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जीवन में आने वाली विषम परिस्थितियाँ कभी-कभी व्यक्ति को निराशा की गहराईयों में धकेल देती हैं, जहाँ उसे लगता है कि अब आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं बचा है। ऐसी स्थिति में, मन में आत्महत्या जैसे घातक विचार आना स्वाभाविक हो सकता है, क्योंकि तत्कालिक समस्या के समाधान की राह बंद नजर आती है। मेरे जीवन में भी एक ऐसा ही क्षण आया, जब मैं इन विचारों से जूझ रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो जीवन की हर उम्मीद टूट चुकी हो।
हालांकि, इससे पहले कि मैं आपको उस कठिन दौर की कहानी सुनाऊं, यह समझना आवश्यक है कि मेरे बचपन के संघर्षों ने मुझे इस विषम परिस्थिति से निपटने के लिए किस प्रकार तैयार किया। मेरे जीवन की कठिनाइयों ने ही मुझे सिखाया कि किसी भी चुनौती के सामने हार मानने की बजाय, डटकर उसका सामना करना चाहिए। ये संघर्ष मेरे लिए केवल कठिन समय नहीं थे, बल्कि वे मेरे व्यक्तित्व को गढ़ने वाली कड़ी मेहनत की प्रक्रिया थे।
इसे मैं जीवन का अनुभव कहूँ, या संघर्ष, या फिर एक अनचाही दुर्घटना, पर जो भी हो, यह एक कड़वा सच है जो आज की सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था की असलियत को उजागर करता है। समाज में फैली कुरीतियों को समाप्त करने के लिए जो कठोर कानून बनाए गए थे, वही कानून आज समाज के लिए एक अभिशाप बनते जा रहे हैं।
इस लेखन का उद्देश्य एक सत्य घटना के माध्यम से वर्तमान सामाजिक और न्यायिक व्यवस्था का असली चेहरा दिखाना है। हो सकता है कि यह आपकी धारणाओं से मेल न खाए, या आप इसे मेरा व्यक्तिगत नजरिया मानें, लेकिन हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। किसी भी विषय का सटीक विश्लेषण तभी हो सकता है जब हम दोनों पक्षों को ध्यान में रखें।
मैं पेशे से एक सरकारी शिक्षक हूँ, और इसी कारण मेरा भरोसा हमेशा संविधान और कानून के प्रति अडिग रहा। मैंने कभी अपराध, पुलिस, या थाने से वास्ता नहीं रखा था, इसलिए मुझे कानून की शक्ति और उसकी निष्पक्षता पर संदेह नहीं हुआ। जैसा कि कहा जाता है, "दूर के ढोल सुहावने होते हैं।" लेकिन जब खुद को कानून, पुलिस और जेल का सामना करना पड़ता है, तब असलियत का अनुभव होता है। 42 साल के जीवन में, जिस आधार पर मैंने खड़ा होकर ज्ञान दिया, वह अचानक खोखला साबित हो जाए, तो ऐसा लगता है मानो पैरों तले जमीन ही खिसक गई हो।
कई बार मैंने अपनी आत्मकथा लिखने का विचार किया था, क्योंकि मेरा बचपन अभावों और कष्टों से भरा रहा। पर हर बार यह सोचकर रुक गया कि समाज को अपनी दुखभरी कहानी सुनाने से क्या लाभ, जब अब मैं एक सफल जीवन जी रहा हूँ। लेकिन जीवन में अचानक ऐसा संकट आया जिसने सब कुछ तहस-नहस कर दिया। उसी वक्त मैंने अखबारों में उन खबरों पर गौर किया, जहाँ लोग इसी तरह के हालातों में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। आजकल रोज़ाना समाचार पत्रों में आत्महत्या की घटनाएँ पढ़ने को मिलती हैं, जो लगातार बढ़ रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार,
हर साल करीब 800,000 लोग आत्महत्या करते हैं यानी हर 40 सेकंड में एक व्यक्ति इस रास्ते को चुनता है।और हर मौत के लिए 20 से ज़्यादा लोग आत्महत्या के प्रयास करते हैं। हर साल आत्महत्या के कारण युद्ध और हत्या से होने वाली मौतों से ज़्यादा मौतें होती हैं और स्वास्थ्य एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार 15-29 साल के लोगों में सड़क दुर्घटना के बाद यह मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है।
वैश्विक स्तर पर, 79 प्रतिशत आत्महत्याएँ निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं, हालाँकि उच्च आय वाले देशों में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। अमीर देशों में महिलाओं की तुलना में पुरुषों में आत्महत्या की घटनाएँ तीन गुना अधिक हैं, जबकि गरीब देशों में ये दरें लगभग समान हैं।
