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संघर्ष का सामना

11 अक्टूबर 2024

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मेरे घर का निर्माण कार्य चल रहा था, लेकिन तभी मेरी नानी की तबियत खराब हो गई। उन्हें  कैंसर की शिकायत थी और उनका इलाज चल रहा था। मैंने सोचा था कि मेरे घर का निर्माण होने से पहले नानी की तबियत ठीक हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

नानी 70 वर्ष की हो चुकी थीं और उनकी तबियत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही थी। मैंने अपने मकान की छत डालने के बाद नानी को घर की छत पर ऊपर ले गया। मुझे खुशी थी कि नानी के जीते जी मेरे घर का निर्माण हो गया था, और नानी को देखकर भी खुशी हुई थी।

लेकिन नानी की बीमारी बढ़ती जा रही थी और उन्हें देखने के लिए रिश्तेदारों का आना-जाना लगा रहता था। मैंने सोचा कि नानी को अपने घर में देखकर खुशी होगी, लेकिन उनकी तबियत में सुधार नहीं हुआ।

मेरी सासु माँ और अवनी भी  , नानी को देखने घर आये। हम पुराने कच्चे घर में एक कमरे में रहने लगे थे, क्योंकि नए घर का काम चल रहा था। रात को हम सब एक कमरे में सो गए। मेरी नींद लग चुकी थी, जब अचानक मोबाइल की घंटी बजी। देखा तो महेन्द्र का फोन था।

"क्या हुआ?" मैंने पूछा।

महेन्द्र घबराहट में बोला, "जीजा जी, मनीषा को पता नहीं क्या हो गया।" वह लड़खड़ाती हुई आवाज में रोते हुए बोल रहा था।

मैंने पूछा, "बता तो सही क्या हुआ?"

महेन्द्र ने रोते हुए कहा, "कुछ बोल नहीं रही है।"

मैंने सोचा कि मनीषा को अस्थमा की समस्या है, शायद कुछ हो गया हो। मैंने महेन्द्र से कहा, "उसे तुरंत हॉस्पिटल ले जाओ। मैं सासु माँ और अवनी को तुरंत भेज रहा हूँ। और सुबह में भी आता हूँ।"

मैंने गाँव में अपने मित्र को फोन लगाया और सासु माँ और अवनी को उसकी गाड़ी में भेज दिया।

यह  एक दुखद और तनावपूर्ण स्थिति  है, जहां मनीषा को कुछ हुआ है और वह बोल नहीं रही है। मैंने तुरंत कार्रवाई की और उन्हें अस्पताल ले जाने की सलाह दी और स्वयं भी जल्द ही उनके पास आने का प्रयास किया।

महाकाव्य रामचरितमानस और जय संहिता में वर्णित कथाएं हमें जीवन के संघर्षों और दुखों के बारे में सिखाती हैं। इन कथाओं में यह भी दिखाया गया है कि कैसे भगवान भी नियति के वश थे और जीवन के दुखों से बच नहीं पाए।

भगवान राम को भी अपने जीवन में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जैसे कि वनवास, पत्नी सीता का अपहरण, और युद्ध में रावण का वध करना। लेकिन उन्होंने कभी भी आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाया, बल्कि अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन के संघर्षों का सामना किया।

माता सीता ने भी अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया, जैसे कि रावण के चंगुल से छूटने के बाद अग्नि परीक्षा देना और अंत में अपने पुत्रों के दायित्व का निर्वहन करने के बाद धरती माता की गोद में समा जाना। लेकिन उन्होंने भी आत्महत्या नहीं की, बल्कि अपने जीवन के संघर्षों को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ी।

हमारे धार्मिक ग्रंथ मे शायद हि कोई कथा इस प्रकार की शिक्षा देती  हो की आत्महत्या को किसी भी महापुरुष ने स्वीकार किया हो । क्योकि इस युग मे इसे एक घोर अपराध हि माना गया ।

एक हत्या के अपराधी को समाज मे घृणा की नज़र से देखा जाता है । क्योकि उसने एक अपराध किया है । जबकी धार्मिक ग्रंथो मे अधर्मी को मारना भी पाप नही था । स्वयं ईश्वर ने भी  अधर्म के मार्ग को अपनाने वाले सगे सम्बन्धियों का वध अर्जुन से करवाया । अर्जुन के विचलित होने पर स्वयं ईश्वर ने इसे कायरता का प्रतीक माना जबकी अर्जुन आत्महत्या नहीं कर रहे थे । सिर्फ अपने कर्तव्य से पीछे हट रहे थे।

संक्षेप मे कहने का तात्पर्य यह है की एक हत्या के अपराधी से समाज को सहानुभूति नहीं मिलती तब आत्महत्या का अपराधी तो उससे भी बड़ा दोषी होता है । क्योकि किसी की हत्या करने वाला व्यक्ति स्वयं को किसी से असुरक्षित अनुभव करने पर हत्या करने का विचार करता है । ओर स्वयं की रक्षा करना , किसी भी व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है । परन्तु आत्महत्या करने वाला व्यक्ति तो दोषी हि है , जो स्वयं मे हि अपनी दुनिया को सिमित कर लेता है । उन्हे इस बात से कोई मतलब नही की परिवार का क्या होगा , या समाज पर इस घटना का क्या प्रभाव पड़ेगा।

