गुरु से प्रेम
जापानी ज़ेन गुरु सुजुकी रोशी की एक शिष्या ने एक दिन रोशी से एकांत में कहा कि उसके हृदय में रोशी के लिए अतीव प्रेम उमड़ रहा था और वह इससे भयभीत थी।
" घबराओ नहीं" - रोशी ने कहा - " अपने गुरु के प्रति तुम किसी भी प्रकार कि भावना रखने के लिए स्वतंत्र हो। और जहां तक मेरा प्रश्न है, मुझमें हम दोनों के लिए पर्याप्त संयम और अनुशासन है।"
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द्वार पर सत्य
बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक दिन यह कथा सुनाई :
किसी नगर में एक व्यापारी अपने वर्षीय पुत्र के साथ अकेले रहता था। व्यापारी की पत्नी का देहांत हो चुका था। वह अपने पुत्र से अत्यंत प्रेम करता था। एक बार जब वह व्यापार के काम से किसी दूसरे नगर को गया हुआ था तब उसके नगर पर डाकुओं ने पूरे नगर में आग लगा दी और व्यापारी के बेटे को अपने साथ ले गए।
व्यापारी ने लौटने पर पूरे नगर को नष्ट पाया। अपने पुत्र की खोज में वह पागल सा हो गया। एक बालक के जले हुए शव को अपना पुत्र समझकर वह घोर विलाप कर रोता रहा। संयत होने पर उसने बालक का अंतिम संस्कार किया और उसकी अस्थियों को एक छोटे से सुंदर डिब्बे में भरकर सदा के लिए अपने पास रख लिया।
कुछ समय बाद व्यापारी का पुत्र डाकुओं के चंगुल से भाग निकला और उसने अपने घर का रास्ता ढूंढ लिया। अपने पिता के नए भवन में आधी रात को आकर उसने घर का द्वार खटखटाया। व्यापारी अभी भी शोक संतप्त था। उसने पूछा - " कौन है?" पुत्र ने उत्तर दिया - " मै वापस आ गया हूं पिताजी, दरवाजा खोलिए!"
अपनी विचित्र मनोदशा में तो व्यापारी अपने पुत्र को मृत मानकर उसका अंतिम संस्कार कर चुका था। उसे लगा कि कोई दूसरा लड़का उसका मजाक उड़ाने और उसे परेशान करने के लिए आया है।
वह चिल्लाया - " तुम मेरे पुत्र नहीं हो, वापस चले जाओ।"
भीतर व्यापारी रो रहा था और बाहर उसका पुत्र रो रहा था। व्यापारी ने द्वार नहीं खोला और उसका पुत्र वहां से चला गया।
पिता और पुत्र ने एक दूसरे को फिर कभी नहीं देखा।
कथा सुनाने के बाद बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा - "कभी - कभी तुम असत्य को इस प्रकार सत्य मान बैठते हो कि जब कभी सत्य तुम्हारे सामने साक्षात् उपस्थित होकर तुम्हारा द्वार खटखटाता है तुम द्वार नहीं खोलते"
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घर और पहाड़
तई नामक एक व्यक्ति का घर एक बहुत बड़े पहाड़ के पास था। तई की उम्र लगभग ९० वर्ष हो चली थी। उसके घर आने वाले लोगों को पहाड़ के चारों ओर घूमकर बड़ी मुश्किल से आना पड़ता था। तई ने इस समस्या का हल निकालने का सोचा और अपने परिवार वालों से कहा - " हमें पहाड़ को थोड़ा सा काट देना चाहिए"।
उसकी पत्नी को छोड़कर सभी घरवालों ने उसके इस सुझाव को मान लिया। उसकी पत्नी ने कहा -" तुम बहुत बूढ़े और कमजोर हो गए हो। इसके अलावा, पहाड़ को खोदने पर निकलने वाली मिट्टी और पत्थरों को कहां फेंकोगे ?" तई बोला - "मैं कमजोर नहीं हूं ।" मिट्टी और पत्थरों को हम पहाड़ की ढलान से फेंक देंगे।"
अगले दिन तई ने अपने बेटों और पोतों के साथ पहाड़ में खुदाई शुरू कर दी। गर्मियों के दिन थे और वे पसीने में भीगे हुए सुबह से शाम तक पहाड़ तोड़ते रहे। कुछ महीनों बाद कड़ाके की सर्दियां पड़ने लगी। बर्फ जैसे ठंडे पत्थरों को उठा- उठाकर उनके हाथ जम गए।
इतनी मेहनत करने के बाद भी वे पहाड़ का जरा सा हिस्सा ही तोड़ पाए थे।
एक दिन लाओत्सू वहां से गुजरा और उसने उनसे पूछा कि वे क्या कर रहे हैं। तई ने कहा कि वे पहाड़ को काट रहे हैं ताकि उनके घर आने वालों को पहाड़ का पूरा चक्कर न लगाना पड़े।
लाओत्सू ने एक पल के लिए सोचा। फिर वह बोला - " मेरे विचार में पहाड़ को काटने के बजाय तुमको अपना घर हीं बदल लेना चाहिए। अगर तुम अपना घर पहाड़ की दूसरी ओर घाटी में बना लो तो पहाड़ के होने न होने का कोई मतलब नहीं होगा।"
तई लाओत्सू के निष्कर्ष पर विस्मित हो गया और उसने लाओत्सू के सुझाव पर अमल करना शुरू कर दिया।
बाद में लाओत्सू ने अपने शिष्यों से कहा - "जब भी तुम्हारे सामने कोई समस्या हो तो सबसे प्रत्यक्ष हल को ठुकरा दो और सबसे सरल हल की खोज करो।
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सद्गुणों में संतुलन
एक दिन एक धनी व्यापारी ने लाओत्सू से पूछा - "आपका शिष्य येन कैसा व्यक्ति है?"