आत्महत्या के कारणों में "संघर्ष, आपदा, हिंसा, दुर्व्यवहार या नुकसान और अकेलेपन की भावना का अनुभव करना आत्मघाती व्यवहार से दृढ़ता से जुड़ा हुआ है।" भेदभाव का अनुभव करने वाले कमज़ोर समूहों में आत्महत्या की दर अधिक है और "अब तक, आत्महत्या के लिए सबसे मजबूत जोखिम कारक पहले की आत्महत्या की कोशिश है।"
इन घटनाओं को पढ़कर एक बात साफ समझ आती है—जो व्यक्ति जीवन की कठोरतम परिस्थितियों में भी खुद को मजबूत रख सकता है, वही इस संघर्षमय संसार में टिक पाता है। जीवन में चुनौतियाँ हर किसी के सामने आती हैं, और इसे स्वीकार करना ही एक सच्चाई है। आत्महत्या के मामलों में हो रही इस बढ़ोतरी को देखकर मुझे यह एहसास हुआ कि मेरी कहानी उन लोगों तक जरूर पहुँचनी चाहिए जो इस घातक रास्ते की ओर बढ़ रहे हैं या इसे सहानुभूति से देख रहे हैं।
मैंने भी ऐसे कठिन क्षणों का सामना किया है, जब जीवन में आत्महत्या के सिवाय कोई और रास्ता नजर नहीं आता था। लेकिन तब मुझे अपनी माँ का संघर्षपूर्ण जीवन याद आया। उन्होंने मुझे सिखाया कि जीवन के कठिन समय में खुद को कैसे बचाए रखना है। यह समझ मुझे विरासत में मिली है, और यही वजह है कि मैंने अपनी आत्मकथा लिखने का निर्णय लिया। मेरा उद्देश्य सिर्फ अपनी कहानी कहना नहीं है, बल्कि यह संदेश देना है कि जीवन चाहे जितना भी कठिन हो, हार मानने की बजाय डटकर उसका सामना करना ही असली जीत है।
मुझे उम्मीद है कि मेरी आत्मकथा समाज के उन लोगों के लिए प्रेरणा का कार्य कर सकेगी, जो किसी न किसी मुश्किल से गुजर रहे हैं।
आगे की कहानी में आप जानेंगे कि कैसे मैंने अपने विचारों को बदलते हुए जीवन की ओर एक नई दृष्टि प्राप्त की, और उस निराशा से बाहर निकलने का मार्ग पाया।
मेरी कहानी उस दौर की है जब मेरी ज़िन्दगी का रुख अचानक से बदल गया था। मेरा जन्म भोपाल, मध्य प्रदेश में हुआ। हालांकि मुझे अपने पिता, दादा और दादी का चेहरा धुंधला सा याद है क्योंकि जब मैं सिर्फ चार साल का था, तभी से मेरी परवरिश ननिहाल में शुरू हो गई थी। मेरे पिता की प्रवृत्ति आपराधिक थी, और दादी उन्हें बेहद प्यार करती थीं, शायद इसीलिए उन्होंने उनकी हरकतों को नजरअंदाज कर दिया। जब भी वे किसी मुसीबत में फंसते, मां को टॉर्चर किया जाता और पैसे की मांग की जाती थी, जिसे मेरी मां अपने मायके से लाने पर मजबूर होती।
मेरे नाना एक सरकारी स्कूल के शिक्षक थे और भोपाल से 60 किलोमीटर दूर सीहोर के एक गाँव में रहते थे। ऐसी कठिनाइयों से जूझते हुए एक दिन मेरे पिता घर पर एक महिला को लेकर आए, जो एक नई नवेली दुल्हन की तरह सजी हुई थी। दादी ने पिता से कुछ पूछा और फिर वे दोनों उसे लेकर कमरे में चले गए। मां और मैं रसोई में बैठे थे। थोड़ी देर बाद दादी ने मां से कुछ बात की, जिसके बाद मां की आँखें आंसुओं से भर आईं। मैंने पिता से पूछा कि माँ क्यों रो रही है, तो उन्होंने जवाब दिया कि यह तुम्हारी "नई माँ" है। यह सुनकर मैं भागकर अपनी माँ के पास गया, जो अकेले बैठकर रो रही थी।
दादाजी शांत स्वभाव के थे और दादी के सामने उनकी एक नहीं चलती थी। अब मेरे परिवार से कोई उम्मीद रखना बेकार हो गया था। मां शायद अपने मायके से मदद की उम्मीद लगाए बैठी थीं। उस वक्त जो परिस्थिति बनी, वह साफ तौर पर मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न का हिस्सा थी। अगर आज के दौर से तुलना करें तो शायद दहेज और उत्पीड़न के ऐसे मामले आम हो गए हैं, लेकिन उस समय यह घटना हमें अंदर तक झकझोर देने वाली थी।
ऐसी विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए किसी भी महिला के पास तीन विकल्प होते हैं। पहला, वह ससुराल में रहकर कानूनी सहारे की उम्मीद करे, लेकिन मेरे पिता की आपराधिक प्रवृत्ति के कारण यह विकल्प मेरे नाना और मां के लिए व्यर्थ था। दूसरा विकल्प था ससुराल छोड़कर नई जिंदगी की शुरुआत करना, लेकिन उस वक्त समाज ऐसी महिलाओं को तानों से भरी जिंदगी ही देता था। और तीसरा विकल्प था आत्महत्या, जो सबसे आसान लग सकता है, लेकिन मेरी मां ने इस रास्ते को नहीं चुना।
