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**"टूटती उम्मीदें और संघर्ष की डोर"**

11 अक्टूबर 2024

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😞😞😞Injustice😞😞😞

आज मेरी बोर्ड परीक्षा में ड्यूटी थी। कक्षा 10 की वार्षिक परीक्षाएं प्रारंभ हो चुकी थीं। मैं प्रातः शीघ्र ही तैयार होकर केंद्र पर पहुंचा। बच्चे अपने अनुक्रमांक देखकर परीक्षा कक्ष में पहुंच रहे थे। सभी शिक्षक-शिक्षिकाएं समय से पहले ही आ चुके थे।

मुझे परीक्षा सम्बन्धी प्रपत्र टाइप करने का कार्य सौंपा गया था। मेरी ड्यूटी रिलीवर में लगाई गई थी। सभी कक्षाओं में कॉपियों और प्रश्न-पत्रों का वितरण करवाना मेरा दायित्व था। परीक्षा प्रारंभ हो चुकी थी, और मैं अपने कार्य में व्यस्त था।

एक कक्ष के पास जाते समय द्विवेदी जी ने मुझे रोका। वे कक्ष में ड्यूटी दे रहे थे। उन्होंने पूछा, "प्रशांत, क्या चल रहा है?" मैंने कहा, "पंडित जी, सब ठीक है।" वे ज्योतिष शास्त्र के जानकार थे। उन्होंने मुझे देखकर कहा, "कन्या राशि है ना तुम्हारी?" मैंने कहा, "हाँ।"
अपनी उंगलियों पर कुछ गणना करने के बाद उन्होंने कहा, "अभी तो तुम्हारा समय बहुत अच्छा चल रहा है। अभी सम्पति और वाहन खरीदने का योग भी है।" मैंने कहा, "वाहन और सम्पति तो अभी क्रय किए हैं। यह आपको किसी ने बता दिया। आप तो भविष्य बताइए।"

द्विवेदी जी ने अपनी उंगलियों पर गणना कर कहा, "अभी थोड़ा समय गलत आ रहा है। जनवरी से तुम्हारी चिंताएं बढ़ रही हैं।" उनकी ये बात सुनकर मुझे थोड़ी घबराहट हुई। मैंने पूछा, "समय कब तक खराब चलेगा? ये ओर बता दीजिये।"
उन्होंने आश्वस्त किया, "अप्रैल-मई से सही समय आ जाएगा।" परीक्षा समाप्त होने के बाद, मैं अगले दिन का अवकाश लेकर अपने घर आ गया। मेरे दिमाग में पंडित जी की बातें ही चल रही थीं।

अगले दिन मुझे भोपाल जाना था, जहां मेरी पत्नी प्रिया एक दिन पहले ही चली गई थी। हम दोनों साथ जाने वाले थे, लेकिन बड़े मामा को भी साथ ले जाना था। बाइक पर तीन लोग जा नहीं सकते थे, इसलिए मैंने प्रिया को बस से रविवार को ही भेज दिया था।

वह भी दो-तीन दिन अपनी मां और बहन से मिल लेगी। मेरे साथ तो आना-जाना ही रह जाएगा। अब मैं अपनी यात्रा के लिए तैयार हो रहा था, लेकिन द्विवेदी जी की भविष्यवाणी मेरे मन में चिंता पैदा कर रही थी।

मंगलवार का दिन था, एकादशी का अवसर था। मैंने अपने नित्यकर्मों से निपटकर जल्दी तैयार हुआ। माँ से पूछा, "बड़ा मामा आया की नहीं, जाना है?" माँ ने कहा, "9 बजे तक आ जाएगा।"
थोड़ी देर बाद मामा आ गए। मैंने पूछा, "कागजात रख लिए?" मामा ने कहा, "क्या क्या रखना है?" मैंने बताया, "जमीन की पट्टी, आधार कार्ड, फोटो।" मामा ने कहा, "सब रख लिए हैं।"

माँ ने जाते समय कहा, "संभल कर जाना, ग्यारस माता सब ठीक करेगी।" माँ से आज्ञा लेकर मैं मामा को लेकर भोपाल के लिए रवाना हुआ। मेरे मन में अभी भी पंडित जी की भविष्यवाणी की चिंता बनी हुई थी, लेकिन मैं आगे बढ़ने के लिए तैयार था।
हम दोनों अदालत पहुंचे, जहाँ प्रिया अपनी माँ और बहन अवनी के साथ पहले से ही मौजूद थीं। आज केस का निर्णय होना था, जो पिछले छह साल से चल रहा था। पिछली पेशी पर हम दोनों पति-पत्नी नहीं आए थे, इसलिए वकील साहब ने कहा था कि अगली पेशी पर निर्णय होना है और सभी को आना है। एक जमानतदार की भी आवश्यकता पड़ेगी, इसलिए मैंने मामा को साथ लाया था।
प्रातः 11 बजे हम सभी कोर्ट रूम में पहुंच गए। हमारे साथ मानसी, मेरी 14 साल की दिव्यांग बेटी, भी थी, जो डाउन सिंड्रोम से पीड़ित है। वह सामान्य बच्चों की तरह नहीं है और बोल भी नहीं पाती है। वह अपनी माँ के साथ बैठी हुई थी, अनजान उस घटना के बारे में जिसके लिए हम अदालत में थे।