अब अधिक गहराई मे ना जाते हुए , वर्तमान समाज की प्रतिक्रिया पर विचार रखना चाहूंगा । क्योकि ये सब तो आध्यात्मिक बाते है । नई पीढ़ी हमारी अमूल्य धरोहर हमारी संस्कृति और पौराणिक ग्रंथो के महत्व से कोसो दूर है । पाश्चात्य संस्कृति की भेड़चाल ने स्वयं की संतुष्टि तक हि जीवन को संकुचित कर दिया है । जीवन से हमारी निश्चित अपेक्षाएं है । यदि हमारी अपेक्षाओ के विरुद्ध हमे जीवन मिलता है , तब हमे यह जीवन स्वीकार नही ।यह एक घटना मुझे याद आ जाती है जिसका जिक्र मे करना चाहूंगा । एक बार मे अपनी मौसी के यहाँ से ट्रेन से भोपाल आ रहा था । रात के 12 बजे के लगभग भोपाल स्टेशन पर ट्रेन से उतरा , मुझे अपने गाँव के लिए बस पकड़नी थी। रेलवे स्टेशन से बस स्टैंड की दूरी लगभग 2 किलोमीटर थी, इसलिए मैं पैदल ही चलने लगा।

मेरे आगे दो युवा आपस में बातें करते हुए जा रहे थे। मैं उनके पीछे पीछे ही जा रहा था। उनकी बातचीत मुझे स्पष्ट सुनाई दे रही थी। एक व्यक्ति रास्ते में सोते हुए भिखारियों की तरफ इशारा करते हुए बोलता है, "यार, ये भी कोई जिंदगी है? इन्होंने पूरा भोपाल खराब कर रखा है। अगर मैं इस देश का प्रधानमंत्री होता, तो इन सबको इकट्ठा कर मौत की सजा सुना देता, ना तो ये समाज को कुछ देते हैं और ना स्वयं एक अच्छी लाइफ जी सकते हैं।"

दूसरा व्यक्ति हंसते हुए बोलता है, "हाँ, बात तो सही है, पर हम कर क्या सकते हैं?"

मैंने बस स्टैंड से अपने गाँव की बस पकड़ी और रास्ते भर उन दोनों की बातों का विश्लेषण मेरे मन के अंदर चलता रहा। "बात तो सही है, समाज को लाभ क्या है?"

लेकिन जब मैंने उन भिखारियों को देखा, तो मुझे एक बात समझ आ गई। इस जगत में कोई व्यक्ति या वस्तु व्यर्थ में ईश्वर ने नहीं बनाई। ये व्यक्ति भी समाज के उन लोगों के लिए प्रेरणा का कार्य करते हैं जो सब कुछ होते हुए भी जीवन की विपरीत परिस्थितियों में जल्दबाजी में गलत निर्णय कर लेते हैं।

विपरीत परिस्थितियों में जीवन कैसे जीना है, कोई इन लोगों से सीखे। ना सरकारी सहायता है, ना न्याय की उम्मीद, ना भविष्य की चिंता, परंतु समाज के सबसे मजबूत व्यक्ति हैं जो हार नहीं मान रहे हैं। जो जीवन को एक संघर्ष मानकर, हर दिन को ईश्वर की कृपा मानकर स्वीकार कर रहे हैं, जो आज के पढ़े लिखे सभ्य समाज से कहीं आगे हैं।

समाज का हर समृद्ध व्यक्ति इन्हें कमजोर मानता है, पर वास्तव में उनकी लाइफ को जीना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। अब इस परिस्थिति में कमजोर कौन हुआ? दोनों युवाओं का कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि यदि उन्हें परिस्थिति वश इस प्रकार का जीवन मिल जाए, या जीवन में कहीं विपरीत परिस्थिति आ जाए, तो इस चुनौती को स्वीकार करने की क्षमता उनमें नहीं है।

इस दुखद घटना के बाद, मनीषा के परिवार ने उसके ससुराल पक्ष पर दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, और हत्या के लिए उकसाने के आरोप में केस दर्ज कराया। झूठे गवाह इकट्ठे किए गए, और मनीषा की सहेली और मौसी की लड़की को भी गवाह बनाया गया। महेन्द्र, सासू माँ, अवनी, और  हम दोनो पति पत्नी के नाम पर केस दर्ज हुआ।

हम जानते थे की  ये सभी आरोप झूठे ओर निराधार थे। अवनी और सासू माँ उस समय भोपाल मे मौजूद नही  थे। थाने में लिखवाया गया कि मैं भोपाल में रहता हूँ और दहेज मांगने के लिए महेन्द्र को भड़काता था। लेकिन मेरे पास सभी आरोपों के साक्ष्य थे, इसलिए मुझे घबराहट नहीं थी। एक शिक्षक होने के कारण मुझे भारत की न्याय प्रणाली पर विश्वास था।