आत्महत्या किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती। यह केवल मानसिक कमजोरी का प्रतीक है। मेरी मां ने संघर्ष को चुना और मुझे एक बेहतर भविष्य देने का संकल्प लिया। मेरे नाना और उनके परिवार ने हमें पूरा सहयोग दिया, और मेरी माँ ने हर मुश्किल का सामना सिर्फ मेरे लिए किया। उस दौर में लोगों का ईश्वर पर अटूट विश्वास था, और आत्महत्या को अपराध माना जाता था।
मेरे नाना-नानी और मामा-मौसियों के बीच मेरी परवरिश हुई। सभी का मुझ पर विशेष ध्यान था, खासकर मेरी शिक्षा को लेकर। ग्रामीण क्षेत्र में उस समय अच्छी शिक्षा का अभाव था, लेकिन मेरी माँ ने मुझे शहर के एक अच्छे निजी स्कूल में दाखिल करवा दिया। मेरे पिता और दादा कभी-कभी मुझसे मिलने आते, पर माँ के लिए किसी और महिला के साथ रहना अस्वीकार्य था, इसलिए हम उनसे दूर ही रहे।
आज, जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो महसूस करता हूँ कि मेरी माँ का संघर्ष और साहस ही वह वजह थे, जिन्होंने मुझे जीवन के हर संघर्ष के लिए तैयार किया। आत्महत्या एक कमजोर विकल्प हो सकता है, लेकिन संघर्ष करना ही असली जीवन है।
मेरी माँ का जीवन उद्देश्य था मुझे एक बेहतर भविष्य देना, और मेरा जीवन का उद्देश्य था माँ को खुश देखना और उनकी उम्मीदों पर खरा उतरना। हमारे जीवन एक-दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर थे। माँ ने अपना हर सपना, अपनी हर खुशी मेरे भविष्य के लिए त्याग दी, और मैं उनके संघर्ष को देखकर खुद को काबिल बनाने की कोशिश कर रहा था। बचपन 8x8 फीट के छोटे से किराये के कमरे में बीता। हमारे पास सीमित साधन थे, लेकिन माँ की मेहनत और समर्पण ने हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी।
माँ ने एक निजी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली, जहाँ उन्हें मात्र 300 रुपये मासिक वेतन मिलता था। उस समय, हमारा कमरे का किराया ही 200 रुपये था। बाकी के खर्चों के लिए हम नानाजी पर निर्भर थे। जब मैं आठ साल का हुआ, मुझे हमारी आर्थिक स्थिति की स्पष्ट समझ होने लगी थी। छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी मुझे कई बार सोचना पड़ता था कि माँ से कहूं या नहीं। हर शनिवार हम गाँव जाते, जहाँ से राशन-पानी का सामान लेकर सोमवार को वापस शहर आ जाते। माँ के साथ हर संघर्ष में मुझे भी अपने उत्तरदायित्व की समझ बहुत जल्द हो गई थी।
मेरे मामा और मौसियां गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ते थे, लेकिन नानाजी ने मुझे शहर में पढ़ने के लिए भेजा ताकि मुझे बेहतर शिक्षा मिल सके। मेरी स्कूली शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी, और अब मेरे साथी बड़े शहरों में इंजीनियरिंग, आईटीआई और सिविल सर्विसेज की तैयारी करने जा रहे थे। मेरी भी इच्छा सिविल सर्विसेज की तैयारी करने की थी, लेकिन आर्थिक स्थिति को देखते हुए मैंने सरकारी कॉलेज में प्रवेश लिया।
कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ मुझे माँ की आर्थिक मदद करने की भी जरूरत महसूस हुई। इसलिए मैंने मकान मालिक के बारदाने के कारखाने में मुनीम की नौकरी कर ली, जहाँ मुझे 800 रुपये महीने मिलते थे। मेरा काम सुबह 9 बजे कारखाना खोलना, मजदूरों की दिनभर की गतिविधियों का हिसाब रखना और शाम को कारखाना बंद कर मालिक को रिपोर्ट देना था। इसके साथ ही मैं अपनी कॉलेज की पढ़ाई भी जारी रखता था। यही मेरी दिनचर्या बन गई थी।