प्रिया का भाई महेन्द्र 6 साल से जेल में बंद था। थोड़े समय बाद वकील साहब आए और हमने केस के सिलसिले में बात की। वकील साहब ने कहा, "आप चिंता न करें, आप सभी बरी हैं। बस महेन्द्र को समस्या आ सकती है, क्योंकि वह घटना के समय मौजूद था। आपकी शादी को तो 14 साल हो गए हैं। आप तो सिर्फ फंसाए गए हैं। आपने तो किसी को मारा नहीं है।"

वकील साहब की बात सुनकर हम निश्चिंत हो गए। मैं एक शिक्षक हूँ, यदि में  हि न्याय प्रणाली पर भरोसा नही  करूंगा , तो कौन करेगा? जीवन में कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि थाने जाना पड़े। पढ़े-लिखे लोग अदालत में थे, और यह कोई खाप पंचायत नहीं थी। जिससे भी पूछा, उसने यही कहा, "आप बरी हो जाएंगे।" पर भय तो था।

प्रिया की घबराहट मुझे दिखाई दे रही थी। वह मुझसे पूछती है, "कुछ गलत तो नहीं होगा?" मैंने उसे समझाया, "ईश्वर पर भरोसा रखो, जब हम गलत नहीं हैं तो ईश्वर हमारे साथ कुछ गलत भी नहीं होने देगा।"

मैं प्रिया, अवनी और सासू माँ को भरोसा दिला रहा था, लेकिन मेरे ससुराल वाले शर्मिंदा थे। मैंने उन्हें समझाया, "आप लोगों का कोई कसूर नहीं है। ईर्ष्या और द्वेष से भरे लोग यही चाहते हैं कि किसी भी तरह इनके आपसी सम्बन्ध खराब हो जाए। मैं इन बातों को अच्छी तरह समझता हूँ।"

प्रिया ने फिर कहा, मानसी के सर पर हाथ फेरते हुए, "कुछ गलत हो गया तो? मानसी को कौन देखेगा?" मानसी इन सब बातों से अनजान हमें देखकर मुस्कुरा रही थी। और हमारा सभी का ध्यान उसकी तरफ था।

मैंने कहा, "ईश्वर सब देखता है, कुछ नहीं होगा, हमने किसी का बुरा नहीं किया है।" प्रिया ने कहा, "है ईश्वर, मेरे पति को कुछ ना हो बस, भले ही मुझे उठा लेना।" मेरी भी घबराहट बढ़ रही थी।
अवनी ने कहा, "जीजा जी, अगर कुछ गलत हुआ तो मैं भी मर जाऊंगी।" मैंने अवनी से कहा, "एक बात बताओ, हमने किसी के साथ कुछ भी गलत किया है? कभी उसने कहा - नहीं, पर उन्होंने तो कितना झूठ बोला है।"

मैंने कहा, "झूठ उन्होंने बोला, गलत उन्होंने किया, तो हम क्यों डर रहे हैं? कम से कम ईश्वर पर तो विश्वास करो। कुछ नहीं होगा हमें।"
उस समय मानसी की मुस्कान हमारा ध्यान भटकाये हुई थी। हमें पता था कि हमने कुछ गलत नहीं किया है, और ईश्वर हमारे साथ है।

कोर्ट रूम के अंदर किसी मुक़दमे की बहस चल रही है । हम सभी को बाहर बैठे हुए दोपहर के 3 बज  गये । मानसी बार बार अपनी भाषा में घर चलने का इशारा कर रही है ।

धीरे-धीरे समय गुजर रहा था, शाम के 5 बजे हुए थे तभी अचानक 2 पुलिस वाले हथकड़ियों में महेन्द्र को लाए। वकील साहब भी आ गए। सभी को कोर्ट रूम में बुलाया गया। हम सभी कटघरे में खड़े थे। जज मैडम अपने स्थान पर बैठी हुई थीं, निर्णय का समय आ चुका था।

जज मैडम ने फैसला सुनाया, "आप सभी को धारा 498 एवं 34 में बरी किया जाता है और धारा 304(B) के अंतर्गत दोषी मानते हुए सभी को 10-10 वर्ष का सश्रम कारवास और 1000 रुपये जुर्माना की सजा सुनाई जाती है!"

एक मिनट के लिए कोर्ट रूम में सन्नाटा सा छा गया। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। क्या हुआ? तभी वकील साहब बोले, "मैडम, पांचों को!" जज मैडम ने कहा, "हाँ, पांचों को!"

मैने प्रिया की आँखों में देखा, और पूछा क्या हुआ , प्रिया की आँखों में आँशु देखकर मेरी घबराहट बढ़ गई ।

तभी, मैं कटघरे से बाहर आकर जज मैडम से प्रार्थना करता हूँ, "मैडम, मेरे दो छोटे - छोटे बच्चे हैं और मेरी बच्ची विकलांग है। मेरी शादी हुए 14 साल हो गए। दहेज में मेरी पत्नी से मांगूगा? या साले की पत्नी से?" जज मैडम ने सिर्फ हाथ से मुझे ले जाने का इशारा किया

पुलिस वाले मेरे हाथों में हथकड़ियां लगा रहे थे, जैसे मेरी आजादी को जकड़ लिया गया था। प्रिया, अवनी, और मम्मी सभी रो रहे थे, उनके आंसू मेरे दिल को छलनी कर रहे थे। मुझसे कागजात पर दस्तखत लिए गए, मेरे लड़खड़ाते हाथों से हस्ताक्षर करता हूँ, जैसे मेरी जिंदगी के पन्ने पलट रहे थे।

