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सुपारी वहाँ भी: सुपारी यहां भी

28 फरवरी 2017

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हाल ही में महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल के नगर वर्धा के पास बसे सेवाग्राम में स्थित,'गांधीकुटी'केतीर्थाटन को गया था. सेवाग्राम से लेकर वर्धा तक की पुण्यभूमि गाँधी जी की कर्मस्थली रही. सेवाग्राम एक पूरा परिसर है जिसमें गाँधी जी द्वारा खोलेगये विभिन्न प्रकार के सामाजिक संगठन, शिक्षा संस्थान एवं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विचारों के कार्यालय हैं, जहां स्थित है यह गांधी कुटी जो उन्होंने स्वयं अपने रहने के लिए बनाई थी , यह कुटी पूरी तरह से कच्ची मिट्टी से बनी है और उसकी लिपाई आज भी गाय के गोबर से ही होती है . यहां किसी भी एयरकंडिशनिंग अदि कभी कोई व्यवस्था नहीं रही और गांधी, सभी हस्तियों से यहीं मिला करते थे बल्कि सारी राष्ट्रीय गतिविधियों का केंद्र यही गाँधी कुटी थी. शांति से प्रणाम कर , मैं न जाने कितनी देर आँखें मूंद बैठा रहा किन्तु फिर समय का भान हुआ , उठा और वर्धा की ओर चल दिया क्योंकि वहाँ भी तो जाना ही था.


वर्धा में एक संस्थान गाँधी का ही बनाया हुआ है जिसका नाम है,'मगन संग्रहालय'. इसका निर्माण गाँधी ने स्वयं करवाया ही नहीं था अपितु बैलगाड़ियों में घूम-घूम कर इसके लिए चन्दा भी जुटाया था. मगन भाई गाँधी , गाँधी जी के भतीजे तो थे ही, उनके परम भक्त एवं कर्मठ सहयोगी भी थे. ग्राम-शिल्प एवं शिल्पकारों में उनके प्राण बसते थे. ग्राम शिल्प तथा शिल्पियों का अर्थ समझे आप; कुम्हार, लुहार, चर्मकार, बढ़ई , तेली, बंसोड़(जो बांस के कारीगर होते हैं, क्योंकि इस इलाके मैं बांस की बहुतायत है) फिर गोंद, शहद अदि इकठ्ठा करने वाले, हाथ काग़ज़ बनाने का काम, आदि-आदि नजाने कितने शिल्प, कितनी कारीगरियां! मगन भाई इन चितेरे कमेरों के उत्थान में लगे रहते, उन्हीं के बीच खाते-पीते, रहते. .. अविवाहित ही रहे.हारी-बीमारी में भी लगे रहे सो एक दिन उन्हीं के बीच से स्वर्ग चले गए. गांधी ने केवल जनता के चंदे से या यों कहिये कि भीख से यह तीन मंज़िल भव्य इमारत बनवाई जिसमें ग्राम्य-शिल्प, कारीगरी एवं ज्ञान-विज्ञान का अद्भुत दर्शनीय संगम है.


यह तो थी गांधी की बात, अब कमाल देखिए उनके चेलों का. कुछ उत्साही ग्राम वैज्ञानिकों एवं समाज- शास्त्रियों ने अपने गुरु गाँधी, उन शिष्य डॉ. कुमारप्पा एवं उनके शिष्य डॉ. देवेंद्र कुमार के मार्ग-दर्शन में एक ग्रामोपयोगी विज्ञानं केंद्र की स्थापना की है. जब मैं मगन-संग्रहालय से इस विज्ञान केंद्र पर पहुंचा तो समीर और विभा में गरमागरम बहस चल रही थी. समीर सिविल इंजीनियर थे तो विभा समाज शास्त्री!

विभा ने आग्रह किया, " फिर भी समीर, किसी राज-मजदूर को अपने साथ ज़रूर ले चलो. कल रात जम कर बारिश हुई है कहीं उनके घरों की छतें टपक रही होगीं तो ! कहाँ वो अपना सामान रक्खेंगे, कहाँ सोएंगे?"