हालांकि, जीवन में कोई स्पष्ट उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। करियर को लेकर चिंताएं थीं और आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं थी कि मैं खुद का कोई काम शुरू कर सकूं। जब दूसरों से अपनी तुलना करता, तो मुझे ईश्वर से शिकायत होने लगती कि उन्होंने मुझे ऐसा जीवन क्यों दिया। ऐसा लगता था जैसे सारी परेशानियाँ मेरे हिस्से में ही आ गई थीं। लेकिन असल में, ये सिर्फ जीवन की शुरुआती चुनौतियाँ थीं; मुझे अभी वास्तविक संघर्षों से परिचय होना बाकी था।
इस बीच, मेरे एक करीबी दोस्त ने प्रेम संबंधों में असफल होने के कारण आत्महत्या कर ली। यह घटना मेरे लिए बेहद दुखद थी, क्योंकि वह मेरा बहुत अच्छा मित्र था। लेकिन बाद में मैंने समझा कि उसका यह कदम प्रेम नहीं, बल्कि उसकी जिद थी। यह जल्दबाजी और अपरिपक्वता का परिणाम था। उसने अपने माता-पिता, जिन्होंने उसे बचपन से प्यार और परवरिश दी, उनके बारे में एक बार भी नहीं सोचा। यह स्वार्थ का ही प्रतीक था, जिसमें उसने सिर्फ अपने अहम की संतुष्टि के लिए इतना बड़ा कदम उठाया।
इस घटना ने मुझे सिखाया कि दुख का असली कारण हमारी महत्वाकांक्षा है। हम जो पाते हैं, उसमें संतुष्ट नहीं होते, और जो नहीं है, वही हमें चाहिए। अगर हम इसी तरह सोचते रहें, तो शायद दुनिया में कोई भी व्यक्ति पूरी तरह से सुखी और संतुष्ट नहीं हो सकता। हमें जो मिला है, उसका ईश्वर को धन्यवाद करना चाहिए। यही समझदारी है।
मुनीम का काम करते हुए एक साल बीत चुका था, लेकिन हमारी आर्थिक स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आया। मेरी तनख्वाह का आधा हिस्सा मकान के किराये में चला जाता था। मुझे अब खुद के लिए एक घर बनाना था, ताकि कम से कम किराये की चिंता खत्म हो। शहर में ज्यादा से ज्यादा 2000 रुपये तक की नौकरी मिल सकती थी, लेकिन सरकारी नौकरी पाने की संभावना बेहद कम थी, और सामान्य वर्ग में होने के कारण उस समय धारणा नकारात्मक थी।
आखिरकार, मैंने फैसला किया कि गाँव में नानाजी के यहाँ जाकर ही कुछ करना बेहतर होगा। वहीं पर कुछ नया करने की योजना बनाने लगा, ताकि जीवन की नई दिशा में कुछ स्थिरता और उम्मीदें जुटा सकूं।
गाँव में आकर मैंने एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया। इस जॉब से मुझे संतुष्टि मिली, क्योंकि शिक्षक बनना मेरे लिए सौभाग्य की बात थी। यहीं रहते हुए मैंने 2004 में अपने निजी विद्यालय की स्थापना का फैसला किया। हालांकि, समय के साथ चुनौतियाँ भी बढ़ने लगीं। विद्यालय तो शुरू हो गया, लेकिन बुनियादी ढांचे के लिए आर्थिक संसाधनों की कमी थी। ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने बच्चों को शिक्षा देना तो चाहते थे, पर आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण निजी स्कूल की फीस समय पर देना उनके लिए कठिन था। फिर भी मैंने प्रयास जारी रखे।
अध्यापन करते-करते मैंने सोचा कि यदि सरकारी शिक्षक बन जाऊं, तो शायद अधिक स्थिरता मिलेगी। इसलिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी शुरू कर दी। 2005 में मैंने पहली बार शिक्षक भर्ती की प्रतियोगिता परीक्षा दी और अच्छे अंक भी प्राप्त किए, परंतु एक महत्वपूर्ण अड़चन थी—मेरे पास आवश्यक व्यवसायिक योग्यता (डी.एड.) नहीं थी। सामान्य वर्ग में होने के कारण प्रतियोगिता भी अधिक थी। संविदा शिक्षक भर्ती के लिए उस समय मेरिट के आधार पर चयन किया जाता था, जिसमें प्रतियोगिता परीक्षा के अंकों के साथ डी.एड. के 20 अंक जोड़े जाते थे। मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं डी.एड. का डिप्लोमा कर सकूं, इसलिए मैंने परीक्षा में अधिक अंक लाकर इस कमी को पूरा करने का निश्चय किया। 2007 में संविदा शिक्षक वर्ग-3 की परीक्षा में आवेदन किया और 200 अंकों के पेपर में 171 अंक प्राप्त किए, जिससे मेरी उम्मीदें और बढ़ गईं।
