संयुक्त परिवार का महत्व
हमारे घर पर एक पुराना लैंडलाइन फोन था। एक दिन अचानक उसकी घंटी बजी। मैंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ एक महिला की आवाज आई। उसने मेरा परिचय पूछा, और जब मैंने अपना नाम बताया, तो उसने कहा, "मैं तुम्हारी बुआ बोल रही हूँ।" मैं थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि मुझे याद नहीं था कि मेरी कोई बुआ थी। मैंने जवाब दिया, "मेरी तो कोई बुआ है ही नहीं।" उस पर उसने कहा, "माँ से बात करा दो।" मैंने फोन माँ को दे दिया।
बात करने के बाद मैंने माँ से पूछा, "कौन सी बुआ थी? और वो क्या कह रही थी?" माँ ने बताया, "वो तेरी बुआ थी, तुमसे मिलने का कह रही थी। रविवार को मिलने आएगी।" इस पर मैंने अनमने ढंग से कहा, "अब क्या मिलना?" मेरे दिल में कोई खास उत्साह नहीं था, क्योंकि जिस बुआ का नाम कभी सुना भी नहीं, उनके आने का क्या मतलब?
रविवार आया, और मेरे घर दो बुआ और मेरे पिता आ गए। पिता ने मेरे सिर पर हाथ फेरा, लेकिन मुझे कोई खास अपनापन महसूस नहीं हुआ। हमारे दादा-दादी का स्वर्गवास हो चुका था, और छोटी मम्मी के दो बेटे थे, जो अब बड़े हो गए थे। उन सबका जीवन संघर्षों से भरा था। पिता की अय्याशी में उनका घर बिक चुका था, और अब वे भोपाल में किराए के मकान में रहते थे। उनके लड़कों को भी सही शिक्षा नहीं मिल पाई थी, और यह सब सुनकर मुझे गीता का ज्ञान याद आ गया—"ईश्वर जो करता है, सब ठीक ही करता है।" मैं सोचने लगा, अगर मैं उनके साथ रहा होता, तो शायद मैं भी आज भोपाल में एक दिहाड़ी मजदूर बनकर रह जाता।
उनसे मिलकर मुझे कोई अपनापन महसूस नहीं हुआ, क्योंकि मेरे अपने वही लोग थे, जिनके साथ मैं बचपन से रहा था। शायद उन्हें अपनी गलतियों का अहसास था, लेकिन मेरे दिल में अब कोई शिकवा नहीं था। मैंने उनसे आदरपूर्वक मुलाकात की, लेकिन साफ-साफ कह दिया, "मुझसे कोई उम्मीद मत रखिए। मैं आपके जीवन में कोई दखल नहीं दूंगा। आप अपनी जिंदगी अच्छे से जिएं, और मुझे अब कोई शिकायत नहीं है।" मैंने उन्हें बिना किसी शिकायत के विदा किया, लेकिन मन में एक ठंडक सी थी कि अब मेरे जीवन में उनकी कोई भूमिका नहीं रह गई थी।
समय धीरे-धीरे बीतता गया। एक दिन अचानक खबर आई कि मेरे ससुर, जो भोपाल में आरक्षक के पद पर थे, का हृदयाघात से निधन हो गया। यह खबर पूरे परिवार पर भारी पड़ी। मेरे ससुर अपने पीछे एक परिवार छोड़ गए थे, जिसमें प्रिया के अलावा तीन और बच्चे थे—देवेंद्र, अवनी, और महेंद्र। देवेंद्र सबसे बड़ा था और उसने 12वीं तक पढ़ाई की थी। अवनी की शादी का जिम्मा मेरे ससुर ने अपने दिल में रखा था, लेकिन बाकी लड़कों से उन्हें कोई खास उम्मीद नहीं थी। ससुराल में माँ का समर्थन हमेशा लड़कों पर रहा, वे उनकी गलतियों को छुपाती रहतीं। जब भी मैं कुछ कहता, मेरी पत्नी प्रिया मुझे यह कहकर चुप करा देती, "ये उनके घर का मामला है, हमें नहीं बोलना चाहिए।"
एक शिक्षक होने के नाते मुझे लग रहा था कि भविष्य में यह परिवार और मुश्किलों का सामना करेगा। आर्थिक रूप से वे संपन्न थे, लेकिन जब भी मैं ससुराल जाता, देखता कि देवेंद्र और महेंद्र का उठना-बैठना गलत संगत में था। उनका घर आने का कोई तय समय नहीं था, और यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आता था। पर मेरे पास कोई अधिकार नहीं था उनके घर के मामलों में बोलने का, और वैसे भी, अब उस घर में मेरी बात सुनने वाला कोई नहीं था।
