
प्रकट करते हैं किसकी प्यासे।
कलस मन्दिर के कान्ति-निकेत।
स्वर्ग-रुचि के हैं रुचिर विकास॥5॥
नहीं जो होता जग को ज्ञात।
मंजुतम स्वर्गवास का मर्म।
बाँधाता क्यों कृतज्ञता पाश।
न हो पाते पितरों के कर्म॥6॥
जो नहीं होती उसकी चाह।
सुकृति की क्यों होती उत्पत्ति।
बनाती किसे नहीं उत्कंठ।
अलौकिक स्वर्गलोक-सम्पत्तिक॥7॥
हुआ कब किसी काल में म्लान।
सका भ्रम-भौंरा उसको छू न।
सौरभित है उससे संसार।
स्वर्ग है परम प्रफुल्ल प्रसून॥8॥
(2)
सुख गले लगता रहता है।
फूल सिर पर बरसाता है।
देवतों को अभिमत देते।
मोद फूला न समाता है॥1॥
नहीं चिन्ता चिन्तित करती।
चित्त चिन्तामणि बनता है।
नहीं ऑंसू आते, लोचन।
प्रेम-मुक्ताफल जनता है॥2॥
जरा है पास नहीं आती।
सदा ही रहता है यौवन।
दमकता ही दिखलाता है।
देवतों का कुन्दन-सा तन॥3॥
किसी को रोग नहीं लगता।
दुख नहीं मुख दिखलाता है।
अमर तो अमर कहाते हैं।
मर नहीं कोई पाता है॥4॥
असुविधा कान्त कर्मपथ में।
भला कैसे काँटा बोती।
सर्व निधिकयों के निधिक सुर हैं।
सिध्दि है करतल-गत होती॥5॥
जीविका के जंजालों में।
नहीं उनका जीवन फँसता।
हुन बरसता है सदनों में।
करों में पारस है बसता॥6॥
कामना पूरी होती है।
रुचिर रुचि हो-हो खिलती है।
कल्पतरु-फल वे खाते हैं।
सुधा पीने को मिलती है॥7॥
चारु पावक द्वारा विरचित।
देवतों का है पावन तन।
पूत भावों से प्रतिबिम्बित।
परम उज्ज्वल मणि-सा है मन॥8॥
महीनों भूख नहीं लगती।
अनुगता निद्रा रहती है।
वासना में उनकी सरसा।
सुरसरी-धारा बहती है॥9॥
स्वर्ग पर ही अवलम्बित है।
सुरगणों का गौरव सारा।
देव-कुल दिव्य भूतिबल से।
स्वर्ग है भूतल से न्यारा॥10॥
(3)
कहाँ सदा उत्ताकल तरंगित सुख-पयोधिक दिखलाता है।
महाशान्ति-रत्नावलि-माला जिससे सुरपति पाता है।
कहाँ प्रमोद-प्रसून-पुंज इतना प्रफुल्ल बन जाता है।
जिसे विलोक मानसर-विलसित विकच सरोज लजाता है॥1॥
कहाँ अप्सरा दमक दिखाकर द्युति दिगन्त में भरती है।
स्वरलहरी से मुग्ध बनाकर किसका हृदय न हरती है।
उसकी तानें राग-रागिनी को करती हैं मूर्तिमती।
जहाँ-तहाँ नर्त्तन-रत रह जो बन जाती हैं अरुन्धती॥2॥