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घृणा की विजय

11 अक्टूबर 2024

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न्याय प्रणाली की अविश्वसनियता का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है । इसके लिए यहा दो घटनाओ का जिक्र करना चाहूंगा ।

प्रथम घटना मध्यप्रदेश के एक गाँव की है ।  एक परिवार की छोटी बहु ने जहरीला पदार्थ खाकर जीवन लीला समाप्त कर ली । बहु के परिवार वालो ने पति जेठ , देवरानी ,जेठानी पर दहेज़ का प्रकरण बनवाया। जिसके परिणाम स्वरुप पति और जेठ को जेल जाना पड़ा । तत्पश्चात परिवार वालो ने ससुराल पक्ष पर राजीनामे के लिए दवाब बनाया , धमकाया और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया । राजीनामे के लिए 20 लाख रूपए एवं 5 एकड़ जमीन की मांग की ।

नतीजा  परिवार के बाकी सदस्य , मानसिक रूप से प्रताड़ित थे । और पुलिस प्रशासन एवं न्यायिक व्यवस्था पर यदि ये विश्वास भी करते तो स्वयं इन्हे अपराधी बनाया जा चुका था । और अब इनके पास न्याय प्रणाली के रास्ते लगभग बंद थे । तब इन्होने सामूहिक सुसाइड किया । सुसाइड करने वाले लोगो मे , देवरानी , जेठानी , नानी , और एक 6 वर्ष की लडकी है ।

अब प्रश्न ये है की क्या इस परिवार के सदस्यो का आत्महत्या करना ठीक था । क्या इनके पास और कोई विकल्प नही था । इसका जवाब सिर्फ यही है की जब छोटी बहु ने आत्महत्या की तब उसके पास विकल्प थे । बहु के मायके वाले उसकी मदद कर सकते थे । अगर जीवित रहते हुए भी न्याय प्रणाली पर विश्वास होता तो विकल्प थे । किसी भी लडकी से दहेज़ मांगा जाता है तब उसे पुलिस मे स्वयं प्रताड़ित करने की शिकायत करना चाहिए ।

इस परिस्थिति मे परिवार के बाकी सदस्यो के पास आत्महत्या के अलावा कोई और विकल्प हि नही बचता । क्योकि न्यायप्रणाली पर विश्वसनियता होती तब वे ये कृत्य नही करते । माफ़ कीजियेगा , ये सामूहिक आत्महत्या नही है । अगर इसे सही से देखा जाये , तो मैं इसे  सामूहिक हत्याकांड मानता हु। यदि इन्हे विश्वास होता की पुलिस एवं न्याय प्रणाली हमे न्याय प्रदान करेंगी। तब शायद ये घटना ना घटती ,  यदि समय रहते हुए पुलिस द्वारा सही जाँच की जाये या आत्महत्या करने वाले लोगो के प्रति पुलिस का रवैय्या न्यायिक होता तब ये घटना ना होती । जिसमे एक 6 साल की मासूम बच्ची भी शिकार हुई है । किसी माँ के सामने ऐसी परिस्थिति का निर्मित होना जब वो स्वयं के बच्चे के साथ आत्महत्या करने पर मज़बूर हो जाये । इस से बड़ा अन्याय इस दुनिया में शायद ही कोई हो।  ये परिस्थिति दुनिया में विरले नही आम हो चुकी है । कई परिवारों ने ये कदम उठाया है । परन्तु इनके साथ मेरी सहानुभूति है । ये वो लोग है । जिनके लिए शायद न्याय के दरवाजे ही बंद है । आसान नही है ,परिवार के साथ आत्महत्या करना । और मै चाहता हु । की न्यायपालिका , समाज के प्रति अपने महत्व को समझे ।

इस बात को मुझसे अच्छा भला कोई नही जान सकता  , 42 वर्ष तक समाज के किसी व्यक्ति या अपराधी से मेरे परिवार को कोई खतरा महसूस नही हुआ , बल्कि अपराधी ने भी मुझे एक शिक्षक  समझ कर अपना रास्ता बदल दिया । मेरे जीवन में मेरे परिवार को सबसे बड़े खतरे में डालने  वाले कानून के ही  स्वार्थी व्यक्तित्व के लोग  थे। जिन्होंने सिर्फ मेरे आस्था और विश्वास को ही नही तोड़ा बल्कि मुझे इस परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया । जब मै स्वयं को आत्महानी  पहुंचा सकता था । परन्तु मेरे परिवार की जिम्मेदारियों की वजह से लड़ रहा हु । मै अपने परिवार को अकेला इस समाज में नही छोड़ सकता । जिस परिस्थिति में उक्त परिवार ने सामूहिक आत्महत्या की।

सामूहिक आत्महत्या के बाद पुलिस प्रशासन केस दर्ज करता है । क्योकि मामला अब छोटी बहु की आत्महत्या से बड़ा हो चुका है ।पर होना कुछ नही अब दोनो पक्षो से दोषियों के साथ साथ एक दो निर्दोष लोग भी फंसा दिये जाएंगे । क्योकि जब तक सुसाइड नही तब तक कोई महत्व नही देता , और जब कांड हो जाता है तब आनन - फानन मे लिखो। कौन -कौन अपराधी है ? अब तो जो अपराधी ना हो , उसके भी नाम लिखवाओ । क्योकि मोटी रकम तो उन्ही से मिलनी है ।