अचानक से इतना बड़ा तूफान आया और एक पल में सब कुछ तहस-नहस हो गया। मानसी और मामा दोनों मुझे देख रहे थे, उनकी नज़रें मेरे दिल को चुभ रही थीं। क्या बोलू? ईश्वर, क्या हो गया मेरे साथ? ऐसा क्यों हुआ? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है? ये सवाल मेरे दिमाग में गूंथ रहे थे।

मानसी को देखने की मेरी इच्छा थी, लेकिन मेरी नज़रें उसे देख नहीं पा रही थीं। मानसी मुझे पकड़े हुए थी, बार-बार मुझे अपनी तोतली भाषा में बोल रही थी, "पापा तलो..."। उसकी मासूमियत मेरे दिल को चीर रही थी, लेकिन मैं उसे समझा नहीं पा रहा था कि अब उसके सामने कितनी बड़ी मुसीबत आ चुकी है।

मेरे मन में एक अज्ञात भय था, और मैं अपने परिवार के भविष्य के बारे में सोच रहा था। तभी मैंने बेसुध हालत में अपने छोटे मामा को कॉल किया, मुझे मालूम था कि वे ही मेरे बाद मेरे बच्चों और माँ को संभाल सकते हैं।

मामा ने फोन उठाया, "हैलो!"

मैंने कहा, "सब कुछ खत्म हो गया..."

मामा की आवाज में घबराहट थी, "क्या हुआ?"

मैंने कहा, "सजा हो गई है..."

मामा ने पूछा, "कितनी?"

मैंने कहा, "दस साल की..."

मामा ने फिर पूछा, "किस-किस को?"

मैंने कहा, "सभी को..."

मामा की आवाज में आश्वासन था, "घबरा मत, मैं आ रहा हूँ..."

बस इतनी बात कर , मैंने फोन काट दिया, मेरी आँखें भर गईं थीं। मानसी अभी भी मुझे पकड़े हुए थी, और मैं उसे देखकर मुस्कुरा नहीं पा रहा था।

बड़े मामा बाहर खड़े थे, उनकी आँखें मेरी ओर ताक रही थीं। जैसे ही मैं बाहर आया, मेरी हालात देखकर वो समझ गये कि मेरी जिंदगी का सबसे असहनीय समय है।

मैंने मानसी का हाथ झटके से छुड़ाकर उन्हें दिया, और सिर्फ इतना कहा, "सभी का ध्यान रखना।" मेरी आवाज में दर्द और आशंका थी। वो बूत बने हुए देख रहे थे, उनकी आँखें मेरी ओर ताक रही थीं।

पुलिस वालों ने मेरी हथकड़ियाँ खींची और मैं उनके साथ चल दिया, जैसे मेरी आजादी को जकड़ लिया गया था। मेरे पीछे मानसी की तोतली आवाज गूंथ रही थी, "पापा , ओ पापा..", लेकिन मैं उसे देख नहीं पाया, मेरी आँखें भर गईं थीं।

बड़े मामा की आँखें भी भर गईं थीं, वो मानसी को गले लगाकर खड़े थे, जैसे वो मुझे आश्वस्त कर रहे हों कि वो मेरे परिवार का ध्यान रखेंगे। लेकिन मेरे मन में एक अज्ञात भय था, कि क्या होगा अब? क्या मेरे परिवार का भविष्य सुरक्षित है?

अदालत के प्रथम तल  से हमे नीचे  के तल  पर ले जाया जाता है । जहाँ सजा पड़ने के बाद कैदियों  को थोड़े समय रख कर कागजी कार्यवाही की जाती है । महेन्द्र मेरे साथ था । महिलाओ को पास के कमरे में रखा जाता है । वही एक चैनल गेट  लगा हुआ है ।
थोड़े समय बाद मानसी की आवाज मुझे कमरे में सुनाई देती है । पापा आओ, मम्मी आओ । मै फ़ौरन बाहर देखता हु । जीवन मै कभी स्वयं को इतना कमजोर और असहाय नही समझा पर इस समय मेरे धैर्य और विवेक की कठिन परीक्षा थी। पर मेरे  हृदय मे करुणा के आंसू  का जलजला सा आया हुआ है। ईश्वर से बस एक उम्मीद कर रहा था की किसी तरह मेरे प्राण निकल जाये ।

करीब एक घंटे हम अदालत के सेल में रहे, जहाँ सजा के बाद कैदियों को रखा जाता है। यह समय मेरे जीवन का सबसे कठिन और भयानक समय था, जब मेरा मन घर की यादों में खो गया था। मेरे जीवन में आया जलजला मेरे घर पर भी आ चुका था, और मुझे माँ की चिंता हो रही थी। अदालत के फैसले ने मेरी जिंदगी के साथ-साथ मेरी माँ की वर्षों की तपस्या को भी ध्वस्त कर दिया था।