इसी बीच, घर में मेरी शादी की चर्चा शुरू हो गई। मुझे हमेशा लगता था कि ननिहाल में रहते हुए, एक निजी विद्यालय चलाते हुए, शायद कोई मुझसे शादी नहीं करेगा। परंतु भोपाल में मेरी शादी प्रिया से तय हो गई। 28 वर्ष का हो चुका था, और परिवारवालों ने जो तय किया, मैंने उसे स्वीकार कर लिया। प्रिया के परिवार में माता-पिता के अलावा छोटी बहन अवनी और दो छोटे भाई, देवेंद्र और महेंद्र थे। प्रिया सभी भाई-बहनों में सबसे बड़ी थी। जून 2009 में हमारी शादी हुई।
मेरी पत्नी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, और इस बात का पता मुझे तब चला जब रिश्ता पक्का होने के बाद उसने खुद मोबाइल पर मुझे सच्चाई बताई। हम दोनों ने अपनी वास्तविक स्थिति एक-दूसरे को साफ-साफ बता दी थी, ताकि भविष्य में कोई शिकायत न हो। भले ही हमारे परिवारवालों ने एक-दूसरे को बढ़ा-चढ़ाकर बताया हो, लेकिन सच्चाई पहले से जानकर मैं संतुष्ट था। मेरी पत्नी घर के कामों में कुशल थी, और मेरे ससुर भोपाल में पुलिस विभाग में आरक्षक के पद पर कार्यरत थे। मेरे ससुरालवालों ने मेरी योग्यता और मेरे स्वभाव को देखकर ही शादी का निर्णय लिया था।
शादी के कुछ महीने बाद, 12 अक्टूबर 2009 को मेरी पहली नियुक्ति संविदा शिक्षक वर्ग-3 के रूप में राजगढ़ जिले के एक प्राथमिक स्कूल में हुई। मेरा वेतन 2200 रुपये मासिक था। यह मेरे जीवन की पहली बड़ी सफलता थी। सीहोर जिले में मेरा निवास था और मेरी नौकरी राजगढ़ जिले में, ।
यह मेरी जिंदगी का पहला ऐसा मुकाम था जहाँ मुझे अपना भविष्य सुरक्षित महसूस हुआ। अब मैं आश्वस्त था कि मैंने अपने जीवन के संघर्षों में एक बड़ा कदम पार कर लिया था।
मेरी रुचि के अनुसार ही मुझे मेरा कार्य मिल चुका था—एक शिक्षक के रूप में मेरी पहली नियुक्ति एक प्राथमिक विद्यालय में हुई, जहाँ 100% छात्र मेवाती (मुस्लिम) समुदाय से आते थे। विद्यालय की कुल छात्र संख्या 102 थी, लेकिन मुश्किल से 10-15 बच्चे रोज़ाना स्कूल आते थे। ये बच्चे अपनी कक्षा की मूलभूत दक्षताओं से कोसों दूर थे। अभिभावक केवल सरकारी सुविधाओं के लालच में बच्चों का नामांकन करवा देते थे, पर वास्तव में शिक्षा को लेकर उनका कोई उत्साह नहीं था। इसका एक बड़ा कारण था सरकारी शिक्षकों और स्कूलों पर विश्वास की कमी। इसके साथ ही, मुस्लिम समुदाय के अधिकांश अभिभावक मदरसा की शिक्षा को ही प्राथमिकता देते थे। हालात कठिन थे, और गाँव वालों का सहयोग भी न के बराबर था। फिर भी मुझे विश्वास था कि समय के साथ मैं बदलाव ला पाऊँगा।
विद्यालय में हम दो शिक्षक थे। जब मैं पहली बार स्कूल पहुँचा, तो मुझे देखकर 5-10 बच्चे किसी तरह स्कूल आ जाते थे। वे दोपहर तक रुकते, फिर मध्यान्ह भोजन के बाद घर चले जाते। इसके बाद का समय मैं अकेले ही स्कूल में बैठा रहता था। मेरे सीनियर शिक्षक अक्सर प्रबंधकीय कार्यों में व्यस्त रहते थे—कभी संकुल केंद्र की मीटिंग, कभी दस्तावेज तैयार करना। शुरू में, स्कूल में इस तरह खाली बैठना मुझे भीतर से खाए जा रहा था। ऐसा लगता था मानो मैं केवल शासन की सेवा के नाम पर तनख्वाह ले रहा हूँ, लेकिन जिस काम के लिए मुझे नियुक्त किया गया था, वह तो हो ही नहीं रहा था।
अगले दिन, मैंने सख्ती से निर्णय लिया। मैंने लंच के बाद किसी भी बच्चे को घर जाने नहीं दिया और स्कूल की छुट्टी केवल समय पर ही की। लेकिन इसका उल्टा परिणाम निकला—अगले दिन वे बच्चे भी स्कूल नहीं आए जो पहले आ रहे थे।
अब मैंने गाँव के अभिभावकों से संपर्क किया और पूछा कि उनके बच्चे लंच के बाद स्कूल क्यों नहीं आते। उन्होंने बड़े ही सीधे तरीके से जवाब दिया, "सर, बच्चे दोपहर बाद मदरसा जाते हैं। आप तो बस दो बजे तक पढ़ा दो, हमें कौन-सी नौकरी लगवानी है।" मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि मदरसा की शिक्षा के साथ-साथ यह शिक्षा भी महत्वपूर्ण है, पर उनका जवाब साफ था। "अगर आप चार बजे तक स्कूल लगाएंगे, तो हमारे बच्चे नहीं आएंगे। हमें अपने धर्म की शिक्षा भी देनी है। आपकी नौकरी तो चल ही रही है, बच्चे आएं या न आएं।"