ठहरिए मैं तनिक आप सभी की उलझन दूर कर दूं! दरअसल इस विज्ञान केंद्र ने गाँधी कुटी से प्रेरणा पाकर इस आदिवासी बहुल इलाके के अंतिम ग़रीबों के लिए कच्ची मिटटी के पक्के मकान बनाए हैं.


" गांधी का अंतिम ग़रीब, सर्दी और बरसात से बचने के लिए ही तो घर बनाता है सो भी अपनी ज़िन्दगी की सारी जमा-पूंजी लगा कर! उस पर उसकी छत यदि इस सर्दी की बारिश में टपकने लगी तो. ..!" विभा ने घबरा कर कहा.


राज मजदूरों की टोली के साथ केंद्र के कुछ कार्यकर्ता और हम लोग भी गए. पहाड़ियों के बीच हरी-भरी घाटी में चौदह मकान बने हुए थे. बाहर से देखने में बाहर से पक्के जैसे किन्तु अंदर से वही कच्ची माटी के और गोबर से लिपे-पुते . चौदह बेघर परिवार यहां बसा दिए गए थे, देख कर बहुत ही भला लगा, राज- मजदूरों को तुरंत उनके काम पर भेज दिया गया. एक कार्यकर्ता उनके साथ गया.


सामने एक विशालकाय बोरिंग मशीन चल रही थी. " इस पथरीले इलाके में पानी मिल जाय तो मानो भगवान् मिल गए!" समीर ने मेरी ओर मुंह कर के कहा. तब मेरी समझ में माजरा आया. वहाँ के बच्चों की आँखों में कुतूहल था. आश्चर्य से फटी हुई आँखों से मानो मन ही मन इस जादू को देख कर अभिभूत हो रहे हों! आदिवासियों एवं ग्रोमोपयोगी विज्ञान केंद्र के कार्यकर्ताओं के मन में कुतूहल नहीं प्रार्थना थी,' हे भगवान्. कामना पूरी करो ..'


इधर सूर्यदेव अस्ताचलगामी हुए और उधर पुहार पड़ी; बरखा की नहीं, बोरवेल से फूटे स्वच्छ पानी की फुहार! पल भर के लिए मानो सभी पागल हो गए, क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी कीचड मे से निकलते, दौड़ते-भागते पानी कीफुहार तक पहुंचे. न उन्हे भीगने का डर था न सर्दी का! मानो गंगा स्नान कर, गंगाजल का प्रसाद पा रहे हों! प्यासों को पानी मिल ही गया.


दूसरे दिन वर्धा ज़िले की सीमा समाप्त करकर हम घने आदिवासी इलाके के जंगलों से होकर गुज़रे तो ऊंचे-ऊंचे वृक्षो पर क़द्दावर आदिवासी चढ़े हुए थे. पता चला कि इस केंद्र के शोध के बाद इन्हें एक ऐसी तरकीब बताई गई है कि मधुमक्खियां इनकी मित्र बन गयी हैं. रानी मधुमक्खी और उसके सहायकों को ये आदिवासी उन निचली डालियों पर जमा देते हैं जहां से छत्ते आसानी से तोड़े जा सकें और जीवनयापन के लिए शहद की बिक्री की जा सके. इस तरह इनकी मेहनत तो घट जाती है किन्तु आमदनी कहीं अधिक बढ़ जाती है.


दूर एक तालाब के सहारे एक और गाँव है और उससे सटा घना जंगल! तो जीवन यापन के लिए ये लोग करते क्या हैं? जी, गोंद इकट्ठा करते हैं! ग्रामोपयोगी विज्ञानं केंद्र ने इन्हें ऐसे सुगन्धित वृक्ष बता दिए हैं जिनसे सुगन्धित गोंद प्राप्त हो सके जिसकी मांग अधिक , आमदनी भी अधिक क्योंकि ऐसे गोंद दवाइयों में भी काम आते हैं. इनकी प्रोसेसिंग और वितरण की व्यवस्था भी आदिवासियों के द्वारा ही हो, ऐसी तरकीबें भी इन्हें बतादी गई हैं. गांव के 'समाज मंदिर' में सभी मिलते हैं और मिलकर सब समस्याओं में भागीदार भी बनते हैं और उन्हें सिमटाते भी हैं. इसी समाज मंदिर में कुछ चारपाइयों पर बिठा कर और उसके बाद शहद का शरबत पिलाकर हमारा भी स्वागत किया गया गया किन्तु आँखों की कोर भिगो गया अंत में पान और उसके ऊपर एक साबित सुपारी रख कर किया गया हमारा सम्मान! मान का पान तो सुना था किन्तु हरे पान के पत्ते पर साबित सुपारी रख कर मेहमान का सम्मान करना मन को छू गया!