वकील ने मेरे कागजात लिए और न्यायालय में अग्रिम जमानत के लिए याचिका प्रस्तुत की। सबसे पहले मेरी पत्नी और मुझे अग्रिम जमानत मिल गई। अगले दिन सासू माँ और अवनी की अग्रिम जमानत याचिका स्वीकार कर ली गई। वकील ने बताया कि महेन्द्र को जमानत मिलना मुश्किल है, उसकी गिरफ्तारी होगी।

अग्रिम जमानत मिलने पर हम महेन्द्र को साथ लेकर थाने जाते हैं। जीवन में पहली बार किसी थाने में कदम रखा था। बस इतना जानता था कि अच्छी जगह नहीं है। एक धारणा ये भी थी कि कानून न्याय के लिए काम करता है। हिम्मत तो रखना पड़ेगा, स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी। इसके अलावा कोई रास्ता भी नही था।

थाने मे महेन्द्र को गिरफ्तार कर एक कमरे मे बंद कर दिया जाता है । पुलिस वाले हमारी अग्रिम जमानत की कार्यवाही करने लगते है । प्रतिदर्श पर हमारे हस्ताक्षर लिए जाते है । प्रिया और मेरे फॉर्म को मे पढ़ता हु तब उसमे मेरा पता भोपाल का हि दर्शाया जाता है । मै यही पर व्यवसाय करता हु । यही दर्शाया गया । मैने पुलिस ऑफिसर से बोला ये जानकारी गलत है तब पुलिस ऑफिसर ने कहा , ये सिर्फ फॉर्मल्टी है । गलत और सही ,कोर्ट में बताना । मैने फिर  कहा - मै यहाँ नही रहता , ना हि मै कोई व्यवसाय करता हु । मेरा आई.डी. देख लीजिये। एक नौकरी पेशा व्यक्ति हु । गलत पर हस्ताक्षर नही कर सकता । तब उन्होंने कहा , अभी जो फॉर्म है । उस पर हस्ताक्षर कर दीजिये । बाकी हम अलग से कार्यवाही करेंगे ।

मुझे समझ में आ गया की , शुरुआत में हि मुझसे कुछ लोगो ने कहा था की आप दोनो तो थाने से हि बरी हो जाओगे । वहाँ टी. आई. से बात करना कुछ पैसे लेगा और आपका नाम आएगा हि नही । परन्तु जब हम गलत थे हि नही तब रिश्वत भी क्यो दे। जनता का पुलिस प्रशासन पर विश्वास ऐसे हि नही उठा , बहुत से स्वार्थी लोगो ने इसे अपना स्वार्थ सिद्ध करने का जरिया बना रखा है । और मै पुलिस के इस रवैये के खिलाफ लड़ रहा था । सरकारी संस्थाएं एवं सरकारी नियम जनता के हित के लिए बनाये गये है , और प्रत्येक कर्मचारी का दायित्व है , उसका सही प्रयोग करना । परन्तु पुलिस प्रशासन पर मुझे विश्वास था । मै उन लोगो में से नही था , जो गलत का साथ देकर अपना काम निकाल कर चल दे। कोई तो होगा इस सिस्टम में जो सही का साथ देगा । एक शिक्षक के रूप में, मेरी जिम्मेदारी न केवल छात्रों को शैक्षिक ज्ञान प्रदान करना है, बल्कि उन्हें संविधानिक मूल्यों और नियमों का सम्मान करने के लिए भी प्रेरित करना है। यदि मै स्वयं ही गलत तरीके से कार्य करूंगा, तो मेरे छात्र  भी यही सीखेंगे और वे भविष्य में इसका अनुसरण करेंगे।और कहीं ना कही विद्यार्थियों के अनुचित उद्धरणों का स्पष्टीकरण भविष्य में नही कर पाऊंगा।

इस समय मेरी आर्थिक स्थिति भी ठीक ना थी । बैंक से लोन लेकर मकान का काम चलाया । वो भी पुरा नही हुआ । और जो कुछ था । वो मनीषा के इलाज में चला गया । ऊपर से वकील का लेनदेन अलग है ।  वकील साहब को सब बताया तो उन्होंने कहा , लिख लेने दीजिये उन्हे जो कुछ लिखना है । आएंगे तो कोर्ट हि । और आप दोनो का तो कोई लेना देना हि नही है । सब कोर्ट में देख लेंगे । इसके पश्चात कोर्ट में पेशिया चलने लगती है । वकील साहब ने कहा की तीन महीने के बाद महेन्द्र की जमानत याचिका लगेगी । और वह भी बरी हो जायेगा ।

पर जवाबदारी तो मुझ पर बढ़ चुकी थी । जाने वाले जा चुके थे । केस दर्ज करने वालो ने केस लगा दिया । शायद इस परिवार का साथ देने वाला कोई और ना था । देवेंद्र भी है पर वो अपनी दुनिया में मस्त है । जब इतने सालो उसने परवाह नही की तब अब शायद हि वह भी साथ देगा या नही , पता नही ।

मुझ पर वैसे हि अपने घर की जिम्मेदारियाँ है । और मेरी सर्विस भी गृह जिले से अन्य जिले में है । ऊपर से अवनी की शादी करनी थी । पर वो भी अब असंभव है । जब तक महेन्द्र बाहर नही आता , शायद मुझे हि सब सम्हालना है ।