अब इसे हम न्याय कहते है । जिसमे पांच व्यक्तियों ने आत्महत्या की और 5 से 6 लोग ही अब जेल जाएंगे । जबकी न्याय का मतलब है की इस तरह की घटना को रोकना  । जब दोनो पक्षो के लोगो को अपराधी बना ही चुके है , अब न्याय किसको देंगे । अब दोनो परिवार के मासूम बच्चे इन अपराधो की सजा काटेंगे।

पुलिस विभाग का कार्य किसी घटना के साक्ष्य को तलाशने , सही जांच कर न्यायालय को अवगत कराना है । परन्तु अब ये विभाग कुछ स्वार्थी तत्वों की वजह से निज स्वार्थो की पूर्ति का अड्डा मात्र है । ये बात मुझे साबित करने की जरूरत नही , सभी इस बात से अवगत है । जब मै पुलिस वालों को 100 - 200 रुपये की वसूली करते देखता हु । मुझे इन सरकारी मुलाजिमो  पर शर्म आती है ।जिनकी वजह से पुरा विभाग बदनाम होता है ।  जिस तरह से देश मे अपराध की घटनाये बढ़ रही है । एवं पुलिस प्रशासन की कार्यशैली पर न्यायिक व्यवस्थाएं कोई ठोस कदम नही उठाती । आत्महत्या की घटनाये बढ़ेंगी। किसी भी घटना की जांच अगर सही  होती है तभी अपराधी को सजा मिल पायेगी । वरना इन घटनाओ की आड मे निर्दोष लोगो को फंसाकर ईर्ष्या को शांत किया जाता है ।  अगर गौर से वर्तमान मे हो रही घटनाओ का निरीक्षण किया जाये तो सिर्फ एक बात हि समझ आती है । रसूखदार और पैसेवाले लोग लेनदेन कर बच निकलते है । एवं गरीब,  कमजोर और भीरू किस्म के लोगो का शोषण होता है ।

वर्तमान समय मे समाज बालिका शिक्षा को लेकर जागरूक है । ताकि वे भी आत्मनिर्भर बन सके । समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सके । यदि बालिका शिक्षित होगी तब शायद वो समाज मे दहेज़ प्रथा सम्बन्धी कुरीतियों से भी लड़ सकेगी । मुसीबत आने पर अपने परिवार का सहारा बन सके , इसीलिए तो बालिका शिक्षा अनिवार्य है ।

परन्तु  एक घटना ने तो और सोचने पर मज़बूर कर दिया।

सरकारी विभाग मे उच्च पद पर कार्यरत एक महिला ने आत्महत्या की । कारण दहेज़ के लिए मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता था । पति भी सरकारी विभाग मे एक अधिकारी है । जो अब अपनी माता के साथ जेल मे है । सभ्य और शिक्षित समाज भी क़ानूनी सहायता का प्रयोग ना करते हुए ।आत्महत्या कर ले तब कानून का काम सिर्फ ईर्ष्या को संतुष्ट करना है।   एक बच्चे को छोड़कर आत्महत्या करना ।  एक बार भी नही सोचा की बच्चे का क्या होगा । पति को छोड़कर बच्चे के लिए तो हम जीवन जी सकते है । कोई अन्य विकल्प नही था जीवन जीने के लिए उस स्थिति मे जब माता पिता ने अच्छी शिक्षा देकर आत्मनिर्भर बनाया हो । जब दोनो ही अच्छे पद पर एवं शिक्षित है  । तब दहेज़ प्रथा का प्रकरण बनना । समझ से बाहर है।

वर्तमान समय में हर माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। मैं भी उन्हीं में से एक हूँ। आजकल कई लोग सही और गलत का ध्यान रखे बिना अधिक से अधिक संपत्ति अर्जित करने में लगे हुए हैं, क्योंकि समाज की धारणा है कि जिसके पास ज्यादा संपत्ति है, उसका भविष्य सुरक्षित है। यह एक संकुचित दृष्टिकोण है, जो केवल धन के आधार पर बच्चों की सुरक्षा को मापता है।

मैं भी अपने बच्चे को सुरक्षित और सुखी भविष्य देना चाहता हूँ, लेकिन सिर्फ संपत्ति जुटा लेने से उसका भविष्य सुरक्षित नहीं हो सकता। अगर मैं सामाजिक और नैतिक सिद्धांतों की अवहेलना करके धन अर्जित कर भी लूँ, तो भी मेरा बच्चा तब तक सुरक्षित नहीं हो सकता जब तक उसकी शिक्षा सही दिशा में न हो। शिक्षा का उद्देश्य केवल धन कमाना नहीं होना चाहिए, बल्कि मानवता की रक्षा और समाज के प्रति उत्तरदायित्व निभाने के उद्देश्य से होना चाहिए। यदि शिक्षा का उद्देश्य केवल भौतिक संपन्नता हासिल करना है, तो वह शिक्षा मेरे बच्चे का भविष्य सुरक्षित नहीं कर पाएगी।

