बैरिक का लॉकअप होते ही जैसे समय थम सा गया। कल तक मुझे केवल अपनी ही परेशानियाँ दिखाई दे रही थीं, लेकिन अब ऐसा महसूस हो रहा है कि समाज के आईने पर जमी धूल धीरे-धीरे साफ होने लगी है। समाज में छिपे स्वार्थी तत्वों का असली चेहरा सामने आ रहा है। अब मुझे सिर्फ अपने घर की चिंताएँ नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के पीछे छिपी अनकही और अनसुनी दास्तानें समझ में आने लगी हैं।
राकेश की कहानी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। उसकी उम्र ही क्या है? एक बच्चा जो अपने सपनों के साथ बड़ा होता है और जैसे ही जवानी की दहलीज पर कदम रखता है, उसके सामने उसकी सारी उम्मीदें बिखर जाती हैं। ऐसा क्या हुआ कि उसकी जिंदगी में इतना बड़ा मोड़ आ गया?
भूरा भाई ने बताया कि यहाँ कुल पंद्रह लोग हैं, लेकिन क्या सभी अपराधी हैं? सजा तो पंद्रह लोगों को दी जा रही है, लेकिन असल में यह सजा उनके परिवारों को भी भुगतनी पड़ रही है। यदि इनमें से कोई एक भी निर्दोष है, तो सोचिए उस निर्दोष के परिवार पर क्या बीतेगी? शायद वे जीवन भर व्यवस्था पर भरोसा नहीं कर पाएँगे।
विद्यालयों में छात्रों के निर्माण के समय उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि उनमें राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रीय हितों की महत्ता, और आदर्शों के प्रति सम्मान की भावना जागृत की जाए। लेकिन यदि इन पंद्रह में से किसी एक के साथ भी अन्याय हुआ है, तो वह और उसका परिवार कभी भी उन उद्देश्यों को अपने दिल में जगह नहीं दे पाएगा। उनके लिए शायद न्याय और व्यवस्था का कोई मूल्य नहीं बचेगा।
यह विचार मेरे मन में गहराई से बैठ गया है कि जेल में बंद सिर्फ व्यक्ति नहीं होते, बल्कि उनके साथ उनके सपने, उनका भविष्य और उनके परिवार भी इस कैद का बोझ उठाते हैं।
हर दिन जेल की दीवारों के भीतर बिताए हुए समय ने मुझे जीवन का नया दृष्टिकोण दिया है। मेरे अनुभव और सोचे-समझे विचार अब गहरे चिंतन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। अपराध और न्याय पर मेरी सोच अब पहले से कहीं ज्यादा साफ हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि मैं कोई कायर, कमजोर या भीरु व्यक्ति हूँ, जो अन्याय को चुपचाप सह ले। पर आज मैं ऐसी स्थिति में हूँ जहाँ इंसान के पास कोई रास्ता नहीं बचता। उसकी अच्छाइयाँ और सच्चाईयाँ तब बेमानी हो जाती हैं जब उसके बदले में समाज उसे और उसके परिवार को सिर्फ कष्ट ही देता है।
जब व्यक्ति न्याय की उम्मीद से व्यवस्था का सहारा लेता है और वहाँ से भी निराश होता है, तब उसका दिल टूट जाता है। ऐसी परिस्थिति में अक्सर लोग दो रास्तों में से एक चुनते हैं—कमजोर व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है, जबकि उग्र विचारों वाला व्यक्ति हत्या करने से भी नहीं हिचकिचाता। लेकिन मैंने इन दोनों रास्तों से अलग रहने का निर्णय लिया है।
मैं रामचरितमानस से मिली मर्यादा और सहनशीलता से परिचित हूँ, जो हमें सिखाती है कि समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सहनशील रहना आवश्यक है। साथ ही, श्रीकृष्ण के भगवद गीता के ज्ञान से भी मेरा परिचय है, जो हमें सिखाती है कि अन्याय को सिर्फ नियति मानकर चुपचाप सहना उचित नहीं है। जितना दोषी अन्याय करने वाला होता है, उतना ही दोषी वह भी होता है जो अन्याय को सहता है।
कर्म के आधार पर मैं एक ब्राह्मण हूँ, जो धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने में विश्वास करता है। साथ ही, क्षत्रिय के गुण भी मुझमें हैं, जो मुझे यह साहस देते हैं कि यदि मैं चाहूँ तो अपने साथ हुए अन्याय का बदला ले सकता हूँ। परंतु मेरी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि जितनी नफरत मुझे इस दुनिया के स्वार्थी लोगों से है, उससे कहीं अधिक प्रेम मैं अपने परिवार और समाज से करता हूँ। मैं ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहता जिससे उन्हें कोई हानि पहुँचे। यही कारण है कि मेरी सहनशीलता बनी हुई है।
मैं समझ चुका हूँ कि समाज में जितने भी अपराध होते हैं, उनके पीछे कहीं न कहीं समाज के भीतर छिपे स्वार्थी तत्वों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान होता है। ये अपराधी समाज के लिए उतने खतरनाक नहीं होते, जितना कि उन स्वार्थी तत्वों का होना जो समाज की जड़ों में छिपे रहते हैं। मेरी इन विपरीत परिस्थितियों ने मुझे यह सिखाया है कि असली बुराई वह नहीं जो हमें दिखती है, बल्कि वह जो समाज की जड़ों में गहरे छिपी होती है।
अपराध एक बड़े पेड़ की तरह है, जो जब बढ़ता है तो सबकी नजर में आ जाता है। समाज और व्यवस्था उस पेड़ को काटने की कोशिश करते हैं, ताकि बुराई खत्म हो जाए। पेड़ काटने से समाज को थोड़ी राहत जरूर मिलती है, क्योंकि समाज को लगता है कि समस्या खत्म हो गई है। लेकिन असल समस्या पेड़ की जड़ों में होती है, जो जमीन के भीतर गहराई तक फैली होती हैं। जब तक ये जड़ें नष्ट नहीं होतीं, तब तक बुराई फिर से जन्म लेती रहती है।
रावण के दस सिरों को काटकर उसका अंत नहीं हुआ था। भगवान राम ने एक-एक करके उसके सारे सिर काटे, पर अंत में उन्होंने समझा कि रावण की जड़ उसकी नाभि में है। जब उस पर प्रहार किया गया, तभी उसका अंत हुआ। यही बात समाज की बुराइयों पर भी लागू होती है। जब तक हम बुराई की जड़ पर प्रहार नहीं करेंगे, तब तक यह समाप्त नहीं होगी।
हमारी भारतीय संस्कृति में ऐसे ढेरों अनुभव भरे पड़े हैं। हमारा संविधान, हमारी व्यवस्थाएँ और हमारे आदर्श सब उच्च कोटि के हैं। लेकिन चाहे व्यवस्थाएँ कितनी भी अच्छी क्यों न हों, उनकी सफलता इस पर निर्भर करती है कि उन्हें चलाने वाले लोग किस नजरिए से काम कर रहे हैं। अगर वे समाज के हित को ध्यान में रखकर काम करेंगे, तो व्यवस्था सफल होगी, पर अगर स्वार्थी तत्व इसमें घुसपैठ करेंगे, तो समाज की जड़ें कमजोर हो जाएँगी।
इसलिए असली लड़ाई उन जड़ों के खिलाफ है जो हमें नजर नहीं आतीं, लेकिन समाज को अंदर से खोखला कर रही हैं। जब तक हम इन जड़ों पर प्रहार नहीं करेंगे, तब तक समाज में कोई असली बदलाव नहीं आ सकता ।