मेरे मन में एक अज्ञात भय था कि मम्मी इस परिस्थिति को कैसे झेल पाएंगी। मुझे पुलिस और न्यायिक व्यवस्था जिन्हें मैं देश की रीढ़ मानता था, अब खोखली और स्वार्थी लोगों की हाथों की कठपुतली नजर आ रही है। सरकारी तंत्र पर मेरी आस्था चकना चूर हो चुकी है, और लोकतंत्र का मुखौटा लगाए तानाशाह प्रवृत्ति के लोग अपनी तानाशाही कर रहे हैं।

इस समय मेरे मन में चलने वाले विचार किसी परमाणु बम से कम नहीं थे, जिनसे स्वयं को बचाना मेरे लिए कठिन था। तभी मुझे कमरे से बाहर बुलाया गया, कुछ कागजों पर हस्ताक्षर और हाथों के फिंगरप्रिंट लेने के लिए। प्रिया का रुदन सुनाई दे रहा था, मानसी मुझे चैनल गेट पर देखकर "पापा, ओ पापा" चिल्लाने लगती है, पर मुझमें हिम्मत नहीं थी उसे देखने की।

एक कर्मचारी मुझसे फिंगरप्रिंट लेते हुए पूछता है, "क्यों सरकारी नौकरी में थे?" मैंने कहा, "हां।" फिर वह हँसते हुए पूछता है, "अब क्या होगा तुम्हारा?" मैंने परिस्थिति को संभालते हुए कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि वह मुझसे आधी उम्र का था। मुझे मालूम है कि अभी इसे जीवन का अनुभव और परिस्थितियों की पहचान नहीं है।

जिस व्यवस्था का मैं शिकार हुआ हूँ, वह मेरे अन्याय को अपना मनोरंजन समझ रहा है। मेरे धैर्य, विवेक, सहनशीलता की कठिन परीक्षा हो रही है।

शाम ६ बजे हमें एक वाहन से अगले स्थान पर ले जाया गया। रास्ते में हॉस्पिटल में मेरा मेडिकल चेकअप हुआ, मेरा BP १५०-१८० था। डॉक्टर साहब ने कहा, "ऐसे समय पर यह सामान्य है, घबराने की जरूरत नहीं।" वहाँ से जेल के लिए रवाना हुए।

रास्ते में प्रिया ने कहा, "सब ठीक होगा, ईश्वर हमारे साथ कुछ गलत नहीं होने देगा।" मेरे लिए यह अनुभव नए थे, सीधे सेंट्रल जेल जा रहे थे। जेल में एक बड़े लाल गेट के अंदर दाखिल हुए, दूसरा बड़ा लाल गेट २५-३० फीट दूर था। बीच में मुझे नीचे बैठने को कहा गया। मेरे लिए इस समय स्वयं को नकारात्मक विचारों से बचाना बड़ा मुश्किल था । क्योकि ये विचार ही मेरी जीवन लीला को समाप्त करने के लिए काफी थे । मेरे समक्ष आत्महत्या कर अलावा दूसरा रास्ता दिखाई नही दे रहा था।

प्रिया, अवनी और सासु माँ साथ थे, उन्हें अलग महिला वार्ड में ले जाया गया। महेंद्र को भी अंदर ले जाया गया। मेरी नज़रें आत्मसमाप्ति के तरीके ढूंढ रही थीं। जेल के अंदर कई दरवाजों से होकर बंदी वार्ड के बैरिक ८ में पहुँचा, जहाँ ३७ बंदियों का लॉक अप था।

मुझे चार कम्बल और दो चादर देकर एक बंदी ने सोने का इशारा किया। मेरे दिमाग में सिर्फ एक बात थी, "सब दुनिया भूल चुका हूँ, न्याय की उम्मीद पूरी तरह से खत्म हो चुकी है।" लेकिन ईश्वर पर विश्वास रखने का प्रयास जारी था।

रात भर आत्महत्या के विचार ने मुझे घेर लिया,क्योकि मेरे साथ जो घटित हुआ , उससे इस दुनिया को कोई फर्क नही पड़ने वाला लेकिन मेरे बच्चों का माँ का ख्याल मुझे रोक रहा था। । मेरे साथ अन्याय करने वाले सूकून से मेरे हँसते खेलते परिवार में आग लगा कर सो रहे है । मुझे किसी भी परिस्थिति में अपने परिवार की आशाओ को बनाये रखना है । बस यही मेरे बस में है । आत्महत्या कर समाज की सहानुभूति तो मिल जाएगी । पर मेरे परिवार की आशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी।

तभी मानसी का चेहरा मेरे सामने आया, माँ और अथर्व (मेरा पुत्र)। मुझे याद आया कि माँ ने मेरे लिए जीवन भर संघर्षदनया है, उनका मेरे बाद क्या होगा? आत्महत्या के बाद तो उनकी उम्मीद खत्म हो जाएगी, लेकिन जीवित रहता हूँ तो उम्मीद रहेगी।

परिवार और माँ को याद करते हुए मनोज मुन्तसीर की रचना दिमाग़ मे चलने लगती है ।

"बहुत मसरूफ थे , तुम घर, दफ्तर, कारोबार और सबसे फुर्सत मिली तो दोस्त यार।

जिंदगी पहियो पर भाग रही थी। ठहरकर ये सोचना मुश्किल था , की माँ रोज तुम्हारे इंतज़ार मे जाग रही थी ।

जब वो तुमसे कुछ कहना चाहती थी । तुम अपनी हि दुनिया मे कही गुम थे।

माँ की आख़री ख्वाहिश तो पता नही मेरे दोस्त, पर उसकी आख़री उम्मीद तुम थे ।"