संपत्ति से अधिक महत्वपूर्ण है कि बच्चे का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समाज से सकारात्मक रूप से प्रभावित हो। साथ ही, यह भी आवश्यक है कि समाज में न्यायिक व्यवस्था मजबूत हो और उसमें मेरे बच्चे का पूर्ण विश्वास हो, ताकि वह उसी आधार पर अपने जीवन की नींव रख सके।

यदि हम केवल व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति में लगे रहे, तो हम अपने बच्चों को ऐसा समाज देकर जाएंगे, जहां किसी भी प्रकार की संपत्ति उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पाएगी। इसलिए, एक स्वस्थ और नैतिक समाज की स्थापना और बच्चों को सही मूल्यों पर आधारित शिक्षा देना ही उनके भविष्य को सुरक्षित कर सकता है।

परन्तु जब मामला दहेज़ का हो हि ना तब क्या करे ।

वर्तमान मे अधिकांश मामले प्रेम सम्बन्ध पर आधारित होते है । पति को अगर पत्नी के प्रेम सम्बन्ध या पत्नी को पति के प्रेम सम्बन्ध के बारे मे पता चल जाये । तब घर मे क्लेश होता है । बदनामी के डर से ना तो ये पुलिस के पास जाते है ना ही रिश्तेदारो के पास । और क्रोध मे फ़ौरन आत्महत्या कर लेते है । बाद मे इस प्रकार के मामले को दहेज़ प्रथा से जोड़ दिया जाता है ।  तब इसी तरह की घटनाये घटित होती है । और आत्महत्या करने के बाद पुलिस से जो भी कहाँ जायेगा वो लिखेगी और कार्यवाही करेगी । चाहे प्रकरण कुछ भी हो । प्रकरण एक हि बनाया जायेगा , दहेज़ हत्या , चाहे सबूत हो या ना हो । और न्याय पालिका भी इसी  विचारधारा पर अपना कार्य करती है । जबकी आधुनिक समय मे आत्महत्या का कारण मात्र दहेज़ मांगना नही । यदि दहेज़ का मामला भी है तब आत्महत्या उसका हल नही है । क्योकि इसका परिणाम निर्दोष बच्चों को भुगतना पड़ता है । माँ ने आत्महत्या की और परिवार जेल मे तब उन बच्चों का क्या दोष जो या तो सामूहिक हत्याकांड मे बली चढ़ा दिये जाते है । या अनाथ आश्रम भेज दिये जाते है । कुछ परिस्थितियों मे महिलाये सुसाइड नोट लिखकर आत्महत्या कर लेती है । सुसाइड नोट लिखकर आत्महत्या करना मतलब उन्हे ये विश्वास है की अब मायके पक्ष के लोग न्याय दिलवा देंगे । परन्तु जीवित रहते हुए न्याय की उम्मीद क्यो नही है।   तब उन्हे स्वयं के दुख नज़र आ जाते है परन्तु बच्चों को किसके हवाले छोड़कर आत्महत्या की । जिस परिस्थिति मे आप जीवित नही रह पा रहे है । उससे विपरीत परिस्थितियाँ का निर्माण तो हम उन बच्चों के लिए कर जाते है । जिन्हे सबसे ज्यादा जरूरत आपकी है । ईर्ष्या एवं द्वेष से घिरे व्यक्ति न्याय तो दिलवा सकते है । पर जब बच्चों के पुनर्वास की बात आती तब पीछे हट जाते है।

विपरीत परिस्थितियाँ सभी के जीवन मे आती है , स्वयं ईश्वर ने भी इस धरती पर आकर विपरीत परिस्थितियों का सामना किया । तो हम क्या ईश्वर से भी बढ़े है ? कारण जो भी रहा हो , पर हर समस्या का समाधान है । यदि हम सकारात्मक सोच रखते है ।

मानव जीवन मे कभी कभी ऐसी परिस्थिति निर्मित हो जाती है तब हमे ऐसा प्रतित होता है की सब कुछ नष्ट हो गया । और इन परिस्थितियों से इस धरती पर स्वयं भगवान भी नही बच पाये । वास्तव मे इसी समय  व्यक्ति के विवेक और धैर्य की परीक्षा होती है । इसी समय हमे निर्णय करना होता है की जीवन की किताब का पन्ना पलटना है या किताब को हि बंद करना है ।

इसी प्रकार की एक घटना मध्यप्रदेश के एक जिले की है । जहाँ एक महिला के द्वारा सुसाइड किया जाता है । जब पुलिस प्रकरण बनता है तब महिला के पति एवं देवर द्वारा ट्रेन से कटकर आत्महत्या कर ली गई । ये परिवार भी दो मासूम बच्चों को इस दुनिया मे अकेला छोड़कर चला गया । गलती किसकी है । मुझे बताने की आवश्यकता नही। इस प्रकार के अनेक प्रकरण है । जिनका यहाँ वर्णन करना संभव नही है।