लाओत्सू ने उत्तर दिया -" उदारता में वह मुझसे श्रेष्ठ है।"
आपका शिष्य कुंग कैसा व्यक्ति है?"- व्यापारी ने फिर पूछा।
लाओत्सू ने कहा - "मेरी वाणी में उतना सौंदर्य नहीं है
जितना उसकी वाणी में है।"
व्यापारी ने फिर पूछा -"आपका शिष्य चांग कैसा व्यक्ति है?"
लाओत्सू ने उत्तर दिया - "मैं उसके समान साहसी नहीं हूं।"
व्यापारी चकित हो गया, फिर बोला - यदि आपके शिष्य किन्हीं गुणों में आपसे श्रेष्ठ हैं तो ये आपके शिष्य क्यों हैं? ऐसे में तो उनको आपका गुरु होना चाहिए और आपको उनका शिष्य।"
लाओत्सू ने मुस्कुराते हुए कहा -"वे सभी मेरे शिष्य इसलिए हैं क्योंकी उन्होंने मुझे गुरु के रूप में स्वीकार किया है।और उन्होंने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि वे यह नहीं जानते हैं कि किसी सद्गुण विशेष में श्रेष्ठ होने का अर्थ ज्ञानी होना नहीं है।"
" तो फिर ज्ञानी कौन है? व्यापारी ने प्रश्न किया।
लाओत्सू ने उत्तर दिया - " वह जिसने सभी सद्गुणों में पूर्ण संतुलन स्थापित कर लिया हो।"
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फूल और पत्थर
अपनी जड़ों के पास मिट्टी में आधे से ज्यादा धंसे हुए पत्थर से फूल ने हिकारत से कहा - "तुम कितने कठोर हो। इतनी बारिश होने के बाद तो तुम गलकर महीन हो जाते और फिर तुममें भी बीज पनप सकते थे। लेकिन तुम ठहरे पत्थर के पत्थर। अपने इर्द गिर्द और रेत ओढ़कर मोटे होते जा रहे हो। हमें पानी देनेवाली धारा का रास्ता भी रोके बैठे हो। आखिर तुम्हारा यहां क्या काम है?
पत्थर ने कुछ नहीं कहा।
ऊपर आसमान से बादलों की आवाजाही चलती रही। सूरज रोज धरती को नापता रहा और तांबई चंद्रमा अपने मुंहासों को कभी घटाता, कभी बढ़ाता। पत्थर इनको देखता रहता था, उसे शायद ही कभी नींद आयी हो। दूसरी ओर, फूल, अपनी पंखुड़ियों की चादर तानकर मस्त सो रहता... और ऐसे में पत्थर ने उसे जवाब दिया....
मैं यहां इसलिए हूं क्योंकि तुम्हारी जड़ों ने मुझे अपना बना लिया है। मैं यहां इसलिए नहीं हूं कि मुझे कुछ चाहिए, बल्कि इसलिए हूं क्योंकि मैं उस धरती का एक अंग हूं जिसका काम तुम्हारे तने को हवा और बारिश से बचाना है। मेरे प्यारे फूल, कुछ भी चिरंतन नहीं है, मैं यहां इसलिए हूं क्योंकि मेरी खुरदरी त्वचा और तुम्हारे पैरों में एक जुड़ाव है, प्रेम का बंधन है। तुम इसे तभी महसूस करोगे यदि नियति हम दोनों को कभी एक दूसरे से दूर कर दे।।"
तारे चंद्रमा का पीछा करते - करते आसमान के एक कोने में गिर गए। नई सुबह की नए सूरज ने क्षितिज के मुख पर गर्म चुम्बन देकर दुनिया को जगाया। फूल अपनी खूबसूरत पंखुड़ियों को खोलते हुए जाग उठा और पत्थर से बोला -" सुप्रभात! मैंने रात एक सपना देखा कि तुम मेरे लिए गीत गा रहे थे। मैं भी कैसा बेवकूफ हूं, है ना?
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सागर की लहरें
विशाल महासागर में एक लहर चढ़ती - उतरती बही जा रही थी। ताजी हवा की लहरों में अपने ही पानी की चंचलता में मग्न। तभी उसने एक लहर को किनारे पर टकरा कर मिटते देखा।
" कितना दुखद है"- लहर ने सोचा - " यह मेरे साथ भी होगा"
तभी एक दूसरे लहर भी चली आई। पहले लहर को उदास देखकर उसने पूछा - क्या बात है? इतनी उदास क्यों हो?"
पहली लहर ने कहा -" तुम नहीं समझोगी। हम सभी नष्ट होने वाले हैं। वहां देखो, हमारा अंत निकट है।"
दूसरी लहर ने कहा -" अरे नहीं, तुम कुछ नहीं जानती। तुम लहर नहीं हो, तुम सागर का ही अंश हो, तुम सागर हो।"
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शेर और लोमड़ी
रेगिस्तान में दो मित्र
स्वर्ग और नर्क
मजाक कैसा ?
धनिक का निमंत्रण
मुखौटे
चाय का कप
घमंडी धनुर्धर
नाई की दुकान
महल या सराय
व्यावहारिकता
एक ग्लास दूध
ईश्वर की खोज
अंधी लड़की की कहानी
दस लाख डॉलर
राह की बाधा
उपहार