बैरिक के कैदियों के लिए मै आकर्षण का केंद्र था । पर मेरा मन मेरे परिवार के बारे में सोच रहा था । सोचते -सोचते आँख लग जाती है।

सुबह के ५:३० बजे जेल के लाउडस्पीकर की आवाज़ सुनाई देती है । " बंदी नगरी , अपने अपने बिस्तर से उठ जाये। " मै नींद से जागता हु। सभी बंदी अपने बिस्तर से उठकर जेल की ड्रेस पहन रहे है । जेल की दिनचर्या से अपरिचित मै इंतज़ार कर था । तभी एक बंदी मुझे बाहर चलने का इशारा किया । मै उसके पीछे पीछे चल देता हु

मैदान में बंदी प्रार्थना के लिए कतारो में खड़े है । मै भी एक कतार में खड़ा हो जाता हु। लाउडस्पीकर पर प्रार्थना शुरु होती है। सबसे पहले राष्ट्रगीत , ए मालिक तेरे बन्दे हम , और अंत में मध्यप्रदेश गान ।

सूर्योदय का समय था । पर मेरे जीवन के अंधकार की शुरुआत थी । मुझे बंदी वार्ड के चक्कर साहब के पास मुआयने के लिए ले जाया गया । जहाँ मुझे खादी की एक जोड़ी ड्रेस, एक प्लास्टिक का मग , थाली ,बाल्टी दी गई ।

बैरक में आने के बाद परिवार की चिंताएं घेर लेती है । घंटे भर सोचने के बाद फैसला करता हु , मुझे जीना है , अपने परिवार के लिए ।इस कठिन समय में सबसे पहले मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना जरूरी है । तभी नाश्ते की आवाज़ लगती है । मै अपनी चिंताओ को बंद कर । अपना प्लास्टिक का मग लेकर नाश्ता लेता हु । नाश्ते में दलिया था । आहार लेने के बाद बैरेक के बाहर मैदान में निकल गया ।

सभी बंदियों के लिए मैं आकर्षण केंद्र था। वे मेरे बारे में जानना चाहते थे, लेकिन शायद वे मेरी स्थिति को भांपकर मुझसे कुछ नहीं पूछ रहे थे।

तभी एक बंदी मेरे पास आया, जिसकी उम्र लगभग ३५ वर्ष थी। उसने मुझसे कहा, "सब ठीक हो जाएगा।"

फिर उसने पूछा, "किस केस में आये हो?"

मैंने कहा, "३०४ बी।"

उसने पूछा, "कितनी सजा है?"

मैंने कहा, "१० साल।"

उसने आगे पूछा, "तुम्हारी पत्नी ने आत्महत्या की?"

मैंने कहा, "नहीं, मेरे साले की पत्नी ने।"

बंदी ने पूछा, "तुम कहाँ रहते थे?" मैंने कहा, "अपने घर पर।"

बंदी ने पूछा, "क्या मौके पर थे?"

मैंने कहा, "नहीं।"

बंदी ने पूछा, "सुसाइड नोट में लिखकर गई होगी?"

मैंने कहा, "नहीं।"

बंदी ने पूछा, "जज ने किस आधार पर सजा दे दी?"

मैंने रोते हुए कहा, "मुझे नहीं पता।"

इस बीच और भी बंदी मेरे पास आ गए थे। मेरी बात सुनकर वे सभी अचंभित थे और मुझे आश्वासन दे रहे थे कि मैं जल्द ही बाहर आ जाऊंगा। लेकिन मुझे अब विश्वास नहीं था कि मैं बाहर आ पाऊंगा।

मुझे लग रहा था कि ये बंदी मेरे मन को दिलासा देने के लिए ये सब बातें कह रहे हैं। मेरी कहानी बंदी वार्ड में आग की तरह फैल चुकी थी। सभी इस घटना से अचंभित थे।

तभी मुझे अहसास हुआ कि लोगों की सांत्वना मेरे साथ है, मेरे साथ गलत हुआ है। इसे समझने में किसी को देर नहीं लगी। मैं जानता था कि मेरा परिवार, मेरे रिश्तेदार, मेरे गाँव और कार्यस्थल के लोग, जिस तरह से मुझ पर केस बनाया गया है, जिन झूठे कथनों के आधार पर मुझे सजा दी गई है, कोई इस पर विश्वास नहीं करेगा। बल्कि मेरे ऊपर की गई कार्यवाही समाज की नजरों में न्यायिक प्रणाली की छवि को धूमिल कर रही है।

इस वक़्त मुझे एक उम्मीद की दरकार थी। सजा प्राप्त सभी बंदियों को मुआयने के लिए अष्टकोंन पर इकट्ठा किया गया। महेन्द्र हवालाती वार्ड में मुझसे अलग था, लेकिन मुआयने के समय उसे भी बुलाया गया। हम दोनो साथ थे। नये बंदी एक कतार में खड़े हुए थे। तभी सी.ओ. (पुराना बंदी), सभी को चलने को कहता है।

सभी बंदी कतारो में खड़े है । एक एक कर सबका नंबर आ रहा है । अपराधियों से पूछताछ की जा रही है । और पुराने बंदी , अपराध के आधार पर चप्पल से मार रहे थे । किसी किसी बंदी को 8-10 चप्पले पड़ रही थी तो किसी को एक दो , महेन्द्र को दो भी दो चप्पले पड़ती है ।

मेरा नंबर आने वाला था । मेरे सभी शिक्षकों का प्रिय विद्यार्थी जिसकी मासूमियत के कारण कभी किसी शिक्षक से मार ना पड़ी हो , आज घोर अपमानित होने की परिस्थिति में फंस चुका है। मेरा नंबर आता है। दो बंदी मेरे हाथो को पकड़कर जेलर साहब के सामने पेश करते है ।

जेलर साहब: तुम्हारी धारा क्या है?