मैंने यह बात अपने सीनियर शिक्षक से साझा की, तो उन्होंने हँसते हुए कहा, "प्रशांत, यहाँ तो ऐसा ही चलता है।" मैंने पूछा, "लेकिन सर, जब कोई निरीक्षण करने आएगा, तब क्या करेंगे?" उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "यह बात सब जानते हैं कि ये लोग पढ़ना ही नहीं चाहते।"
मुझे यह बात हजम नहीं हो रही थी। क्या ऐसा हो सकता है कि कोई माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा न दिलाना चाहें? मुझे यह महसूस हुआ कि इसके पीछे कुछ गहरे कारण हैं।
धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि इसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला—धर्म के आधार पर भेदभाव। चूँकि मैं हिंदू धर्म का था और मेरे अधिकांश छात्र मुस्लिम समुदाय से थे, शायद अभिभावक यह मानते थे कि कोई हिंदू शिक्षक उनके बच्चों को अच्छे से नहीं पढ़ा सकता। उनका विश्वास मदरसा की शिक्षा पर ही था। दूसरा कारण—सरकारी संस्थाओं पर विश्वास की कमी। शायद उन्हें पहले कभी अच्छा शिक्षक मिला ही नहीं था, इसीलिए वे मुझ पर भी भरोसा नहीं कर पा रहे थे।
इन दोनों कारणों को समझने के बाद मुझे अपना रास्ता साफ दिखाई देने लगा। मैंने उन बच्चों पर ध्यान केंद्रित किया, जो स्कूल आ रहे थे। मैंने सबसे पहले उनकी मूलभूत दक्षताओं पर काम करना शुरू किया। जहाँ कक्षा 5 के बच्चे हिंदी तक नहीं पढ़ पाते थे, वहाँ अब तीसरी और चौथी कक्षा के छात्र अपनी दक्षताओं में सुधार करने लगे। समय के साथ अभिभावकों का विश्वास मुझ पर बढ़ने लगा, और इसका परिणाम यह हुआ कि छात्रों की नियमित उपस्थिति भी बढ़ने लगी।
जिस स्कूल में कुल 102 छात्र थे और उपस्थिति मुश्किल से 10-12 रहती थी, वही कुछ वर्षो के पश्चात विद्यालय में कुल दर्ज संख्या 151 तक पहुँच गई और औसत उपस्थिति का ग्राफ भी 90 छात्रों तक पहुँच गया।
तभी एक दिन, हमारे विद्यालय में एक अधिकारी निरीक्षण के लिए आए। जब उन्होंने छात्रों की उपस्थिति देखी, तो उनके चेहरे पर खुशी झलक उठी। इतने बच्चे एक साथ स्कूल में देखना उनके लिए शायद अप्रत्याशित था। लेकिन जब उन्होंने पाठ्यक्रम की किताबें चेक कीं, तो उनका मूड बदल गया। उन्होंने कहा, "आपका सिलेबस पूरा नहीं है। अगली बार, जब मैं अगले महीने आऊँगा, तब तक इन बच्चों का पूरा पाठ्यक्रम खत्म होना चाहिए।"
मुझे पता था कि गलती मेरी थी, पर यह भी समझता था कि मेरा ध्यान सिलेबस पर था ही नहीं। अधिकारी इस बात से अनजान थे कि ये बच्चे पहले कभी स्कूल आते ही नहीं थे। पिछले एक-दो महीने से ही धीरे-धीरे ये बच्चे स्कूल आना शुरू हुए थे, और मेरी पहली प्राथमिकता उनकी मूलभूत दक्षताओं पर काम करना थी—जैसे हिंदी पढ़ना, गणना करना, और सामान्य अंग्रेजी की समझ विकसित करना।
इन बच्चों के लिए पाठ्यक्रम पूरा करवाने से ज्यादा ज़रूरी था कि वे पहले शिक्षा की बुनियादी समझ हासिल करें। उन्हें सिलेबस रटाने का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि उनके पास वह आधार ही नहीं था जिस पर पाठ्यक्रम आधारित था। रटन विद्या में मेरी कोई रुचि नहीं थी, न ही मैंने इसे अपनी प्राथमिकता माना।
हालाँकि अधिकारी ने अपनी बात कही और चला गया, मैंने उसकी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। मुझे पता था कि मैंने सही दिशा में कदम उठाए हैं। इन बच्चों को सिलेबस से अधिक ज़रूरत उस शिक्षा की थी, जो उन्हें जीवन में आगे बढ़ा सके। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण यह था कि बच्चे पढ़ाई से जुड़ें, नियमित रूप से स्कूल आएं, और खुद में आत्मविश्वास महसूस करें।
यह सही था कि पाठ्यक्रम अधूरा था, पर मेरे लिए सबसे बड़ी जीत यह थी कि जो बच्चे पहले स्कूल के नाम से भागते थे, वे अब स्कूल आ रहे थे, बैठ रहे थे, और सीख रहे थे।