मैं चिंतित था, क्योंकि मुझे पता था कि ऐसे माहौल में परिवार के भविष्य को संवारना आसान नहीं होगा। मगर मेरे पास सिवाय चुप रहने और अपनी सीमाओं में रहते हुए परिवार का साथ देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था।
मैं अपने ननिहाल के पुराने कच्चे घर में रह रहा था। आर्थिक स्थिति अब ठीक हो चुकी थी, लेकिन नाना जी के स्वर्गवास के बाद मुझे लगा कि अब मुझे अपनी अलग व्यवस्था कर लेनी चाहिए। हमारे पुराने घर में मामाओं के परिवार और मुझे बराबर-बराबर रहने की जगह दे दी गई थी। छोटे मामा ने अपनी जगह नया मकान बना लिया था। हालांकि, मैं वहाँ रह रहा था, लेकिन मन में अक्सर यह ख्याल आता था कि शायद मैं जबरन उनके हिस्से पर कब्जा किए हुए हूँ। मामाओं को शायद कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन मामी को हो सकती थी। इसलिए मैंने भविष्य के बारे में सोचना शुरू किया।
पत्नी का भी विचार था कि अब हमें कहीं दूर जाकर बस जाना चाहिए। आजकल की बहुएँ अक्सर यही सोचती हैं—अलग रहें ताकि किसी का कोई रोक-टोक न हो और स्वतंत्रता मिले। पर मैं संयुक्त परिवार के महत्व को समझता था। जब मैंने राजगढ़ में दो साल तक D.Ed. की पढ़ाई की, तब घर की कोई चिंता नहीं की, क्योंकि मुझे पता था कि मेरा परिवार मेरे पीछे है। माँ इस विषय पर हमेशा चुप रहती थीं, मानो यह फैसला मुझ पर ही छोड़ दिया हो।
संयुक्त परिवार मेरी पहली पसंद थी। बचपन से मैं इसी माहौल में पला-बढ़ा था, इसलिए इन्हें छोड़ने का मन भी नहीं था। लेकिन यह भी महसूस होता था कि मेरा वहाँ कोई हक नहीं था। यह सिर्फ मेरी सोच थी, लेकिन यह मन को बेचैन करती थी। एक दिन मैंने अपनी नानी से इस बारे में बात की। मैंने कहा, "नानी, मैं पास के कस्बे में एक प्लॉट खरीदकर अपना घर बना लेता हूँ।" नानी यह सुनकर तुरंत मना कर देती हैं, "कहीं जाने की जरूरत नहीं है।"
मैंने फिर कहा, "तुम्हारे रहते तो ठीक है, पर आगे तो मुझे जाना ही पड़ेगा।" इस पर नानी ने कहा, "उनके (मामाओं के) भी एक-एक लड़के हैं और तेरा भी एक ही बेटा है। तुम सब साथ रहोगे तो किसी भी मुश्किल समय में एक-दूसरे का सहारा बन सकोगे।" नानी की बात सही थी, लेकिन मुझे बाकियों के विचार भी जानने थे। जब सभी ने नानी की बात का समर्थन किया, तो मैंने भी यहीं रहने का फैसला कर लिया। गाँव का सुकून और शांति मुझे हमेशा से पसंद थे। यहाँ का शांत वातावरण, खुली हवा—यही असली जीवन का सुख है। मुझे शहर की भागदौड़ और भीड़भाड़ वैसे भी रास नहीं आती थी।
संयुक्त परिवार में रहना एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था है, लेकिन यह तब तक ही सफल हो सकता है जब परिवार के सभी सदस्य सहयोग, प्रेम, और त्याग की भावना के साथ रहें। संयुक्त परिवार से अलग होने का सबसे बड़ा कारण स्वार्थ होता है। जब इंसान अलग होता है, तो उसे संयुक्त परिवार के महत्व का एहसास होता है। विषम परिस्थितियों में जब व्यक्ति को अपने परिवार की जरूरत महसूस होती है और वह खुद को अकेला पाता है, तब उसे परिवार के बिना जिंदगी की कठिनाइयाँ और भी भारी लगती हैं। ऐसे समय में गलत निर्णय लेने की संभावना बढ़ जाती है।