मैं: ३०४ बी, सर।

जेलर साहब: सजा कितनी है?

मैं: १० वर्ष, सर।

जेलर साहब: किसने सुसाइड किया था?

मैं: साले की घरवाली ने, सर।

जेलर साहब: तुम यहीं रहते थे?

मैं: नहीं, सर।

जेलर साहब: तुम्हें सजा क्यों हुई?

मैं: पता नहीं, सर। लेकिन मैं उस घर का दामाद हूं। मुझे लगता है कि ईर्ष्या की वजह से मुझे सजा हुई है।

बंदी मुझे मारने के लिए चप्पल उठाता है , तभी जेलर साहब हाथो का इशारा कर रोक देते है ।

जेलर साहब: क्या करते थे?

मैं: शिक्षक था, सर।

जेलर साहब: चिंता मत करो, जमानत लगवाओ। तुम्हें जल्द जमानत मिल जाएगी।

जेलर साहब की बात सुनकर मेरे मन में न्याय की एक उम्मीद जागी, जो पहले मुझे निराशा से भर दिया गया था। महेन्द्र ने भी मुझे यही बात बोली थी, पर मुझे विश्वास नहीं हुआ था। लेकिन अब मुझे लग रहा था कि शायद मेरी सजा में कुछ गलती हो गई है।

मुलाक़ात की घड़ी आ गई थी। मेरा हृदय मेरे घरवालों को देखने के लिए तरस रहा था। मैंने मन में संकल्प किया कि अपने आंसुओं को रोके रखना है।

मुलाक़ात की खिड़की पर ले जाया गया। लोहे की सलाखों के साथ कांच से बनी खिड़कियां थीं। जिसमें दोनों तरफ फोन रखे थे। मानसी, मेरी माँ, मौसी, मौसाजी, मामा सभी खिड़की के बाहर थे।

माँ को देखते ही मेरी आँखे आँसुओ से भर जाती है। सबसे पहले फोन उठाकर माँ से रोते हुए बात की।

मम्मी ठीक हो? माँ रो पड़ती है। मैंने कहा, मम्मी मेरी चिंता मत करना, कम से कम मैं ज़िंदा तो हूँ। १० साल बाद तो आऊंगा।

मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही थी । एक एक शब्द बोलना मेरे लिए भारी था।

माँ ने कहा, बेटा चिंता मत कर, सब तेरे साथ है। तू बहुत जल्द बाहर आ जाएगा, बस तू अपना ख्याल रखना। तूने खाना खाया की नहीं? मैंने कहा, मुझे कुछ नहीं होगा, मैंने सुबह नाश्ता भी किया और खाना भी खाया है। बस तुम अपना ध्यान रखना। अगर तुम्हें कुछ हो गया तो वैसे ही मर जाऊंगा। मानसी का और अथर्व का ध्यान रखना।

तभी छोटे मामा फोन ले लेते हैं। मामा ने कहा, चिंता मत करना। मेरी वकील से बात हो गई है। मैं अभी यहाँ से अदालत जा रहा हूँ। जल्दी ही तुम बाहर आ जाओगे।

मैंने कहा, ठीक है, जो तुम्हें ठीक लगे वो करना। बस यदि मैं बाहर नहीं आ पाता हूँ तो मम्मी का और बच्चों का ध्यान रखना। मेरी चिंता बिल्कुल मत करना। मुझे कुछ नहीं होगा। और मुलाक़ात पर माँ को और बच्चों को मत लाना। मैं इन्हें इस हालात में नहीं देख पाऊंगा।

मुलाक़ात का समय आधे घंटे का था, पर मैं अपने घरवालों को असहाय स्थिति में देख नहीं पा रहा था। सभी ने आश्वासन दिया। और १० मिनट पहले ही मैंने बात ख़त्म कर उन्हें जाने का बोल दिया।

लड़खड़ाते हुए अपने वार्ड में वापस आ गया। मेरा हृदय भरा हुआ था। अपने परिवार की चिंताओं के बारे में सोच सोच कर। कहीं ना कहीं अभी भी आत्महत्या का विचार मेरे मन में गहरा रहा था।

इस समय मेरे जीवन में प्राप्त ज्ञान का विलोप हो चुका है । न्यायप्रणाली से मेरा विश्वास टूट गया था । अब सिर्फ ईश्वर से न्याय की उम्मीद थी ।

