कहने को तो आजकल
सब हैं लिखे पढे .
'भोर का साहित्य पढते
सोच में पडे ..............
हर खबर का रंग काला
काँपती कांठी में ज्वाला ,
रेप, हत्या ,
लूट, हरण ,
कीर्तिमान गढे !
राकछसी तक शर्मशारी ,
कुकृत्यों की महामारी ,
देख हतप्रभ,
जानवर भी ,
काठ से खडे !
भय रहा अपमान का
न पूर्वजों के नाम का,
धन पिपासा ,
वासना की ,
कीच में गडे !
इससे थे अनपढ भले ,
बिना डर भय के पले ....
गांव भर 'आँगन '
जहां स्वच्छन्द
खेल ते बढे !
कल्पना से परे पतन ,
देख थर्राये ये मन ,
क्यों नहीं
नैतिक अधोगति
से कोई लडे? ! ................