आत्महत्या और हत्या के प्रकरणों की पहचान करना एक संवेदनशील और गहन विषय है, जो समाज की मानसिकता और न्याय की समझ को भी प्रतिबिंबित करता है। आत्महत्या के उन प्रकरणों पर विचार करें, जहां व्यक्ति असफलता, प्रेम-संबंध, या सामाजिक अपमान के डर से यह कदम उठाता है। जैसे, एक विद्यार्थी जो परीक्षा में असफल होने के भय से आत्महत्या करता है, या कोई व्यक्ति जो प्रेम में धोखा खाने या सामाजिक प्रतिष्ठा के नुकसान की आशंका से ऐसा निर्णय लेता है—ये सभी प्रकरण आत्महत्या के अंतर्गत आते हैं। इन व्यक्तियों को जीते जी सहानुभूति और समर्थन मिलना अत्यंत आवश्यक है, ताकि वे अपने विचारों और भावनाओं को खुलकर साझा कर सकें और ऐसा कठोर कदम उठाने से बच सकें।

समाज द्वारा आत्महत्या के बाद सहानुभूति दिखाना, विशेषकर बिना समस्या की जड़ को समझे, यह संकेत दे सकता है कि ऐसे कदम उठाने से मान्यता या समर्थन मिल सकता है। यह मानसिकता आने वाली पीढ़ियों को गलत दिशा में प्रेरित कर सकती है। हमें चाहिए कि अपने बच्चों को ऐसी परिस्थितियों में संवाद और सहयोग की ओर प्रेरित करें। उन्हें यह भरोसा होना चाहिए कि चाहे कितनी भी कठिनाई क्यों न हो, उनका परिवार और समाज उनके साथ सहानुभूति रखेगा और समाधान के लिए समर्थन करेगा।

दूसरी ओर, ऐसे प्रकरण जिनमें व्यक्ति झूठे मुकदमों, ऋण के बोझ, या दबंग लोगों की धमकियों से त्रस्त होकर आत्महत्या करता है, वे मात्र आत्महत्या के नहीं, बल्कि हत्या के उदाहरण हैं। यह समाज की विफलता का प्रमाण है, जहां व्यक्ति को न्याय नहीं मिलता और वह इस चरम कदम पर मजबूर हो जाता है। ऐसे मामलों में समाज और कानून को सख्त कदम उठाने चाहिए, ताकि दोषियों को सजा मिले और पीड़ित परिवार को न्याय मिले। इन घटनाओं के प्रति सहानुभूति रखना वास्तव में सामाजिक अन्याय के खिलाफ जागरूकता और सचेत रहने का प्रमाण है।

इस प्रकार, आत्महत्या और हत्या के बीच के इस अंतर को समझना, और उससे जुड़े कारणों पर सही दृष्टिकोण से विचार करना अत्यावश्यक है। सहानुभूति का वास्तविक अर्थ तभी साकार होता है जब हम किसी व्यक्ति की कठिनाई को समय रहते समझें, न कि उसके चरम कदम उठाने के बाद। समाज को इस दिशा में अधिक संवेदनशील और जागरूक बनने की आवश्यकता है।

ऐसा नही है की मै दहेज़ प्रथा का समर्थन करता हु । किसी भी प्रकार की कुरीतियाँ जो समाज के लोगो का शोषण करे । उसका बंद होना आवश्यक है । परन्तु कुरीतियों के नाम पर निर्दोष लोगो का शोषण करना , इसके खिलाफ भी हु । वर्तमान मे प्रेम सम्बन्धो के कारण जब कोई अविवाहित कन्या अपने माता पिता के घर पर आत्महत्या करती है । तब माता पिता पर मानसिक प्रताड़ना का प्रकरण नही बनता । पर जब उसी लड़की की शादी जबरन कर दी  जाती है । और ससुराल मे आत्महत्या कर लेती है । तब प्रकरण दहेज़ प्रथा का बना दिया जाता है ।यदि आपको विश्वास ना हो तो कोई सा भी अखबार उठा कर देख ले । विवाह के बाद प्रेम सम्बन्धो के कारण पति ने की पत्नी की हत्या या पत्नी ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर की पति की हत्या । ये मामला भी शादी के सात वर्ष के अंदर ही बन सकता है। जब हत्या हो जाती है तब तो प्रेम सम्बन्ध समझ आ जाता है । परन्तु जब आत्महत्या होती तब ये सामने नही आता।
न्यायपालिका का दृष्टिकोण भी बस यही है । की शादी के सात वर्ष के अंदर कोई विवाहिता आत्महत्या करती है तब दहेज़ हत्या का प्रकरण ही बनता है ।  हो सकता है उसका प्रेम सम्बन्ध हो। यदि ऐसा भी है तो उसका भी न्यायिक हल है , परन्तु लोक लाज के कारण और परिवार क्या कहेगा ? यही सब सोचकर आत्महत्या कर ली जाती है । जिसका परिणाम निर्दोष लोगो को और खासकर मासूम बच्चों को अनाथ होकर भुगतनी पड़ती है।