महेंद्र तीन महीने से जेल में है। उनका परिवार, जिसमें सासू माँ, अवनी और अवनी की मामी की लड़की (नूपुर) शामिल हैं, साथ में रहते हैं। गाँव में उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं होने के कारण नूपुर का कॉलेज में एडमिशन भोपाल में कराया गया था। मामा ने सोचा कि इससे परिवार को भी सहारा मिलेगा और लड़की की पढ़ाई भी चलती रहेगी। नूपुर बाजार जाने, बाहरी काम करने और बाइक चलाने में सक्षम है। अगर कोई बीमार हो जाए तो वह अस्पताल ले जाने में भी सक्षम है।

मैंने अपने स्टाफ को पूरे घटनाक्रम के बारे में बताया, तो उन्होंने कहा कि मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं है। मैं यहाँ काम करता हूँ और सभी जानते हैं कि मैं निर्दोष हूँ। अदालत में सब साफ हो जाएगा।

समय बीतता गया और महेंद्र को जमानत नहीं मिली। हमारी मुश्किलें बढ़ती गईं। केस के सिलसिले में भोपाल आना-जाना लगा रहता था। ससुराल में भी जाना जरूरी था क्योंकि सासू माँ हार्ट पेशेंट थीं। महेंद्र से जेल में मुलाकात के लिए जाना और फिर विभाग द्वारा मुझे बी.एड. नियमित करने का अवसर मिला।

मैने सोचा दो साल भोपाल मे रहकर मे इनकी भी मदद कर पाऊंगा और मेरा बी.एड. भी हो जायेगा । जब मेरा प्रवेश बी.एड.कॉलेज मे हो जाता है । तब मैने हॉस्टल मे रहने का निश्चय किया । हॉस्टल ससुराल से 2 किलोमीटर की दूरी पर था । ससुराल मे रहना मैने ठीक नही समझा । क्योकि प्रिया घर पर बच्चों और माँ के साथ थी । हॉस्टल मे रहकर भी मे इनकी मदद कर सकता था । हर सोमवार को भोपाल जाता और शुक्रवार को अपना प्रशिक्षण लेकर गांव आ जाता । तभी करोना का समय आ गया तब एक साल तो मेरा घर पर हि निकल गया । कोरोना के कारण पेशिया भी कम हि लगती , और महेन्द्र की जमानत भी नही हो पाई ।अदालती कार्यवाही मे चार साल बीत गये तब जाकर कही गवाही आना शुरु हुई । सबसे पहले मनीषा की सहेली को बुलाया जाता है । पुलिस मे उसके द्वारा बयान दर्ज किया गया था । की मनीषा ने उसे मोबाइल पर बताया था की ससुराल वाले उसे दहेज़ के लिए परेशान करते है । परन्तु जब कोर्ट मे पूछा गया तब उसने इस बात से साफ इंकार कर दिया की ऐसा बयान उसके द्वारा नही दिया गया ।उसने कोर्ट को बताया की । मनीषा के पिता ड्राइवर थे । वह उन्हे पहले से जानती है । एक दिन उसे अचानक फोन आया की हमीदिया आओ , मनीषा ने आत्महत्या की है । तब मै वहां आई । मुझे नही मालूम की , मनीषा ने आत्महत्या क्यो की ।

हम नही जानते थे , की ये मनीषा की कौनसी सहेली है ।  पुलिस के सामने उसने जो भी बयान दिये , पर कोर्ट मे उसने झूठ नही बोला । वकील साहब ने भी उससे कोई प्रति प्रश्न नही किये । पुलिस के सामने जो बयान लिखवाये गये वो तत्कालीन परिस्थितियों मे दिये गये । ये वही परिस्थितियां है जब बिना उचित कारण जाने ,सही या गलत सोचे बिना आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते है । एवं परिवार वालो के कहने पर कोई भी व्यक्ति उलटे सीधे बयान पुलिस को दे देता है ।

अगला गवाह मनीषा की मौसी की लड़की है । जो पुलिस विभाग मे कार्यरत है । पुलिस को दिये गये बयान मे उनके द्वारा कहाँ गया था की मनीषा की मौत का कारण ससुराल पक्ष द्वारा दहेज़ के लिए प्रताड़ित करना है । मनीषा ये सब बाते उन्हे मोबाइल पर बताती थी।  परन्तु कोर्ट मे जब बयान होते है तब वह पुलिस को दिये गये बयान से पलट जाती है । कोर्ट मे उन्होंने कहाँ की मनीषा से उनकी मुलाक़ात मायके आने पर होती थी । मनीषा को दहेज़ के लिए प्रताड़ित किया जाता था , या ससुराल वाले उसे परेशान करते थे । इस बात से उन्होंने साफ इंकार करते हुए कहाँ की , इस तरह की कोई बात कभी मनीषा ने मुझसे नही कही।

ईश्वर और देश की न्यायपालिका पर मुझे पूर्ण विश्वास था । मुझे ये भी विश्वास था , की जितने लोगो ने बयान दिया है । सभी यहाँ तो सच बोलेंगे । ये वही लोग थे जिन्होंने पुलिस को बयान देते समय बहुत आरोप लगाए थे , किसी से तो मै आज तक मिला हि नही था ।

मेरी आत्मकथा लिखने का उद्देश्य यहाँ स्वयं को निर्दोष साबित करना नही है । स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए न्यायपालिका हि मेरे लिए माध्यम है । इस बात को मै भली भांति समझता हु । मै यह भी जानता हु की सभी अपराधी स्वयं को निर्दोष हि मानते है । परन्तु क्या आप यह पूर्ण विश्वास से कह सकते है की सभी अपराधियों ने वास्तव मे कोई अपराध किया है । क्या इतिहास मे किसी निर्दोष को अपराधी नही बनाया गया ? क्या जेल मे बंद लाखो अपराधियों में कोई भी निर्दोष नही है ?क्या सभी अपराधियों को सजा मिल पाती है ?

