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सदाफूली की साइकिल

24 फरवरी 2017

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माँ ने उसका नाम ही सदाफूली रख दिया था. 'सदाफूली ' महाराष्ट्र में 'सदाबहार' फूल को कहते हैं. गर्मी हो, सर्दी या कि बरसात, यह फूल सदाबहार है , फूलता ही रहता है. कई मर्ज़ों की दवा भी है यह! 'एंटीबायटिक' बनाने मैं भी प्रयोग की जाती है अर्थात स्वयं तो सदा खिली रहती ही है दूसरों के चेहरों पर भी बहार लाती है,


हमारी सदाफूली का भी यही हाल था. खेत मैं पैदा हुई थी,.माँ हंसिया लेकर खेत में काम करने गई हुई थी. दिन पूरे हो चुके थे सो दर्द उठा, माँ कुछ सोचती-करती कि उससे पहले यह आ ही तो गई! माँ की कोख से धरती माँ की गोद में आ गिरी! धरती माँ ने प्यार से संभाला, भुरभरी माटी थी , सारा गीलापन सोख लिया!सूखी हो गई. माँ ने गोद में उठाते-उठाते चेहरा देखा. आँखें मुंदी थीं कि रो उठी....रो रही थी कि मंद-मंद मुस्कुरा उठी ....माँ निहाल हो गई!


अब नाल कैसे कटे! पास ही उसकी चिलम भरने के लिए उपलों में आग सुलग रही थी. आदमी के नाम पर घर में, सदाफूली का केवल बड़ा भाई था . उसके बाद के तीन भाई बीमारी में जाते रहे थे. आदमी भी कुछ महीनों पहले ही जाता रहा था. बड़ा भाई आनगांव से बीज लेने गया हुआ था. और कोई था नहीं सो माँ ने आव देखा न ताव झट हाथ का हसिया आग में गाड़ दिया. अनुभवी थी, हंसिया आग में तप गया तो अपने हाथ से ही आग से निकाल कर अपनी नाल काट ली. नाल काट कर बेटी की ओर देखा. आँखें मुंदी हुई थीं पर पता नहीं किस बात पर मुस्कुरा रही थी! माँ के मुंह से बरबस निकल पड़ा, 'सदाफूली'' सो जनमते ही इसका नामकरण भी हो गया!


सदाफूली 'सदाफूली' ही थी! डांट लो चाहे मारो, हंसती ही रहेगी; चोट लगे तो रोएगी नहीं, हँसेगी और पल्ला झाड़ कर अपने काम पर लग जाएगी. कोई काम बिगड़ गया तो हंसना, भाई ने टोका तो हंसना, ग़रज़ यह कि दुःख हो या सुख (और ग़रीब की ज़िन्दगी में सुख होते ही कितने हैं!) हँसते रहना ही मानो उसका धर्म था. 'था' के प्रयोग से यह न समझें कि वह 'थी' ! जी नहीं वह है, भली चंगी है , महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल में आदिवासी इलाके की 'बॉर्न फ्री' महिला है वह. हम, क्योंकि उसके अतीत की बात कर रहे हैं अतः हमने 'थी' शब्द का प्रयोग किया. तब वह अपने मायके में थी , आज ससुराल में है.


जब बच्ची थी तो माँ के घर में उसे उतनी ही तरजीह दी जाती थी, जितनी दी जानी चाहिए. घर के बड़ों के खाने के बाद जो बचे वह खा ले. मर्द लोग जब पीकर धुत्त पड़े हों तब यह घर और बाहर के सारे काम निबटा ले. घर में सबके जागने के पहले उठ जाए और माँ के साथ घर के काम पर लग जाए. सब कुछ वह हँसते हुए करती किन्तु एक ही अदम्य लालसा रहती उसके मन में; उसे भाई की साइकिल पर चढ़ना था!


यह कहानी महाराष्ट्र के चंद्रपुर ज़िले के उस इलाक़े की है जहां रास्ते घने जंगलों से होकर गुज़रते हैं. बरसात में तो आवागमन और भी भारी पड़ता है. उन लहरदार पगडंडियों पर , यहां-वहाँ आने-जाने के लिए साइकिल होना वरदान के समान है. हमेशा लड़ाई घर में इसी बात पर होती कि दांव लगते ही सदाफूली भाई की साइकिल लेकर भाग लेती. घांघरा ऊपर कर उसमें लांघ लगाईं और कूद गई साइकिल की गद्दी पर. साइकिल उसे किसी ने सिखाई नहीं थी . शुरू-शुरू में तो वह पीछे के कैरियर पर बैठकर दोनों हाथों से 'हैंडल' थाम लेती . पैर दोनों ही ज़मीन पर रहते जिनसे धकेल-धकेल कर वह साइकिल आगे बढ़ाती जाती. रफ़्तार बढ़ने पर वह पाँव ऊपर कर लेती और संतुलन करना सीखती जाती. दो-चार बार गिर -पड़ कर उसने संतुलन बनाना सीख लिया . फिर क्या था, 'पैडल' पर पाँव अपने आप पहुँचने लगे.