ये सब कुछ हो पाया उन समर्पित, उत्साही,युवा ग्राम्य वैज्ञानिकों के शोध और समर्पण से जिनमें से सभी ने अपनी बड़ी-बड़ी नौकरियाँ छोड़ी हैं या फिर की ही नहीं. कोई इंजीनियर तो कोई बायो-केमिस्ट ; समाज शास्त्री और पी एच डी तो हर कोई है!बड़े-बड़े शहरों के बड़े-बड़े काम छोड़कर, ये गोबर, केंचुए, मिट्टी और कूड़े पर काम करके अपनी प्रयोगशाला में औरगैनिक खाद बनाते तो कहीं स्पिल वाटर टेक्नोलॉजी पर काम करते हैं. .. न जाने क्या-क्या करते हैं अंतिम ग़रीब के लिए ! कम खाते हैं और ज़्यादा, बहुत ज़्यादा खुश रहते हैं .


बाल-सुलभ अनिर्वचनीय मुस्कान, उमंग, तरंग और मिट्टी की सोंधी-सोंधी गंध समेटे वापस मुम्बई यह सोच कर लौटता हूँ कि अब कुछ दिन वहाँ की महक में मुबत्तर रहूँगा कि कुछ गोलियों की आवाज़ और बारूद के धुंए से नाक के नथुने भर जाते हैं. किसी ने किसी पर देसी कट्टे से गोली दागी है. पता चला कि वह कोई शूटर था और उसे किसी को मारने की 'सुपारी' दी गई थी!


काम वहाँ भी चल रहा है किन्तु वहाँ ज़िंदगियाँ बचाने का काम चल रहा है, मान के लिए उस आदिवासी ने जब एक सस्ते से पान के ऊपर एक गोल सुपारी रख कर मेरा सम्मान किया था तो मैं और वह दोनों ही उस सस्ती सी सुपारी से भी धन्य हो गए थे. ..


...किन्तु सुपारी यहां बहुत महँगी हो गई है... दो करोड़ की एक और वह भी एक जान लेकर!

सुपारी वहाँ भी है: सुपारी यहां भी है ...









रेणु

रेणु

गाँधी जी की तपोभूमि के बारे में भाव पूर्ण आलेख पढ़कर बहुत प्रसन्नता हो रही है | आदिवासी जीवन का एक सुंदर सौम्य चित्तर उभर कर आया है - | हम जैसे लोग जिन्हें गाँधी जी की कर्मस्थली देखने का सौभाग्य शायद कभी प्राप्त ना हो -उनके लिए ये आलेख बहुत बड़ा उपहार है -- वह भी आप जैसे परम गांधीवादी चिंतक की कलम से निकला हुआ | अच्छा लगा कि घोर भौतिकवादी इस युग में गांघी की विचारधारा का अनुसरण करने वाले उत्साही युवा अपने आदर्श पथ पर अग्रसर हैं और अपनी प्रेरणा से अनपढ़ और पिछड़े आदि वासियों का जीवन सवार कर अपनी शिक्षा को सही अर्थों में सार्थक कर रहे हैं | भले ही महानगरों में सुपारी लेकर किसी की जान ले ली जाती हो -- पर प्यार की सुपारी सदैव ही इस जानलेवा सुपारी पर हावी रहेगी | राघव जी -- आपको इस सद्भावना भरे आलेख के लिए हार्दिक आभार ---

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