ये वो प्रश्न है जो समाज के हर व्यक्ति के मन मे कही ना कही छूपे बैठे है । इनके जवाब व्यक्ति तभी तलाशता है । जब उसके जीवन की कोई घटना उन्हे इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिए मज़बूर कर देती है । ये कहानी सिर्फ मेरी नही है । मेरे जैसे हज़ारो निर्दोष लोगो की है ,जो कहीं ना कहीं समाज की व्यवस्था एवं बुराइयों का शिकार हुए है । उन हज़ारो मे शायद बहुत से लोग आज इस दुनिया मे नही है । आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े सामाजिक चिंता का विषय है , इससे सरकार भी अनभिज्ञ नही है , झूठे आरोप प्रत्यारोप इसके मूल मे है।

अदालत मे पेशी करते करते चार साल गुजर गये । पर अभी तक पूरे गवाह हाजिर नहीं हुए । खासकर मनीषा के परिवार वाले । पुलिस वाले , डॉक्टर सभी के गवाही होती है । दहेज़ प्रताड़ना सम्बन्धी कोई ठोस गवाह अभी तक नहीं आया । सिर्फ आत्महत्या की पुष्टि हुई । बाकी जिस आधार पर केस बनाया गया ।उससे सम्बन्धी कोई गवाही नहीं हुई । वर्ष मे जो 13 आकस्मिक अवकाश मुझे मिलते पेशी करने मे हि गुजर जाते । पर मैने भी सोचा की ईश्वर के यहाँ देर है , अंधेर नहीं । एक गुणवत्तापूर्ण न्यायप्रणाली , न्याय का भार अपने सिर पर उठाये हुए है । धीरे काम होगा , परन्तु मुझे न्याय मिलेगा । दहेज़ प्रताड़ना के कारण तो मेरा पुरा जीवन नाना नानी के यहाँ गुजरा , इसे गलत तो मै भी मानता हु ।

परन्तु बदले की भावना किसी , किसी निर्दोष को फंसाना , हृदय पर एक प्रहार की तरह था । क्योकि मनीषा की मृत्यु के पश्चात मनीषा की माँ  ने कहाँ था , की किसी को सुकून से नही रहने दूंगी । किसी की लड़की की आकस्मिक मृत्यु होती है , तो स्वाभाविक है की वह दुखी है। पर इसका मतलब ये तो नहीं की आप सभी को अपराधी बना दो ।

Robert Frost की एक Poem है । Fire And Ice

Some say the world will end in fire

Some say in ice.

From what I’ve tasted of desire

I hold with those who favour fire.

But if it had to perish twice,

I think I know enough of hate

To say that for destruction ice

Is also great

And would suffice.

इस कविता मे कवि उन दो तरीको को व्यक्त करता है जिनसे दुनिया ख़त्म हो सकती है । कुछ लोग कहते है की दुनिया आग से ख़त्म हो जाएगी जबकी अन्य कहते है की यह बर्फ से ख़त्म हो जाएगी । आग मे दुनिया को समाप्त करने की क्षमता है , परन्तु कवि फिर सोचता है । की यदि दुनिया को दो बार ख़त्म होना है तब बर्फ मे भी क्षमता है । जो इस दुनिया का अंत कर सकती है ।

कवि आग और बर्फ की तुलना मनुष्य के आत्म- विनाशकारी स्वभाव से करता है । कवि आग की तुलना व्यक्ति की इच्छा , लालच और वासना से करता है । ऐसी भावनाओं का कोई अंत नही है । जितने अधिक उन्हे मनुष्य पुरा करने की कोशिस करते है उतनी ही तेजी से ये भावनाएं फैलती है ,आग के समान । ये भावनाएं अक्सर मानव जीवन को प्रभावित करती है । और वे उनमे फंस जाते है । परिणाम स्वरुप लोग अहंकारी , स्वार्थी और इतने क्रूर हो जाते है । की स्वयं की इच्छापूर्ति ना होने पर आत्मघाती कदम भी उठा लेते है । जो मनीषा ने किया यह वही स्थिति है । शान्त भाव से अगर रास्ते खोजे जाये । तब हर समस्या का हल मिल ही जाता है ।

दूसरी ओर , कवि ने बर्फ या हिम को मानवीय भावनाओं के कठोर एवं घृणित और घृणित पक्ष के रूप मे वर्णित किया है । लोग कठोर हो जाते है , और दूसरे की भावनाओं की परवाह नही करते ,वे दुसरो के सुख एवं दुख के प्रति उदासीन रहते है । मनीषा के परिवार वाले इसी नफरत से ग्रसित होकर सभी को अपराधी बना चुके है ।