मै प्रणाम करता हु । उन महिलाओ को जो दहेज़ प्रथा के खिलाफ समाज की परवाह ना करते हुए । बारात को विवाह के दिन हि वापस कर देती है । और विवाह करने से मना कर देती है । ऐसे कई प्रकरण हमने समाचार पत्रों मे देखे है , जहाँ विवाह मे ही बारातियों पर केस कर दिये गये ।  विवाह होने के पश्चात यदि दहेज़ की मांग की जाती है और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है, तब न्यायिक सहायता लेने वाले लोग वास्तव मे इस कुप्रथा के खिलाफ लड़ते है । अगर ससुराल पक्ष के द्वारा दहेज़ की मांग के साथ हत्या का प्रयास किया जाता है । तब भी कानूनी कार्यवाही जरूरी है ।  अपने हक़ के लिए लड़ने और संघर्ष करने वाले व्यक्ति ही समाज के आदर्श हो सकते है । किसी भी अन्याय की स्थिति मे बिना न्यायिक सहायता के आत्महत्या करने वाले व्यक्ति स्वयं अपराधी है । किसी के जीवित रहते न्याय दिलाना ही वास्तव मे न्याय है । आत्महत्या करने के पश्चात सिर्फ और सिर्फ समाज को सहानुभूति प्रदान करने के लिए और न्याय की मौजूदगी प्रदर्शित करने के लिए या ईर्ष्या और द्वेष भावना की संतुष्टि के लिए निर्दोष लोगो को अपराधी बनाना एक जघन्य अपराध है ।

वास्तव मे पुलिस और न्यायपालिका का कार्य ही हमारे हितो की रक्षा करना है । परन्तु वर्तमान मे हम अपनी ईर्ष्या की संतुष्टि के लिए इनका प्रयोग करते है । पुलिस और न्याय व्यवस्था का भी ,मै समर्थन करता हु । क्योकि इनसे ही तो हमारा परिवार अपने घरों मे सुरक्षित है । परन्तु जब कुछ व्यक्तिगत स्वार्थी लोगो के कारण इनकी कार्यप्रणाली दूषित हो जाती है। तब हमारे परिवार के लिए उतने ही हानिकारक   है।   समाज मे अविश्वास के कारण अराजकता का माहौल निर्मित होता  है । बल का प्रयोग कर ये माहौल को शांत तो कर देते है। पर उसका अंत नही ।देश का हर नागरिक स्वयं को तब ही सुरक्षित महसूस कर सकता है । जब उसे कानून पर विश्वास हो ।

इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि न्याय प्रणाली पर विश्वास ना करने के कारण समाज में न्याय के प्रति अविश्वास बढ़ता है। पुलिस और न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग होता है, और अपराध बढ़ते हैं।

मनीषा के माता पिता की गवाही के बाद अंतिम गवाही मनीषा के भाई की है । जो इस केस के लिए महत्वपूर्ण है । क्योकि जब माता पिता से दहेज़ सम्बन्धी कोई सबूत  मांगे गये तब उन्होंने लड़के को मालूम है कहकर बात टाल दी थी।

अदालत मे गवाह के कथन की परख भी की जाना जरूरी है  । ऐसा मेरा विश्वास था । और इसीलिए मनीषा के भाई की गवाही महत्वपूर्ण थी । इस बात से हम भी भलीभांति परिचित थे । जब कभी पैसे की कोई मांग हि नही की गई । तब ये क्या कहते है  । सच्चाई इसी गवाह से सामने आ सकती है।
तारीख पर तारीख लगती गई , पर गवाह नही आया । कभी बीमारी का बहाना , कभी शादी का । अंत मे अदालत से फोन लगाया जाता है । तब उनसे कहा गया की वह पेशी पर गवाही देने आ हि रहा था की रास्ते मे ऑटो पलट गया । जिसके कारण गवाही देने नही आ सका । अंत मे जज़ मैडम ने पंचनामा बनाकर उस व्यक्ति की गवाही निरस्त कर दी ।

अंत मे बचाव पक्ष के गवाह आने थे । तब वकील साहब द्वारा सिर्फ एक पड़ोसी की गवाही करवाई गई । जिन्होंने अदालत मे बताया की वो आरोपी के घर के पास हि रहते है । दोनो पति पत्नी हंसी खुशी से रहते थे । जब मनीषा ने आत्महत्या की तब वो अपने घर मे थे । घर का दरवाजा तोड़कर मनीषा को उनके सामने हि अस्पताल पहुंचाया गया था । दोनो के बीच  लड़ाई झगड़े होते उन्होंने कभी नही देखा ।
 वकील साहब से मैने कहा की सिर्फ एक गवाही से केस कमजोर तो नही होगा । क्योकि सासु माँ ओर अवनी उस वक़्त मेरे साथ गाँव मे थी । यदि आवश्यकता लगती है तो मेरे परिवार वाले , गाँव वालो की गवाही भी करवा सकते हो आप ।
और पड़ोस मे भी और गवाह है । जो घटना के समय मौजूद थे ।
वकील साहब ने कहा , अब किसी की जरूरत नही ।