समय के साथ मेरा गाँव और वहाँ के बच्चों से लगाव बढ़ता गया। गाँव के लोगों का मेरे प्रति व्यवहार अब अलग नहीं था, वे मुझसे अपनी हर समस्या साझा करते थे। धीरे-धीरे मुझे यह एहसास हुआ कि हर व्यक्ति सबसे पहले इंसान होता है। यह हमारा व्यवहार ही है, जो यह निर्धारित करता है कि लोग हमें किस नजरिए से देखते हैं। अब हिंदू-मुस्लिम का कोई सवाल नहीं था।
मुझे यह अनुभव हो गया था कि समाज की अधिकांश समस्याओं का समाधान शिक्षा में निहित है। अगर बच्चों को समय रहते शिक्षा से नहीं जोड़ा गया, तो केवल उनका भविष्य ही नहीं, बल्कि समाज का भविष्य भी अंधकारमय हो जाएगा। वे एक ऐसे वातावरण में पले-बढ़ेंगे, जहाँ द्वेष और ईर्ष्या की भावना हावी होगी। जो छात्र पहले मुझे दूसरे धर्म का समझकर मुझसे दूरी बनाए रखते थे, वे अब मुझसे हर छोटी-बड़ी बात साझा करते थे।
एक जुम्मे का दिन था, उस दिन अधिकतर बच्चे विद्यालय नहीं आते थे, और जो आते थे, वे भी जल्दी छुट्टी मांगते थे। कुछ बच्चे मेरे पास आकर बोले, "सर, छुट्टी चाहिए।" मैंने पूछा, "क्यों?" उनमें से एक मासूम लड़की बोली, "सर, जुम्मा है, नमाज़ पढ़नी है।" मैंने कहा, "नमाज़ यहीं पढ़ लो।" वह बोली, "नहीं सर, यहाँ नहीं पढ़ सकते।" मैंने पूछा, "क्यों?" उसने कहा, "यहाँ फोटो वगैरह लगे हैं, यहाँ हम नहीं पढ़ सकते।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा, "आँखें बंद कर लो, कुछ नहीं दिखेगा, और अल्लाह को याद कर लो।"
वह थोड़ा डरते हुए बोली, "नहीं सर।" मैंने फिर पूछा, "अब क्या समस्या है?" झिझकते हुए उसने जवाब दिया, "सर, जहाँ काफिर होते हैं, वहाँ हम नमाज़ नहीं पढ़ सकते।"
यह सुनकर मैं समझ गया कि इन मासूम बच्चों को इतनी छोटी उम्र में यह सब बातें किसने सिखाई होंगी। मैंने उसे समझाया, "ठीक है, बेटा, मैं बाहर चला जाता हूँ, तुम आराम से नमाज़ पढ़ लो।" बच्चे मुस्कुराते हुए बोले, "नहीं सर, हम यहीं नमाज़ पढ़ लेंगे।"
यह देखकर मुझे समझ आया कि हर बच्चा जन्म से ही निर्दोष होता है, ना वह हिंदू होता है, ना मुसलमान। यदि उसे सही समय पर सही शिक्षा न दी जाए, तो समाज उसे धर्म के बंधनों में बाँधने की कोशिश करेगा।
उस दिन मैंने शिक्षक की जिम्मेदारी को गहराई से महसूस किया। अक्सर लोगों के भेदभावपूर्ण रवैये के कारण ही सामुदायिक तनाव की स्थिति बनती है। मेरे व्यक्तिगत अनुभव ने यह सिखाया कि समाज का सरकारी संस्थाओं पर विश्वास उनके कर्मचारियों की कार्यशैली पर निर्भर करता है। यदि कोई कर्मचारी अपनी सेवा ईमानदारी से निभाए, तो वह पूरे सिस्टम पर जनता का विश्वास कायम कर सकता है, चाहे वह शिक्षा हो, पुलिस हो, या न्यायालय।
धीरे-धीरे, मेरी कार्यशैली को संस्था, अभिभावक, अधिकारी और साथी शिक्षक भी सराहने लगे। इस अनुभव ने मुझे यह समझाया कि एक सरकारी कर्मचारी का असली कर्तव्य केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज और सिस्टम में जनता का भरोसा बनाए रखना है।
घर में खुशी का माहौल था। प्रिया गर्भवती थी, और माँ की खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं भी बेहद खुश था, मन ही मन सोचता था कि अपने बच्चों को वो शिक्षा और सुविधाएँ दूँगा, जिनसे मैं वंचित रहा हूँ। बच्चों के भविष्य के सपने बुनने में खोया रहता। लड़का हो या लड़की, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था, और मेरे परिवार में भी ऐसी कोई सोच नहीं थी।
गाँव में अच्छे अस्पताल की सुविधा नहीं थी, इसलिए मैंने प्रिया को समय आने पर मायके भेज दिया। कुछ दिन बाद, अचानक फोन आया कि प्रिया को अस्पताल ले जाया जा रहा है। माँ ने कहा, "बेटा, तू दिनभर से थका हुआ है। मैं चली जाती हूँ, तू सुबह आ जाना।" मैंने हामी भर दी और माँ को बस से रवाना कर दिया।
अगली सुबह फोन पर खबर मिली, "बेटी हुई है!" यह सुनकर मेरी आँखों में चमक और चेहरे पर मुस्कान आ गई। मैं जल्दी से भोपाल के लिए रवाना हुआ। अस्पताल पहुँचकर जब मैंने अपनी बेटी को देखा, तो वह बिल्कुल गुड़िया जैसी लग रही थी। लेकिन प्रिया और माँ के चेहरों पर चिंता के भाव थे। मैंने तुरंत पूछा, "क्या हुआ?"