कविता का संदेश अंततः यही है की मानवीय भावनाएं आग और बर्फ की तरह तेजी से फैल रही है । जो इस दुनिया के अंत के लिए काफी है ।

अब इस परिस्थिति मे न्यायपालिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है ।पुलिस प्रशासन और न्याय पालिका का दायित्व समाज की अराजकता को रोकना है । देश की न्याय व्यवस्था जितनी पारदर्शी और तार्किक होगी । समाज उतना ही सुरक्षित होगा । इसके विपरीत प्रशासन के नुमाइंदे  स्वार्थी या संकुचित विचारधारा के होंगे । तब दुनिया को ख़त्म करने मे यही व्यवस्थाएं सहयोग प्रदान करेंगी।

एक शिक्षक के रूप में, मेरा कर्तव्य है छात्रों को समाज की हर बुराइयों से परिचय करवाना और उनके व्यक्तित्व का निर्माण करना। जब कोई छात्र विद्यालय में प्रवेश लेता है, तभी से उसके व्यक्तित्व का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है।

विद्यालय में महापुरुषों की कथाओं और जीवन चरित्र के माध्यम से छात्रों को जीवन के मूल्यों और सिद्धांतों को सिखाया जाता है। मैंने कभी भी अपने छात्रों को सिर्फ उत्तीर्ण होने या अच्छे नंबर लाने के लिए नहीं पढ़ाया, बल्कि मेरी प्राथमिकता थी कि वे जो भी पढ़ें, उसको अपने जीवन में अपनाएं और जीवन की कठिन परिस्थितियों में सही निर्णय ले सकें।

दंत कथाएं मात्र पाठ्यक्रम का हिस्सा नही है। बल्कि जीवन मूल्यो की शिक्षा है । आज अधिकांश विद्यार्थी और संस्थानों का उद्देश्य सिर्फ मेरिट मे स्थान प्राप्त करना है । चाहे पाठ्यक्रम की समझ हो या ना हो , रट्टा मारकर  सफल होना कहीं ना कही स्वयं के जीवन के साथ एक छल है।

जीवन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आप जो भी ज्ञान अर्जित करते हैं, उस पर आपका विश्वास कितना है और उसे अपने जीवन में कितना अपनाते हैं। परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर किसी अच्छे पद या प्रतिष्ठा को प्राप्त करना सरल है, लेकिन यह निश्चित नहीं है कि वह व्यक्ति जीवन की परीक्षा में भी सफल होगा।

परीक्षाएं जीवन में कभी समाप्त नहीं होतीं। एक व्यक्ति को समाज में अपनी पहचान और वजूद स्थापित करने के लिए जीवन भर कई परीक्षाओं को पार करना पड़ता है। इनमें विद्यार्थी जीवन की परीक्षाएं भी शामिल हैं, जो यह निर्धारित करती हैं कि हम समाज में किस रूप में सेवाएं प्रदान करेंगे, चाहे वह डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासनिक सेवाएं या व्यापार हो।

इसके अलावा, जीवन में विपरीत परिस्थितियों का सामना करना भी एक परीक्षा है, जो यह निर्धारित करती है कि हम जीवन में कितने सफल होंगे। मैंने देखा है कि कई आईएएस, आईपीएस अधिकारी जिन्हें अच्छी शिक्षा, अच्छे स्कूल और अच्छा माहौल मिला, उन्होंने देश की बड़ी परीक्षाओं में सफलता हासिल की, लेकिन जीवन की विपरीत परिस्थितियों का सामना करने में असफल सिद्ध हुए और घरेलू और नौकरी संबंधी परेशानियों के कारण आत्महत्या जैसे कुकृत्य को कर बैठे।

मैं दावे से कहता हूं कि ये वही लोग हैं जो सिर्फ अंक और मेरिट को जीवन की सफलता का आधार मानते थे। जीवन की कठिन परिस्थितियों में हम अपनी अंकसूची मे प्राप्त अंकों को देखकर निर्णय नहीं लेते, बल्कि हमारे निर्णय उस ज्ञान एवं अनुभव से प्रभावित होते है । जिन पर हमारा अटूट विश्वास होता है ।

मैं ,  स्वयं भी आज अगर जीवित हूं , तो सिर्फ इसलिए क्योंकि मै  हमारे देश की संस्कृति, महापुरुषों के जीवन चरित्र और शास्त्रों से प्रभावित हु। प्रत्येक पुरुष तभी महापुरुष बनता है जब उसने कठिन संघर्ष का सामना किया हो। जीवन की विपरीत परिस्थितियों में ही आप इस दुनिया की वास्तविकता से परिचित होते हैं।

हम झूठे केस की पेशी करते करते थक चुके थे। हर महीने कम से कम दो बार भोपाल आना-जाना लगा रहता था। मनीषा के परिवार के सदस्यों की गवाही के अलावा सभी महत्वपूर्ण गवाह आ चुके थे। मनीषा के माता-पिता को बार-बार अदालत द्वारा समन जारी किया गया, लेकिन वे हर बार बहाना बना देते।