उम्र बढ़ी तो क़द भी बढ़ा और लालच भी! अब उसे गद्दी पर बैठना था! चढ़ी, गिरी फिर कामयाब हुई तो रफ्तार बढ़ाने की सूझी. किशोर मन सदा आसमान पर उड़ता है. उसे क्या पता कि सत्ता और सूझ-बूझ का संतुलन बनाए रखना भी बहुत ज़रूरी है. नज़रें आसमान पर, साइकिल ज़मीन पर सो पहिया एक पत्थर पर चढ़ा, संतुलन बिगड़ा और घटना एक दूसरे पत्थर से जा टकराया. घुटना छिला , खून बहा, घाँघरा उसमें सना, और जब माँ ने देखा तो सनाका खाकर वहीं बैठ गई. उसने सोचा कि कुछ ऐसा-वैसा कर के तो नहीं आयी है! माँ ने डाटना- मारना शुरू किया और यह पट्ठी हंसती ही रही. बहरहाल ग़लतफ़हमी पैदा होते देख उसे बताना ही पड़ा कि वह चोरी-चोरी भैया की साइकिल ले गई थी और गिर पड़ी . माँ ने पूरी तसल्ली की .तसल्ली हो गई पर साइकिल पर ताला जड़ दिया गया,


सदाफूली उस दिन पहली बार मुरझाई. अनशन-पाटी लेकर जो पड़ी तो तभी उठी जब माँ ने भाई से कहा कि जब इसका इतना ही मन है और चलाना भी जानती है तो इसे भी थोड़ी देर चला लेने दिया कर,.इजाज़त तो मिली किंतु रात में, वो भी घर के सामने ही चलाने की वरना कोई क्या कहेगा कि लड़की, लड़कों की तरह साइकिल पर घूमती है! मोहलत मिली तो सदाफूली फिर से खिल उठी रात में वह साइकिल पर चढ़ती रही और गिरते-पड़ते, चलते-चलाते, एकदम पटु हो गई. अब तो चोरी-चोरी उसने आसपास के बच्चों को पटाया और पांच-पांच बच्चों को एक साथ साइकिल पर बिठाकर, ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भी सरपट भागने लगी! एक रात भाई से किसी बच्चे ने चुगली खा दी सो भाई का तो दिमाग़ ही घूम गया. वह डाटता रहा, यख हंसती रही . कोई भी असर न होते देख यह तय किया गया कि अब इसकी उम्र हो गई है, शादी कर देनी चाहिए.


शादी तय हो गई. दहेज़ में मांग आई साइकिल की और भाई एक नई साइकिल ख़रीद लाया साइकिल के पिछले पहिये मैं एक ताला था, आते ही जड़ दिया गया! भला इस पगली का क्या भरोसा; ब्याह से पहले ही तोड़ के रख देगी तो! फिर भी सदाफूली हंसती- खिलखिलाती ही दिखती. अपने दहेज़ की साइकिल को वह हर कोण से देखती रहती. न जाने कितनी भावनाएं, आकांक्षाएं और संभावनाएं उसके मन में पलटी रहतीं और वह बिना बात ही किलक उठती! हंसी खीं-खीं करके न फूट पड़े इसलिए अपने ही हाथ में भींच कर अपना मुंह दबा लेती.


शादी हो गई. सदाफूली अपनी ससुराल आ गई. दहेज़ की नई-नकोर साइकिल भी आ गई. आते ही कोठे में एक ओर रख कर ताला जड़ दिया गया. सदाफूली के पति को साइकिल चलानी आती न थी. यों वैसे भी वह बड़ा दब्बू सा था. पत्नी से उम्र में थोड़ा कम भी था और क़द-काठी में भी थोड़ा ओछा पड़ता था. पति जैसे तो सदाफूली में से दो बनते! फिर भी सदाफूली तो 'सदाफूली' ही थी न, आँचल का छोर मुंह में दबाकर हंसती ही तो रहती! सुबह-शाम बड़े जतन से साइकिल साफ़ करती, अपनी चोटी में बंधने वाले दो रंग-बिरंगे फुंदने, उसने साइकिल के हैंडल मैं दोनों ओर बाँध दिए थे. शरारती तो थी ही, आते-जाते उसकी घंटी ज़रूर बजा दिया करती. आवाज़ आते ही सास की डाट पड़ती," घंटी खराब हो जाएगी!" किन्तु वह हँसते-हँसते कहने से न चूकती," जब कोई चलाता ही नहीं तो खराब क्या होगा! कड़े-खड़े इस पर जंग और लग जाएगी!" पहले-पहल तो सास को लगा कि बहू उसकी तौहीन करती है फिर जब सदाफूली ने यह भी बताया कि वह तो साइकिल चलाना भी जानती है तो उसके सौ नाम धरे गए, " ये भी कोई भले घर की लड़कियों का काम है! हे राम , घर में बहू आई है कि मैम?" बहुत हाथ-पाँव पटके किन्तु सदाफूली को, ससुराल में, साइकिल चलाने को न मिली!