माँ ने कहा, "लड़की दूध नहीं पी रही है। वह बहुत कमजोर है, उसे ICU में ले जा रहे हैं।" तभी डॉक्टर साहब आ गए। मैंने घबराते हुए पूछा, "डॉक्टर साहब, बच्ची ठीक हो जाएगी ना?"
डॉक्टर ने कहा, "हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन आगे भगवान की इच्छा।" मैंने और पूछताछ की, तो डॉक्टर ने कहा, "लड़की के दिल में छेद है, माँ और बेटी के ब्लड ग्रुप अलग हैं, और... शायद बच्ची अब्नॉर्मल है।"
यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मानसी के भविष्य को लेकर अनगिनत चिंताएँ मन में आने लगीं। डॉक्टरों ने बताया कि मानसी डाउन सिंड्रोम से पीड़ित है, और उसका शारीरिक और मानसिक विकास सामान्य बच्चों की तुलना में बहुत धीमा रहेगा। यह सुनकर मेरे मन में चिंता और गहरी हो गई—क्या मैं उसकी सही देखभाल कर पाऊँगा? क्या मैं उसे एक सामान्य जीवन दे पाऊँगा?
दो महीने तक लगातार इलाज चला, और आखिरकार मानसी की हालत कुछ स्थिर हुई, लेकिन वह बार-बार बीमार पड़ने लगी। डॉक्टरों के अनुसार उसका वातावरण के साथ सामंजस्य बैठाना आसान नहीं था। मानसी के स्वास्थ्य की चिंता और उसके भविष्य को लेकर मेरा मन हमेशा बेचैन रहता। मुझे यह चिंता सताने लगी कि मेरे बाद उसका ख्याल कौन रखेगा?
मुझे पता था कि समाज ऐसे बच्चों को दया और हीन दृष्टि से देखता है, और यह बात मुझे बहुत चुभती थी। मैं मानसी के लिए जितना कर सकता था, कर रहा था, लेकिन भविष्य की चिंताएँ कम नहीं हो रही थीं। इसके साथ ही, अगर भविष्य में हम और बच्चों की योजना बनाते हैं, तो क्या वही समस्या फिर से होगी? इसलिए मैंने अच्छे डॉक्टरों से परामर्श लिया। उन्होंने हमें भरोसा दिलाया कि अगला बच्चा सामान्य होगा।
2011 में, प्रिया फिर से गर्भवती हुई। हर दिन मेरे मन में एक ही प्रार्थना रहती थी—बच्चा चाहे लड़का हो या लड़की, बस स्वस्थ हो। मानसी मेरे लिए कभी बोझ नहीं थी, लेकिन मैं चाहता था कि उसके साथ किसी भाई या बहन का सहारा हो, ताकि वह अकेलापन महसूस न करे। मानसी का विकास बहुत धीमा था, और उसे चलने में दो साल लग गए। उसकी बीमारी के समय, उसे इतनी सारी दवाइयाँ और इंजेक्शन दिए जाते थे कि उसका दर्द देखकर मेरा दिल तड़प उठता था।
जीवन अब एक नई दिशा में जा चुका था, और मेरा हर दिन मानसी के साथ बीतने लगा। उसकी देखभाल, उसका इलाज, और उसके भविष्य की चिंता—यह सब मेरे जीवन का हिस्सा बन चुका था। मैंने ठान लिया था कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, मैं हर संभव कोशिश करूँगा, मानसी को एक बेहतर जीवन देने के लिए।
समय बीतने के साथ हमारे घर में एक बार फिर खुशी का मौका आया। मेरे यहाँ पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम हमने अथर्व रखा। वह पूरी तरह से स्वस्थ और सामान्य था। लंबे समय बाद हमारे घर में यह खुशी का अवसर आया, जिससे हमारे दिलों में भविष्य को लेकर नई उम्मीदें जगने लगीं।
अथर्व के आने से घर में रौनक लौट आई। मानसी भी अब बड़ी हो गई थी, और उसकी देखभाल और परवरिश में समय के साथ कुछ सहजता आ गई थी। मेरी नौकरी अब स्थायी हो चुकी थी, और वेतन भी सम्मानजनक हो गया था, जिससे हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।
अथर्व की मासूम हंसी और मानसी के प्रति मेरा दायित्व निभाते हुए, मैं एक नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ रहा था। परिवार की देखभाल, भविष्य की योजनाएँ, और नौकरी के साथ संतुलन बनाकर जीवन में नई दिशा मिल रही थी।