वास्तव में मनीषा के परिवार ने हम पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था। उन्होंने धमकी दी कि अगर हमने उन्हें 20 लाख रुपये नहीं दिए तो वे हम सभी के खिलाफ गवाही देंगे और हमें सजा भुगतनी पड़ेगी।

लेकिन मेरे लिए इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था करना असंभव था। महेन्द्र तो पहले से ही 6 साल से जेल में बंद था, और मेरे ससुराल वाले भी इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था नहीं कर सकते थे।

उनकी धमकी ने हमें मानसिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया था। हमें लगा कि हमारी जिंदगी के साथ खिलवाड़ किया जा रहा

उच्च न्यायालय द्वारा भी महेन्द्र को जमानत नहीं मिल पा रही थी, क्योंकि मनीषा के परिवार वालों की गवाही नहीं हुई थी। और वे जानबूझकर अदालत में आने से बच रहे थे। केस झूठा था, इस बात को वे भी जानते थे। मैं स्वयं को असहाय महसूस कर रहा था, क्योंकि करीबन 6 साल हो गए थे। मानसिक रूप से प्रताड़ित तो हम सभी थे, और अब तो न्याय पालिका पर ही अंतिम विश्वास था कि कम से कम न्यायालय तो इस बात को समझेगा कि ये बहाना क्यों बना रहे हैं।

अंत में, न्यायालय द्वारा गिरफ्तारी वारंट जारी किए जाते हैं, तब कहीं मनीषा के माता-पिता गवाही देने के लिए कोर्ट में आते हैं। मनीषा की माँ ने गवाही में कहा, "ये सभी लोग मेरी लड़की को दहेज के लिए मानसिक रूप से प्रताड़ित करते थे। महेन्द्र को हमने विवाह के समय दो लाख रुपये दहेज नकद दिए थे। उसके बाद भी महेन्द्र अपने जीजा के कहने पर मनीषा से दहेज की मांग करता था।"

वकील साहब ने प्रश्न किये, "आप जो कह रही हैं, उसका आपके पास कोई आधार या सबूत है? या किस तारीख को या किसके सामने आपने पैसे दिए?" तब उन्होंने कहा, "मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं, ये सब मेरे लड़के और पति जानते हैं।"

इसके बाद मनीषा के पिता की गवाही होती है, गवाही में मनीषा के पिता ने भी यही सब बातें कहीं। पैरवी करते हुए वकील साहब ने प्रश्न किये, "आप क्या काम करते हैं? आपकी महीने की सैलरी कितनी है?" उनका जवाब था, "मैं ड्राइवर का काम करता हूँ, 10-15 हजार कमा लेता हूँ।"

वकील साहब ने कहा, "इतनी कम सैलरी में आप ने इतने पैसे कहाँ से दिए?" तब वे चक्कर आने का बहाना बनाकर बैठ जाते हैं। पानी पिलाया जाता है, पर अब सवाल का जवाब देने स्थिति में नहीं थे। फिर भी वकील साहब के पूछने पर उन्होंने कहा, "मैं अपने सेठ से लेकर पैसे देता था।"

वकील साहब ने मुझे आश्वस्त किया, "घबराने की जरूरत नहीं है। झूठी गवाही के कारण केस पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा। उनके पास कोई सबूत नहीं है, और यदि वे सबूत का दावा करते हैं, तो उसे भी गवाही पर आना होगा।"

वकील साहब ने आगे कहा, "हमारा कानून अंधा नहीं है, जो झूठी गवाही पर सजा सुना दे। आप दोनों का इस मामले से कोई संबंध नहीं है, इसलिए चिंता करने की जरूरत नहीं है।"

उन्होंने यह भी कहा, "महेन्द्र को सजा होने की संभावना है, क्योंकि वह उसका पति है, लेकिन आपके लिए कोई समस्या नहीं होगी।"

वकील साहब के शब्दों ने मुझे आश्वस्त किया और मेरी चिंता कम हुई। मुझे लगा कि हमारी ओर से सब कुछ ठीक होगा और न्याय होगा।

इतने दिनों से अदालत मे पेशी करते करते मे ये जान चुका हु की न्यायालय में झूठी गवाही एक गंभीर समस्या है जो अन्याय को बढ़ावा देती है। यह समस्या न केवल न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता को कम करती है, बल्कि यह निर्दोष लोगों को भी प्रभावित करती है। व्यक्तिगत द्वेष के कारण झूठी गवाही किसी एक व्यक्ति या सिर्फ उसके परिवार को प्रभावित नही करती है बल्कि न्यायिक व्यवस्था की छवि को भी धूमिल करती है । साथ हि समाज मे भी अविश्वास की भावना बलवती होने लगती है ।

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Prashant Rajpoot की अन्य किताबें