अंत मे बचाव पक्ष को बोलने का अवसर था । तब वकील साहब ने कहा आप को कुछ नही बोलना , सब मे देख लूंगा । पहली बार वकीलों से पाला पड़ा था । अपनी फील्ड के जानकार है । और प्रतिदिन ऐसे केस लड़ते है । तब मैने कहा ठीक है , आप देख लीजियेगा ।
 अगली पेशी पर जाना मेरे लिए संभव नही था ,सो मैने वकील साहब से पूछा तब उन्होंने कहा की , कोई बात नही आपका आवेदन लगा देंगे । वैसे भी जब वकील साहब को हि बोलना है।

शाम को वकील साहब का फोन आता है की अगली पेशी पर फैसला होना है । तो एक जमानतदार को लेकर आप आ जाये । मैने कहा ,कोई समस्या तो नही । उन्होंने कहा, नही , आप लोगो का कोई मैटर नही है । आप तो बस एक जमानतदार  को लेकर आ जाइये । मैंने पूछा , महेन्द्र का क्या होगा । उन्होंने कहा, उसे तो वैसे भी 6 साल तो हो हि चुके है । मैंने बहस की है । उसका भी कुछ नही होगा । जो भी होगा सब ठीक हि होगा।

घर पर प्रिया ने पूछा , "वकील साहब क्या कह रहे थे ? कुछ गलत तो नही होगा हमारे साथ ।"
उसकी घबराहट को समझते हुए मैंने कहा , " घबराने की जरूरत नही है । ईश्वर पर भरोसा रखो । जब हमने किसी का बुरा नही किया तो ईश्वर हमारे साथ भी बुरा नही होने देगा ।"
उसने कहा , " मुझे कुछ भी हो जाये पर तुम्हे कुछ नही होना चाहिए । "
मैंने जवाब दिया , " किसी को कुछ नही होगा , ईश्वर पर भरोसा रखो।

अगर शासन के न्याय पर हम भरोसा नही करेंगे तो कौन करेगा । हमारी सोच जैसी होती है । हम वैसा हि सबको समझते है । यदि हम ईमानदार है तो सभी से ईमानदारी की अपेक्षा करते है । एक पढ़ा लिखा व्यक्ति हर एंगल से विषय की जांच परख करता है । नकारात्मक बाते सोचने के हि कारण तो कभी कभी विपरीत स्थितिया बन जाती है ।
और वैसे भी हमारा मामला किसी खाप पंचायत मे नही है । एक व्यस्थित आदर्श न्याय प्रणाली है ।  जहाँ पढ़े लिखे  , अनुभवी , कानून के जानकार , एवं प्रशिक्षित लोगो के हाथो मे न्याय व्यवस्था है।

एक शिक्षक होने के कारण अपराध की घटनाये भी कम ही देखता था । अपराधियों के  सम्बन्ध मे मेरी विचारधारा भी गलत ही थी । जीवन अब तक सिर्फ अध्ययन और अध्यापन कार्य मे ही गुजारा है।  काल्पनिक कथाओं की तरफ मेरा आकर्षण कभी नही रहा है । हाँ , ऐतिहासिक एवं सत्य घटना पर आधारित कथाओं एवं फिल्मो को देखना ही पसंद था । इतिहास मेरा प्रिय विषय रहा । इतिहास मे राजाओं के न्याय के आदर्श रूप को ही जानता था । जो इस आधार पर थे की "भले ही सौ अपराधी को सजा ना मिले । पर किसी बेगुनाह को सजा नही मिलना चाहिए ।"

किसी भी समाज की न्याय प्रणाली , समाज के विकास की महत्वपूर्ण आधार शिला होती है । जिसके बिना समाज आगे नही जा सकता । हम चाँद पर पहुंच जाये । इससे ज्यादा जरूरी है की सर्वप्रथम हमारा समाज अपनी धरती पर सीधा खड़ा हो जाये ।
 न्याय प्रणाली पर विश्वास करना आवश्यक है क्योंकि:
 न्याय प्रणाली पर विश्वास होने से समाज में शांति और सुरक्षा बनी रहती है।
 अपराध कम होते हैं और समाज में कानून का पालन होता है ,न्याय की स्थापना होती है और लोगों को अपने अधिकारों की रक्षा मिलती है, समाज में समानता का माहौल बनता है और सभी लोगों को समान अधिकार मिलते हैं। देश का विकास होता है और लोगों का जीवन स्तर सुधरता है।
 गरीब और कमजोर लोगों को न्याय मिलता है।राजनितिक स्थिरता बनी रहती है और देश में शांति और सुरक्षा का माहौल बनता है।नागरिकों का विश्वास बढ़ता है और वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने में साहस करते हैं।

इस परिस्थिति मे न्यायप्रणाली के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखना मेरे लिए महत्वपूर्ण है ।
मानसी हमेशा हमारे साथ हि पेशी पर जाती थी । क्योकि मम्मी अकेले उसे संभाल नही   सकती थी। मेरी ड्यूटी वार्षिक परीक्षा मे लगी हुई । तब मैने प्रिया को पहले ही मानसी के साथ भेज दिया था।