एक दिन उसका आदमी खेत से हांफता हुआ सा आया! उसे किसी सांप ने काट खाया था. अब सदाफूली ने किसी की न सुनी. पलभर में ही दुर्गा बन गई. उसे पता था कि साइकिल की चाभी किस खूंटी पर टंगी रहती है. उसे यह भी पता था कि घर से कुछ ही किलोमीटर दूर उस डॉक्टर दीदी का दवाखाना है जहां वह भाई की साइकिल पर चढ़ कर जाया करती थी. उसे डॉक्टर दीदी बहुत अच्छी लगतीं. खूब अच्छी बातें बतातीं. हर लड़की का हौसला बढ़ातीं. दीदी के बारे में सब जानते थे कि इन ग़रीब आदिवासियों के लिए ही तो वह जंगल में दवाखाना खोल कर बैठी थीं. दीदी ससुराल से भी लगभग उतनी ही दूरी पर थीं जितनी कि मायके से. सदाफूली ने एक पल भी न खोया . बिना किसी से भी पूछे, झपट्टा मारकर, खूँटी से चाभी उतारी, ताला खोला और इससे पहले कि उसकी सास उसे रोक पाए, अपने आदमी को लगभग गोद में उठा कर,आगे डंडे पर बिठाया और यह जा और वह जा. ..


उसे अनुभव था. वह साइकिल भगाती ले गई. आज वह कहीं नहीं गिरी, पति को थोड़ी-थोड़ी बेहोशी सी होने लगी थी, वह इधर-उधर झूल जाता. सदाफूली उसे अपनी दोनों बाहों से संभालती रही.



अस्पताल आ गया. पति को बिठाये हुए ही वह साइकिल से उतरी और साइकिल समेत ही तीन सीढियां चढ़ कर बरामदे में बैठे मरीजों की रोक-टोक की परवाह किये बग़ैर , साइकिल के अगले पहिये से डॉक्टर दीदी के कमरे का दरवाज़ा, धड़ाम से खोला औरअंदर घुस गयी. भगवान् जाने उसमें इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी!डॉक्टर किसी को देख रही थी, झिड़कना चाहा किन्तु तभी पहचान गई और उसकी बात सुनी, देखी और स्थिति की गंभीरता आंकी, साथ ही सदाफूली का साहस भी आंका, फलतः उसकी अआंखों में सदाफूली के लिए गर्व और ममता के आंसू उमड़ आये! वह तत्काल ही जुट गई, ज़हर उतर गया,; सांप अधिक ज़हरीला था ही नहीं किन्तु सांप का तो नाम ही काफी होता है, डराने के लिए. बहरहाल असर मामूली था, उसका आद्दमी ठीक हो गया. तब तक उसके परिवार सहित न जाने कितने गाँव वाले भी आ चुके थे. सभी सदाफूली के साहस को सराह रहे थे. उसकी तुरत-बुद्धि की तारीफ़ कर रहे थे किन्तु अब तक तो वह फिर से शर्माती, लजाती, हंसती-मुस्कुराती गाँव की नई बहू बन चुकी थी.सबकुछ ठीक हो जाने पर, वह, सबके सामने ही अपनी साइकिल पर चढ़ी और दृढ किन्तु धीमे स्वर में अपने आदमी से कहा," बैठो!"


पति ने वही किया. शेरनी की तरह वह साइकिल की सीट पर बैठी और चूहे की तरह पीछे कैरियर पर बैठा उसका आदमी. बिनाकिसी की भी ओर देखे उसने पैडल घुमा दिया! उसकी साइकिल हवा से बातें करने लगी. उसके द्वारा, उसकी साइकिल के हैंडल में दोनों ओर लगाए गए दो रंगबिरंगे फुंदने भी हवा से बातें करने लगे. उसके बालों की चोटी का लाल रिबन भी विजय पताका की तरह लहरा रहा था.


अब ससुराल तो क्या, सारे गांव में उसकी बात मानी जाने लगी, लड़कियों और औरतों को डॉक्टर दीदी की सीख बता-बता कर , उसने कई रूढ़ियों के बंधन खोले. ... गांव की महिलाओं का एक सकारात्मक गोल बन गया. ...


भगवान् ने जैसे सदाफूली के दिन फेरे ऐसे सब-सब के फेरे!!!

















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रेणु

रेणु

सदाफूली की ये शौर्यगाथा नारी शक्ति का बहुत ही सुंदर उदाहरण है | भले ही लड़कियों का साईकिल चलाना आज कोई महत्व ना रखता हो पर -- गांव देहात | के अविकसित समाज में आज भी ये एक कौतुहल सरीखा ही है - नायिका ने जिस बहादुरी से अपने पति की अनमोल जान बचाई वह प्रेरणा का विषय है | सबसे बढ़कर आपने जिस कौशल से इस प्रसंग को कहानी के रूप में पिरोया है -- वह प्रशंसनीय है | इस सुन्दर और रोचक कहानी के लिए आपको बधाई -- राघव जी |

2 मार्च 2017

रेणु

रेणु

बहुत प्रेरणादायक प्रसंग है --

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