बहुत दिनों पहले की बात है .तब जनाब ख़्वाजा अहमद अब्बास हयात थे. एक प्रसिद्द टैब्लॉइड 'ब्लिट्ज़' के हिंदी संस्करण में उनका एक स्तम्भ 'आख़िरी पन्ना' छपा करता था. एक बार उन्होंने लिखा कि जब वो छोटे थे तोअपने लिए दूध नहीं ख़रीद पाए क्योंकि जब उनकी जेब में 4 आने होते तो दूध 8 आने पाव होता और जब उनकी जेब में 8 आने हुए तो दूध 1 रुपए पाव हो गया. ग़रज़ है कि अपनी तंगहाली के दिनों में वो दूध पी ही न पाए! वो तब की बात थी, अब आज की बात!
केला कल तक ग़रीब का फल माना जाता था. मैं एक रेहड़ी से केले ख़रीद रहा था. सड़क के उस पार की एक निर्माणाधीन बिल्डिंग से एक ग़रीब मजदूरिन अपनी छोटे सी बच्ची का हाथ थामे सड़क पार कर उस रेहड़ी वाले की ओर आ रही थी. बच्ची 4-5 बरस की रही होगी. वो अपनी माँ को लगभग खींच कर रेहड़ी वाले की तरफ ला रही थी. उसकी चाल में अति-उत्साह, आँखों में न जाने कितनी चमक और गोल-मटोल चेहरे पर बड़ी अधीरता थी. उसे केला खाने की जल्दी थी. उसने माँ को को इशारा किया, माँ ने केले वाले की ओर देखा, वो किसी और को केला देने में व्यस्त था. उसकी कानों में वैसे भी माँ के ये बोल पड़ गए थे, ' एक केला देना!' एक केले में वो क्या दिलचस्पी दिखाता! झुँझला कर बोला, अरे दे रहा हूँ भाई, तुम ज़रा पीछे हो जाओ.' केले वाले को डर था, कहीं माँ-बेटी आँख बचाकर उसके केले न मार दें! माँ ने सहम कर स्वयं और बेटी को पीछे हटा लिया और मेरी और एक दृष्टि डाली. उस दृष्टि में क्या था, क्या बताऊँ! मानो उसकी आँखें कह रही हों, ' बाबु जी हम चोर नहीं हैं!'
तब तक मेरी बारी आई. मेरा मन वितृष्णा और ममता से एक साथ भर आया. बड़े उदास स्वर में मैंने कहा, 'पहले इन्हें दे दो!' बड़ी बदतमीज़ी से केलेवाला उस मजदूरिन से बोला, बोल, तूई बोल पैले! उसने अपनी फटी-पुरानी, मैली-कुचैली धोती की गाँठ से एक पचास पैसे का सिक्का निकाला और किसी तरह बोली, 'एक केला'! उसकी आवाज़ में थरथराहट थी, उससे अधिक संकोच और सबसे अधिक लज्जा का भाव. बोलने के साथ ही उसने नज़रें झुका लीं, फिर तिरछी निगाहों से उसे और मुझे देखने भी न पाई थी कि केले वाला गरज उठा, ' पचास पैसे में केला आता है क्या? ' औरत संकोच के मारे गड गई. किसी भी ओर न देख पाई, अपने खूँट से उसने पचास पैसे का सिक्का और निकाला और केले वाले की ऒर बिना नज़र मिलाए बढ़ा दिया. केले वाले ने हाथ झटक कर नफ़रत से कहा,'केला 2 रुपए का आता है अब, कुछ पता भी है ?'
औरत एक क्षण को जड़ हुई, फिर किसी भी ओर न देख , बच्ची को मानो एक झटके से गोद में उठायाऔर ये जा-वो जा, सड़क पार कर गई. उसकी बेटी सहमी हुई उसकी गोद में लगी थी और भयंकर ललचाई हुई आँखों से केलों की ओर देखे जा रही थी.
मैंने उन्हें केले नहीं दिलाये. मुझे लगा, यह माँ-बेटी के लिए ग़लत संस्कारों की शुरुआत होगी. मैं माँ का स्वाभिमान तोडना भी नहीं चाहता था और गलाना भी नहीं चाहता था.
पता नहीं मैंने पूण्य किया या पाप किन्तु एक माँ अपनी बेटी के लिए केला नहीं खरीद पाई!!!