आप सभी इस घटना की आगे की कहानी से परिचित हैं—जो किसी ने सोचा भी नहीं था, वह हो गया। मेरी आस्था और विश्वास पूरी तरह चकनाचूर हो गए। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि मेरा पुलिस या न्याय प्रणाली पर से विश्वास उठ गया था, क्योंकि मैं स्वयं भी उस शासन व्यवस्था का हिस्सा था। मुझे यह समझ थी कि किसी एक व्यक्ति विशेष की वजह से पूरी प्रणाली को दोष देना उचित नहीं है। फिर भी, जो अन्याय हुआ, वह गहरा था और उससे भी अधिक दुखदायी था वह जो मुझे आगे देखने को मिला।

मेरी धारणाओं और विश्वासों में अब बदलाव का अवसर आ चुका था। इस घटना ने मेरे मन और शरीर में ऐसी रासायनिक प्रतिक्रियाएं शुरू कर दी थीं, जो किसी परमाणु बम से कम नहीं थीं। मेरी पहली प्राथमिकता थी, खुद को इस आंतरिक विस्फोट से बचाना। दूसरी, यह सुनिश्चित करना कि मुझसे कोई ऐसा अपराध न हो जाए जिसके बाद मैं कभी निर्दोष साबित न हो सकूं। इस मानसिक उथल-पुथल को भीतर ही रखना था, और जब यह बाहर आए तो समाज के हित में कार्य करे। इस स्थिति में मुझे समझ आ गया था कि अधिकांश अपराधों की जड़ क्या होती है।

बचपन में मैंने एक कहानी पढ़ी थी, "अंधेर नगरी, चौपट राजा, टके सैर भाजी, टके सैर खाजा"। तब यह सिर्फ मनोरंजन लगती थी और सोचा था कि यह केवल लेखक की कल्पना मात्र है। ऐसा वास्तविक जीवन में नहीं हो सकता। लेकिन, अपने जीवन का आधा सफर तय करने के बाद, मैंने इस कहानी को सजीव होते देखा। मैंने यह समझ लिया कि भले ही भारत में लोकतंत्र है, लेकिन कुछ स्वार्थी लोग लोकतंत्र के भेष में राजतंत्र और तानाशाही का वर्चस्व कायम करना चाहते हैं, चाहे वह किसी भी विभाग में हो।

जहाँ एक तरफ भारत के विकास की बात की जा रही है, वहीं मैं यह बताना चाहता हूँ कि जहाँ व्यक्ति स्वार्थभावना से नहीं, बल्कि सामाजिक कल्याण की भावना से कार्य करता है, वहाँ हम आगे हैं। हमारे वैज्ञानिक और हमारी सेना इसका जीवंत उदाहरण हैं। जब भी कोई नेता देश के विकास की बात करता है, तो चंद्रमा या मंगल पर पहुंचने की उपलब्धि को गिनाता है, और यह सही भी है। लेकिन दूसरी ओर, समाज की कुछ व्यवस्थाओं की हालत ऐसी है कि उन्हें तो 'समुद्र' कहा जाता है, पर पानी कहाँ है, इसका कोई पता नहीं।

आगे की कहानी मेरी सोच से कहीं अधिक विपरीत है। जब मैंने अपनी धारणाओं के विपरीत इन व्यवस्थाओं को देखा, तो मुझे न्याय कहीं भी दिखाई नहीं दिया। व्यवस्थाएं समाज के लिए क्या कर रही हैं? उनकी उपलब्धियां क्या हैं? क्या शासन की व्यवस्थाएं समाज के हित में काम कर रही हैं, या कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा इनका दुरुपयोग हो रहा है? अगर ऐसा है, तो समाज की दिशा और दशा क्या होगी?

इस कहानी के माध्यम से  उठाए गए सवाल बेहद महत्वपूर्ण और समाज के गहन चिंतन का विषय हैं।
इस कहानी में कुछ ऐसे प्रश्नों को उठाया जा रहा है जिनका उत्तर ढूंढना समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है। इन प्रश्नों के माध्यम से हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि हमारी न्यायिक प्रणाली, रोजगार और लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं पर हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और किन सुधारों की आवश्यकता है।

अपराध और न्यायिक प्रणाली:

1. **क्या कोई व्यक्ति जन्म से ही अपराधी होता है?**
   यह सवाल हमें सोचने पर मजबूर करता है कि अपराधियों का जन्म क्या परिस्थितियों के कारण होता है या वे जन्म से ही ऐसे होते हैं। क्या सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां किसी को अपराध की ओर धकेलती हैं?

2. **कानून का उद्देश्य: सजा या सुधार?**
   क्या कानून केवल अपराधियों को सजा देने के लिए बनाया गया है या उसका उद्देश्य उन परिस्थितियों को रोकना भी है, जिनकी वजह से लोग अपराध की ओर जाते हैं? हमें यह सोचना होगा कि न्यायिक प्रणाली किस प्रकार समाज में सुधार और सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती है।

3. **सजा के बाद सुधार का प्रश्न:**
   आजीवन कारावास की सजा काटने के बाद, क्या कानून इस बात की गारंटी देता है कि व्यक्ति फिर से अपराध नहीं करेगा? अगर यह गारंटी नहीं है, तो उस व्यक्ति को रिहा क्यों किया जाता है? सजा का उद्देश्य सुधार होना चाहिए, पर अगर सुधार नहीं हो रहा, तो सजा देने का क्या औचित्य है?