वाचनालय में प्रवेश करते हुए, मैं अपने भीतर चल रहे नकारात्मक विचारों से बचने के लिए एक सकारात्मक पुस्तक की तलाश कर रहा था। तभी मेरी नजर **राजा हरिश्चंद्र** की कथा पर पड़ी। पहले भी मैंने इस कहानी को पढ़ा था, लेकिन उस वक्त यह महज एक मनोरंजन की पुस्तक थी। इस बार, विपरीत परिस्थितियों में इसे पढ़ने से मुझे इसमें छिपी गहरी शिक्षा का एहसास हुआ। कथा ने मुझे यह सिखाया कि जीवन में आने वाली कठिनाइयाँ केवल संयोग नहीं होतीं, बल्कि ईश्वर द्वारा रचित परीक्षा होती हैं, जो हमारे धैर्य और विवेक को परखने के लिए आती हैं।

राजा हरिश्चंद्र अपनी सत्यनिष्ठा और न्यायप्रियता पर गर्व करते हुए ऋषि विश्वामित्र से कहते हैं, "मेरी सत्यनिष्ठा के कारण मेरे राज्य में प्रजा सुखी है, और यहां तक कि मेरे राज्य में कभी किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती।" तब मेरे साथ इतना अन्याय क्यों हो रहा है। यह मुझे इस बात की ओर इशारा करता है कि जब किसी शासन में भ्रष्टाचार या अन्याय होता है, तो उसका सबसे बड़ा खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। जब राजा अपने दुखों से व्यथित होकर आत्महत्या करने का विचार करते हैं, तब आकाशवाणी होती है, जो उन्हें चेतावनी देती है कि आत्महत्या सबसे बड़ा पाप है और ऐसा करने वाला व्यक्ति घोर नरक का वासी बनता है।

इस कथा ने मेरे विचारों को एक नई दिशा दी। यदि राजा हरिश्चंद्र भावनाओं में बहकर आत्महत्या कर लेते, तो समाज में आत्महत्या को सही ठहराने का आधार मिल जाता। लेकिन ईश्वर ने आकाशवाणी के माध्यम से सही संदेश देकर राजा को इस अपराध से बचाया और समाज को भी दिशा दिखाई। यह हमें सिखाता है कि हमारे शास्त्र और महापुरुषों की कहानियाँ केवल मनोरंजन के लिए नहीं हैं, बल्कि वे हमें विपरीत परिस्थितियों में सही निर्णय लेने में मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। आदर्श समाज की स्थापना तभी संभव है, जब हम शास्त्रीय मूल्यों का पालन करें। वर्तमान में जो समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं, वे इन मूल्यों की उपेक्षा का ही परिणाम हैं।

वाचनालय से निकलने के बाद, जब मैं बैरक में पहुँचा, वहाँ **रामायण** धारावाहिक चल रहा था। संयोगवश, उस समय श्रीराम और लक्ष्मण का संवाद हो रहा था। लक्ष्मण अपने भाई से कहते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है और वे इसे सहन नहीं कर सकते। वे राम से अनुमति माँगते हैं कि वे अयोध्या पर हमला करें और भरत को लाकर उनके सामने खड़ा करें। श्रीराम लक्ष्मण को समझाते हैं कि दुनिया में घटित होने वाली प्रत्येक घटना के पीछे नियति की एक योजना होती है, जिसे हम तुरंत नहीं समझ सकते, लेकिन समय के साथ इसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है।

इस संवाद ने मेरे भीतर चल रहे नकारात्मक विचारों को शांत किया और मुझे एक नई दिशा दी। अब मुझे महसूस होने लगा कि शायद ईश्वर मुझे इन माध्यमों से कोई संदेश देना चाह रहे थे। मैंने यह समझा कि दुनिया मेरे बारे में क्या सोचती है, यह मेरे नियंत्रण में नहीं है। लेकिन मुझे ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे मैं अपनी ही नजरों में गिर जाऊं। यही मेरा धर्म और कर्तव्य है।

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प्रिय पाठकों,

जीवन की सच्चाई को समझने और आपके समक्ष प्रस्तुत करने की एक ईमानदार कोशिश के साथ मैं अपनी कहानी साझा कर रहा हूँ। यह सिर्फ मेरी व्यक्तिगत कथा नहीं है, बल्कि उन अनुभवों का संग्रह है, जिन्हें मैं समाज में रोज़ घटित होते देखता आया हूँ। मेरा उद्देश्य केवल अपनी जीवन यात्रा को बयां करना नहीं है, बल्कि उन सामाजिक सच्चाइयों को उजागर करना है, जिनसे हम सभी अनजान या अनदेखा करते हैं।

मैं कोई पेशेवर लेखक नहीं हूँ, लेकिन जीवन की एक अप्रत्याशित घटना ने मुझे इतना गहराई से प्रभावित किया कि मैंने अपने विचारों को शब्दों में ढालने का निर्णय लिया। मेरा मकसद केवल अपनी कठिनाइयों और दुविधाओं को व्यक्त करना नहीं है, बल्कि समाज की असलियत को आपके सामने लाना है। आज, हम सभी किसी न किसी अज्ञात भय से ग्रस्त हैं। हम अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन जब हालात हमारे पक्ष में नहीं होते, तब हमारे द्वारा लिए गए निर्णयों का समाज पर क्या असर पड़ता है? क्या हम अपने निर्णयों से समाज को बेहतर बना सकते हैं, या इसे और भी बिगाड़ सकते हैं?

