' बारिश की बूँद टूटे कि तोड़े, सवाल इतना सा है! ' देवेंद्र भाई ने कहा और चुप हो गए.देवेंद्र भाई यानी स्वर्गीय डॉ. देवेंद्र कुमार, प्रसिद्द गांधीवादी अर्थशास्त्री, डॉ कुमारप्पा के शिष्य एवं गुमनाम वै ज्ञान िक! वैज्ञानिक , जो केवल गांव वालों के लिए ही सोचते थे और उन्हें निरंतर आत्मनिर्भरता की और अग्रसर करने में ही लगे रहते थे . उनहोंने आजीवन, अनथक रूप से यही किया.
उनके कहने का तात्पर्य भी कितना सहज किन्तु वैज्ञानिक था! स्वयं को दोहराते हुए बोले, ' बात इतनी सी है कि पर्वत हमारे जल के भण्डार हैं. सूर्यदेव, समुद्र-जल की भाप से मेघ-निर्माण करते हैं, मेघ जल में परिवर्तित हो घनघोर बरस जाते हैं. यही जल पर्वतों में हिम का रूप लेकर जमा होता रहता हैऔर ग्रीष्म की ऊष्मा से पिघल-पिघल कर पुनः जल में परिवर्तित हो जाता है; रूप लेता है नदियों का . नदियाँ इस जल के भण्डार को ढो- ढो
कर हम तक पहुंचाती हैं और जो बच रहता है उसे फिर से समुद्र में समा देती हैं. इन बड़े-बड़े पर्वतीय जल भंडारों ने अपने तन-बदन पर बड़े-बड़े वृक्ष ऊगा रक्खे हैं ! जानते हैं क्यों? ..... केवल इसलिए कि बरखा की बूँद उनकी पत्तियों पर पड़े, टूटे और फुहार बन कर हौले से धरती के गर्भ में समा जाय. पर्वतों के गर्भ में जल बढ़ता रहे, बर्फ भी जमती रहे और समयानुकूल जल की आवश्यकता भी पूरी होती रहे.'
हो, किन्तु, यह रहा है कि पहाड़ों के सीने चाक किये जा रहे हैं. वृक्ष हम सब की मिली भगत से, अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए, दिन-रात काटे जा रहे हैं. पहाड़ गंजे हो रहे हैं. सो हज़ारों फ़ीट ऊपर से, सनसनाती हुई बारिश की बूँद, जब गंजी धरती पर गोली की रफ़्तार से गिरती है तो अनुमान लगाइए , उसमें कितनी ताक़त होती होगी! वह तड़ाक से धरती को तोड़ती है, मिट्टी बनाती है और अपने साथ बहा ले जाती है. तिसपर पेड़ पर्याप्त न होने के कारण पत्थरों के चिकने वक्ष से फिसलता बरखा का जल धड़ल्ले से बाढ़ बन जाता है.
और फिर होता यों है कि जब ज़रुरत नहीं होती तब तो पानी बाढ़ बन कर आ जाता है और जब ज़रुरत पड़ती है तब कोर सूखा ही हाथ लगता है क्योंकि पर्वतों के भंडारों में तब तक पानी बचता ही नहीं. गंजे पहाड़ पानी को रोकें भी तो कैसे! बारिश की बूँद पेड़ पर गिर कर टूटने के बजाय सीधे धरती पर गिरती है तो मिट्टी तोड़ते हुए,सीधे अपने साथ बहा ले जाती है; वह मिट्टी जो हर गाँव की अपनी धरोहर होती है, उसका भूमि-धन होती है!
गावों की धरती का यह धन, ज़बरदस्ती, उन बड़े-बड़े बांधों की शरण में पहुंचता है जिन्हें सरकार ने बनाया है और बनाती जा रही है! याद रहे किन्तु, जिस तरह मनुष्य की मृत्यु निश्चित है उसी तरह बड़े-बड़े सुरसा रुपी विकराल बांधों की भी मृत्यु निश्चित है. आज से कुछ सौ साल बाद, गावों के खेतों से बह कर आई यह मिट्टी, इन बांधों के आगे ऊपर तक इस तरह जम कर खड़ी हो जाएगी कि इनका दम ही घुट जाएगा. इतने बड़े मिट्टी के ढेर को न तो कोई सरकार ही उठा पाएगी, न ही कोई संगठन! देश के किसान अथवा देश की भावी पीढ़ियों की क्या सरकारों को वाकई कोई चिंता है! सुंदरलाल बहुगुणा को संतरे का रास पिला कर पुचकार दिया जाता है, मेधा पाटकर को उस बाढ़ में डूबने से ज़बरन रोक दिया जाता है जो हम सबके विनाश का कारण बनने वाली है और सरकारी काम अविरल गति से आगे बढ़ता ही जाता है.
बढ़ता जाता है किसके लिए? ठेकेदारों के लिए, कमीशनों के लिए तथा अपनी आयु भर की सुख-सुविधाएं जुटाने भर के लिए! बात बड़ी छोटी सी है मित्रो, पानी की बूँद पेड़ पर गिर कर टूटते हुए पुहार बनकर धरती के गर्भ में समा जाय कि गंजी ज़मीन पर गोली की तरह गिरकर उसे तोड़ती जाय! आज से जब भी, कहीं भी, किसी भी वृक्ष को कटते देखें तो कृपया इतना अवश्य सोचें कि बारिश की बूँद टूटे क़ि तोड़े!