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रचनाएँ
आत्महत्या पर विजय
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**जीवन: शतरंज की बिसात पर ईश्वर की चाल** जीवन वास्तव में शतरंज के खेल जैसा ही है। हम हर चाल को अपनी योजना के अनुसार चलने की कोशिश करते हैं, यह सोचते हुए कि जीत हमारी मुट्ठी में है। हमें ऐसा लगता है कि हमारी मेहनत, हमारी समझ और हमारे निर्णय ही सब कुछ तय करेंगे। लेकिन तभी, अचानक, ईश्वर अपनी अगली चाल चल देते हैं। और हमें लगता है कि सब कुछ हाथ से फिसल गया, मानो हमारी सारी कोशिशें व्यर्थ हो गईं। परन्तु, यह सही नहीं है कि हमारी हार से ईश्वर प्रसन्न होते हैं। दरअसल, हमारी हार एक नई दृष्टि देती है, एक नई उम्मीद जगाती है। ईश्वर हमें न पूरी तरह हारने देते हैं, न ही तुरंत जीतने। यह दोनों ही स्थितियाँ हमें जीवन के संघर्षों के लिए तैयार करती हैं। हर जीत और हर हार के बीच जो संघर्ष है, वही हमें मज़बूत बनाता है, हमें अपने वास्तविक उद्देश्य और अपनी सीमाओं से परिचित कराता है। जीवन का यह खेल हमें धैर्य सिखाता है। हारने पर हमें लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया है, लेकिन यदि हम ईश्वर पर आस्था बनाए रखें और सही समय की प्रतीक्षा करें, तो वह हमें ऐसा रास्ता दिखाते हैं जो हमने सोचा भी नहीं होता। जीवन की यह यात्रा हमें बताती है कि केवल हमारे प्रयास ही नहीं, बल्कि ईश्वर का समय और उनकी योजना भी महत्वपूर्ण हैं। जीवन की आपाधापी में कभी कल्पनाओं के सागर में डूबने का मौका नहीं मिला। हमेशा असलियत की ठोस ज़मीन पर कदम रखने पड़े। एक घटना ने ऐसा झकझोरा कि मन को शब्दों में ढालने के लिए मजबूर कर दिया। असल में, दुनिया वास्तविक घटनाओं से भरी पड़ी है, जहां हर किसी की अपनी कहानी है, अपने अनुभव हैं। मैं कोई लेखक नहीं हूँ, परन्तु अनुभव बाँटने की एक सच्ची चाहत है। जो भी लिखा है, वह केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि जीते हुए जीवन के अनुभवों का निचोड़ है। जीवन में कई बार ऐसा होता है जब हमें लगने लगता है कि हम हार गए हैं, कि अब कुछ भी ठीक नहीं हो सकता। लेकिन जब हम हार को स्वीकार करते हैं और ईश्वर पर भरोसा रखते हैं, तब हमें यह एहसास होता है कि हर हार एक नयी शुरुआत का हिस्सा होती है। ईश्वर की योजना हमेशा हमारे भले के लिए होती है, भले ही वह हमें पहले दिखाई न दे।
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**"टूटती उम्मीदें और संघर्ष की डोर"**

11 अक्टूबर 2024
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😞😞😞Injustice😞😞😞 आज मेरी बोर्ड परीक्षा में ड्यूटी थी। कक्षा 10 की वार्षिक परीक्षाएं प्रारंभ हो चुकी थीं। मैं प्रातः शीघ्र ही तैयार होकर केंद्र पर पहुंचा। बच्चे अपने अनुक्रमांक देखकर परीक्षा कक्ष

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मेरा जीवन , मेरा संघर्ष

11 अक्टूबर 2024
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🙏 जीवन में आने वाली विषम परिस्थितियाँ कभी-कभी व्यक्ति को निराशा की गहराईयों में धकेल देती हैं, जहाँ उसे लगता है कि अब आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं बचा है। ऐसी स्थिति में, मन में आत्महत्या जैसे घातक

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संयुक्त परिवार का महत्व और जीवन के निर्णय

11 अक्टूबर 2024
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संयुक्त परिवार का महत्व हमारे घर पर एक पुराना लैंडलाइन फोन था। एक दिन अचानक उसकी घंटी बजी। मैंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ एक महिला की आवाज आई। उसने मेरा परिचय पूछा, और जब मैंने अपना नाम बताया, तो उसने

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संघर्ष का सामना

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मेरे घर का निर्माण कार्य चल रहा था, लेकिन तभी मेरी नानी की तबियत खराब हो गई। उन्हें  कैंसर की शिकायत थी और उनका इलाज चल रहा था। मैंने सोचा था कि मेरे घर का निर्माण होने से पहले नानी की तबियत ठीक हो जा

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घृणा की विजय

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"अन्याय और आस्था की परीक्षा""

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जेल का दूसरा दिन   सुबह की पहली किरण के साथ ही मेरे मन में सबसे पहले माँ, मानसी और अथर्व की चिंता कौंधी। यह सोचकर दिल भारी हो गया कि मेरा परिवार इस अन्याय को कैसे सहन कर रहा होगा। मानसी न बोल सकती ह

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"अपराध और समाज का सच"

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बैरिक का लॉकअप होते ही जैसे समय थम सा गया। कल तक मुझे केवल अपनी ही परेशानियाँ दिखाई दे रही थीं, लेकिन अब ऐसा महसूस हो रहा है कि समाज के आईने पर जमी धूल धीरे-धीरे साफ होने लगी है। समाज में छिपे स्वार्थ

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