मित्रो, नमस्कार ! मैंने अपना पन्ना (वेब पेज ), 'बात बोलेगी' कल ही बनाया था और आज,' बात से पहले की बात' करना चाहता हूँ.
यह सन 1949 की बात है. मैं तब कक्षा चार में दिल्ली, पहाड़गंज के दयानंद एंग्लो-वैदिक विद्यालय में पढता था. वहाँ एक वाक्-प्रतियोगिता का आयोजन हुआ. विषय था,' क्या भारत विश्व का प्रतिनिधित्व कर सकता है! ' मुझे तो केवल पढ़ना भर था, आ लेख तो हमारे अध्यापक आचार्य लक्ष्मीनारायण शास्त्री जी ने लिखा था. मेरे पिताश्री जो तब आकाशवाणी में कार्यरत थे, उस दिन काम पर नहीं गए बल्कि प्रतियोगिता में मेरा उत्साह बढ़ाने आए. कई विद्यालयों का जमावड़ा था. में प्रथम आगया. पारितोषक मिलने के साथ ही साथ मेरे पिता ने मुझे गोद में उठा लिया और तुरंत ही मुझे मेरी पसंदीदा चीज़ दिलाने ले चले,'फुटबॉल' ! फुटबॉल खरीद कर , उनहोंने तुरंत ही उस पर मेरा नाम अपने पेन से, हिंदी में लिखा तो मैंने उत्सुकतावश पूछा, '' पिताजी, हिंदी में क्यों!' उन्होंने मानो हुंकार भरी,'बेटा अब देश में यही भाषा चलेगी, अब हम आज़ाद हैं न!'
बात मन में बैठ गई. पिताश्री तो सन '५१ में ही अकाल मृत्यु के शिकार हो गए, मेरे मन में बात बैठ गई. स्नातकोत्तर परीक्षा का विषय हिंदी रहा, लिखने का रोग तो बचपन से ही पाल लिया था किन्तु जब पुणे के फिल्म तथा टी वी संस्थान में प्रवेश लिया और हमारे फिल्म निर्देशन के विभागाद्यक्ष स्वर्गीय डॉक्टर मुशीर अहमद ने यह बताया कि,' अब हिंदुस्तान में मनोरंजन का एक नया माध्यम दूरदर्शन आने वाला है ( तब तक दूरदर्शन प्रायोगिक रूप से 1-2 घंटे के लिए ही केवल दिल्ली से प्रसारित होता था ) उसे ज्वाइन करके आप लोग पॉजिटिव एंटरटेनमेंट की शुरूआत कीजियेगा 1 मीडिया के किसी भी फील्ड में आप जाएं तो पॉजिटिव सोच ही रखियेगा!'
मुशीर साहब की बात मन में घर कर गई. आदरणीय प्रधानाचार्य श्री जगत मुरारी ने, पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद, मुझे अपना मेधावी छात्र कह कर दिल्ली दूरदर्शन ही भेज दिया. वहाँ 1 वर्ष हिंदी के कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के बाद मुम्बई का मोह बढ़ा तो मीडिया में जहां कहीं जो भी किया हिंदी के लिए किया. विज्ञापनों के संसार में जीवन बीमा के लिए,' नारी तुम केवल श्रद्धा हो' जैसे उद्धरण लिए, तब तक परंपरा थी कि अंग्रेजी की हैडलाइन ही अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित की जाती थीं किन्तु हम तीन हिंदी के मतवालों ने एक हिंदी लेखन की संस्था खोली थी जहां हिंदी कॉपी लिखी जाती थी. एक हैडलाइन याद आ ररही है, ' शिक के माथे पे हिंदी की बिंदी' आदि . फिर दूरदर्शन में धारावाहिकों का ज़माना आया तो आदरणीय श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी, शरत बाबु का चरित्रहीन, शेष प्रश्न, टेली-फिल्म विजया, मछलीघर और न जाने कितने साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम किये किन्तु पश्चिम से प्रभावित चैंनलों ने धीरे धीरे हिंदी को केवल बाज़ार की भाषा बना दिया, लगा जैसे अँधेरा छा गया है. किन्तु माचिस की तीली का प्रकाश बन ,'शब्द नगरी' आया , जैसे कुहासे में से सूर्य झाँकने लगा हो, जैसे जाड़े की धुप आ गई हो और मन इससे जुड़ गया. ... हिंदी मेरी जननी है , मेरी मातृभाषा, मराठी में भी बड़ा अच्छा नाम है, 'मायबोली' ! अंत में आज के लिए इतना ही -
" जिसको न निज भाषा तथा निज देश का अभिमान है ,
वह नर नहीं नर- पशु निरा है और मृतक सामान है!"