4. **अपराध की जड़ें:**
   जब कोई व्यक्ति अपराध करता है, तो न्यायिक प्रणाली उसे सजा देती है, पर क्या उन परिस्थितियों पर ध्यान दिया जाता है जिनके कारण वह अपराध की ओर प्रेरित हुआ? क्या उन परिस्थितियों को रोकने के लिए कोई प्रयास किए जा रहे हैं?

रोजगार और सरकारी नौकरी का महत्व:
5. **सरकारी नौकरी का मोह:**
   एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति सिर्फ सरकारी नौकरी को ही रोजगार क्यों मानता है? क्या यह मानसिकता इस कारण है कि सरकारी नौकरी को स्थिरता और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है? इसके साथ ही यह भी प्रश्न उठता है कि क्या सरकारी नौकरियां वास्तव में सुरक्षित हैं?

6. **सरकार और सुरक्षा:**
   क्या आज की सरकारें स्वयं सुरक्षित हैं? सरकारी तंत्र की स्थिरता पर भी सवाल खड़े होते हैं, खासकर जब राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियां अनिश्चित हों। इससे यह प्रश्न उठता है कि सरकारी नौकरी की सुरक्षा भी वास्तव में कितनी मजबूत है?

लोकतंत्र और उसकी स्थिरता:

7. **क्या हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है?**
   सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या हमारा लोकतंत्र सुरक्षित है? जब तक हमारे लोकतांत्रिक ढांचे की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होती, तब तक न तो नौकरी की सुरक्षा का भरोसा हो सकता है और न ही नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा का।

इन सभी सवालों के उत्तर हमारे समाज की वास्तविक स्थिति में छिपे हैं। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि हम किस प्रकार एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं जहां न्यायिक प्रणाली और रोजगार के अवसर सुधारात्मक और सुरक्षित हों, और लोकतंत्र की स्थिरता बनी रहे।

इस लेख के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि समाज को केवल सतही समस्याओं पर नहीं, बल्कि उनके मूल कारणों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

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आत्महत्या पर विजय
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**जीवन: शतरंज की बिसात पर ईश्वर की चाल** जीवन वास्तव में शतरंज के खेल जैसा ही है। हम हर चाल को अपनी योजना के अनुसार चलने की कोशिश करते हैं, यह सोचते हुए कि जीत हमारी मुट्ठी में है। हमें ऐसा लगता है कि हमारी मेहनत, हमारी समझ और हमारे निर्णय ही सब कुछ तय करेंगे। लेकिन तभी, अचानक, ईश्वर अपनी अगली चाल चल देते हैं। और हमें लगता है कि सब कुछ हाथ से फिसल गया, मानो हमारी सारी कोशिशें व्यर्थ हो गईं। परन्तु, यह सही नहीं है कि हमारी हार से ईश्वर प्रसन्न होते हैं। दरअसल, हमारी हार एक नई दृष्टि देती है, एक नई उम्मीद जगाती है। ईश्वर हमें न पूरी तरह हारने देते हैं, न ही तुरंत जीतने। यह दोनों ही स्थितियाँ हमें जीवन के संघर्षों के लिए तैयार करती हैं। हर जीत और हर हार के बीच जो संघर्ष है, वही हमें मज़बूत बनाता है, हमें अपने वास्तविक उद्देश्य और अपनी सीमाओं से परिचित कराता है। जीवन का यह खेल हमें धैर्य सिखाता है। हारने पर हमें लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया है, लेकिन यदि हम ईश्वर पर आस्था बनाए रखें और सही समय की प्रतीक्षा करें, तो वह हमें ऐसा रास्ता दिखाते हैं जो हमने सोचा भी नहीं होता। जीवन की यह यात्रा हमें बताती है कि केवल हमारे प्रयास ही नहीं, बल्कि ईश्वर का समय और उनकी योजना भी महत्वपूर्ण हैं। जीवन की आपाधापी में कभी कल्पनाओं के सागर में डूबने का मौका नहीं मिला। हमेशा असलियत की ठोस ज़मीन पर कदम रखने पड़े। एक घटना ने ऐसा झकझोरा कि मन को शब्दों में ढालने के लिए मजबूर कर दिया। असल में, दुनिया वास्तविक घटनाओं से भरी पड़ी है, जहां हर किसी की अपनी कहानी है, अपने अनुभव हैं। मैं कोई लेखक नहीं हूँ, परन्तु अनुभव बाँटने की एक सच्ची चाहत है। जो भी लिखा है, वह केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीते हुए जीवन के अनुभवों का निचोड़ है। जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हमें लगने लगता है कि हम हार गए हैं, कि अब कुछ भी ठीक नहीं हो सकता। लेकिन जब हम हार को स्वीकार करते हैं और ईश्वर पर भरोसा रखते हैं, तब हमें यह एहसास होता है कि हर हार एक नयी शुरुआत का हिस्सा होती है। ईश्वर की योजना हमेशा हमारे भले के लिए होती है, भले ही वह हमें पहले दिखाई न दे।
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