एक नवजात शिशु जब इस दुनिया में आता है, तब उसके माता-पिता उससे किसी भी प्रकार की कोई शिकायत नहीं करते। वह न पढ़ाई से जुड़ी चिंताओं का सामना करता है, न ही मोबाइल की लत का दोषी ठहराया जाता है। पर जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, समाज और परिवार की शिकायतें बढ़ती चली जाती हैं। यह समझना ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति जन्म से बुरा नहीं होता, बल्कि उसकी परिस्थितियाँ उसे गलत राह पर ले जाती हैं। अपराधी को समाप्त करने से अपराध कम नहीं होंगे, अपराध की जड़ को खत्म करने से ही हम असली बदलाव ला सकते हैं।

यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है—शासन का दृष्टिकोण अपराधों को कम करने के बारे में क्या है? क्या उनके निर्णय और दृष्टि समाज को सुरक्षित और समृद्ध बना सकते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने के प्रयास में ही मैं अपनी कहानी आपके सामने रख रहा हूँ। आज तक के जीवन में मेरा कार्य केवल शिक्षा प्राप्त करना और दूसरों को शिक्षा देना रहा है। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब मैंने अपने विश्वास और आस्था को टूटते हुए देखा, तब मुझे अपनी बातों को लिखने के लिए मजबूर होना पड़ा।

यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं है, बल्कि समाज की उस बीमारी की ओर संकेत करती है, जिसका अभी अस्थायी इलाज किया जा रहा है। ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि बीमारी के लक्षण दब जाएँ, लेकिन समस्या की जड़ को नजरअंदाज कर दिया जा रहा है, जिससे यह बीमारी धीरे-धीरे विकराल रूप लेती जा रही है

इस लेख के माध्यम से मैं आपको जीवन की वास्तविकता से अवगत कराना चाहता हूँ और साथ ही समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित करना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य आपको सोचने पर मजबूर करना है, ताकि आप समाज की स्थिति और अपनी भूमिका को नए दृष्टिकोण से देख सके।

मैं पेशेवर लेखक नहीं हूँ, इसलिए लेख में कुछ कमियाँ हो सकती हैं, पर मेरा पूरा प्रयास रहेगा कि मैं अपने अनुभवों को हूबहू आपके सामने रख सकूं और आपको सच्चाई से रूबरू करवा सकूं।

आशा करता हूँ कि यह कहानी आपको सोचने और आत्मविश्लेषण करने के लिए प्रेरित करेगी, और समाज के प्रति आपके दृष्टिकोण में एक नया मोड़ लाएगी।

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**जीवन: शतरंज की बिसात पर ईश्वर की चाल** जीवन वास्तव में शतरंज के खेल जैसा ही है। हम हर चाल को अपनी योजना के अनुसार चलने की कोशिश करते हैं, यह सोचते हुए कि जीत हमारी मुट्ठी में है। हमें ऐसा लगता है कि हमारी मेहनत, हमारी समझ और हमारे निर्णय ही सब कुछ तय करेंगे। लेकिन तभी, अचानक, ईश्वर अपनी अगली चाल चल देते हैं। और हमें लगता है कि सब कुछ हाथ से फिसल गया, मानो हमारी सारी कोशिशें व्यर्थ हो गईं। परन्तु, यह सही नहीं है कि हमारी हार से ईश्वर प्रसन्न होते हैं। दरअसल, हमारी हार एक नई दृष्टि देती है, एक नई उम्मीद जगाती है। ईश्वर हमें न पूरी तरह हारने देते हैं, न ही तुरंत जीतने। यह दोनों ही स्थितियाँ हमें जीवन के संघर्षों के लिए तैयार करती हैं। हर जीत और हर हार के बीच जो संघर्ष है, वही हमें मज़बूत बनाता है, हमें अपने वास्तविक उद्देश्य और अपनी सीमाओं से परिचित कराता है। जीवन का यह खेल हमें धैर्य सिखाता है। हारने पर हमें लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया है, लेकिन यदि हम ईश्वर पर आस्था बनाए रखें और सही समय की प्रतीक्षा करें, तो वह हमें ऐसा रास्ता दिखाते हैं जो हमने सोचा भी नहीं होता। जीवन की यह यात्रा हमें बताती है कि केवल हमारे प्रयास ही नहीं, बल्कि ईश्वर का समय और उनकी योजना भी महत्वपूर्ण हैं। जीवन की आपाधापी में कभी कल्पनाओं के सागर में डूबने का मौका नहीं मिला। हमेशा असलियत की ठोस ज़मीन पर कदम रखने पड़े। एक घटना ने ऐसा झकझोरा कि मन को शब्दों में ढालने के लिए मजबूर कर दिया। असल में, दुनिया वास्तविक घटनाओं से भरी पड़ी है, जहां हर किसी की अपनी कहानी है, अपने अनुभव हैं। मैं कोई लेखक नहीं हूँ, परन्तु अनुभव बाँटने की एक सच्ची चाहत है। जो भी लिखा है, वह केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीते हुए जीवन के अनुभवों का निचोड़ है। जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हमें लगने लगता है कि हम हार गए हैं, कि अब कुछ भी ठीक नहीं हो सकता। लेकिन जब हम हार को स्वीकार करते हैं और ईश्वर पर भरोसा रखते हैं, तब हमें यह एहसास होता है कि हर हार एक नयी शुरुआत का हिस्सा होती है। ईश्वर की योजना हमेशा हमारे भले के लिए होती है, भले ही वह हमें पहले दिखाई न दे।
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