मैं हमेशा से यही सोचता था कि जिस तरह मैं उम्मीद करता हूँ कि मुश्किल समय में मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा रहे, उसी तरह मुझे भी परिवार के सुख-दुख में बराबर सहयोग देना चाहिए। यही भावना मुझे अपने परिवार से जुड़ी रखती थी। नाना जी के रहते, जब भी घर के किसी सदस्य को देर होती, तो वे चिंता करते थे, "मालूम करो, कहाँ है, कौन सा काम इतना जरूरी है?" उनका नियम था कि शाम सात बजे तक सभी को घर में होना चाहिए। यह अनुशासन आज भी घर के सभी सदस्य मानते हैं। यही बात मुझे संयुक्त परिवार की अच्छी लगती थी—पूरा परिवार आपकी राह देखता है।
अगर आप सिर्फ अपनी पत्नी, बच्चों, और माँ का उत्तरदायित्व उठाते हैं, तो आप स्वतंत्र हो जाते हैं। देर से घर आएं या कोई और गलती करें, तो आप सोचते हैं कि सबको समझा देंगे। लेकिन संयुक्त परिवार में जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। यह जिम्मेदारियाँ आपको कई बुरी आदतों और गलत फैसलों से बचाए रखती हैं। यही बातें मुझे अपने परिवार के साथ जोड़कर रखती थीं, और मैंने नानी की सलाह मानकर यहीं रहने का फैसला कर लिया।
मेरे ससुर के देहांत के बाद देवेंद्र को अनुकम्पा नियुक्ति मिल गई। अब वही घर की जिम्मेदारियाँ निभा रहा था। पर पिता की नौकरी के साथ-साथ, घर की उलझनों का भार भी उस पर आ गया था। देवेंद्र ने एक ही बात ससुराल वालों से कही थी, "अवनी की शादी जल्द से जल्द कर दो।" लेकिन उसकी बात सुनने वाला कोई नहीं था। महेंद्र मंडी में काम करता था और उसकी आमदनी ठीक-ठाक थी, लेकिन परिवार के सदस्यों में आपसी मनमुटाव बना हुआ था। आखिरकार, देवेंद्र ने रीवा में अपना ट्रांसफर करा लिया।
घर में अब सासु माँ और महेंद्र का ही हुक्म चलता था। परिवार के बिखरते माहौल में मेरी चिंता सिर्फ अवनी की शादी को लेकर थी। जब मैंने फिर से अवनी की शादी का जिक्र किया, तो जवाब मिला, "अच्छा लड़का मिलेगा, तभी करेंगे।" मैंने कहा, "आजकल पढ़े-लिखे लड़के ही चाहिए होते हैं, पर तुमने अवनी को पढ़ाया-लिखाया नहीं है।" मेरी बात को टालते हुए प्रिया ने कहा, "यह उनके घर का मसला है।"
मुझे अपने स्कूल और घर में ही सुकून मिलता था। शिक्षा देना मेरे लिए पूजा थी, और शिक्षक साथियों का सम्मान मुझे और जिम्मेदारी का अहसास दिलाता था। एक शाम, सासु माँ का फोन आया कि हमें भोपाल बुलाया है, महेंद्र के लिए लड़की देखने जाना है। पहले वे महेंद्र की शादी करना चाहती थीं, फिर अवनी की। मैंने सोचा, चलो किसी की तो शादी हो। रविवार को हम इंदौर पहुँचे, जहाँ हमारे रिश्तेदारों द्वारा रिश्ता तय किया गया था। महेंद्र और लड़की, मनीषा, एक-दूसरे को पसंद कर लेते हैं।
लड़की के पिता ने बताया कि वे ड्राइवर हैं, 10-15 हजार कमाते हैं और उनका एक छोटा सा मकान है। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। शादी की तारीख तय हो गई और सब कुछ ठीक चल रहा था। पर मेरी चिंता अवनी को लेकर बनी रही, क्योंकि घर की बड़ी बेटी की शादी किए बिना छोटे भाई की शादी हो रही थी। मुझे यह बात व्यवहारिक रूप से सही नहीं लगी, लेकिन घर के अन्य सदस्यों को इससे कोई समस्या नहीं थी।
नई बहु आने के बाद, मुझे उम्मीद थी कि वह परिवार की जिम्मेदारियाँ समझेगी और अवनी की शादी का रास्ता खुल जाएगा। लेकिन, सासु माँ का कहना था कि पहले बहु लानी है, फिर लड़की की शादी होगी। महेंद्र की शादी के पहले, लड़की वालों ने घर में कुछ बदलाव की मांग की—नई टाइल्स, बाथरूम की मरम्मत और एसी लगवाने जैसी। मुझे लगा कि लड़की गरीब परिवार से है, फिर भी इतनी मांगें! लेकिन परिवार ने इन बातों को स्वीकार कर लिया।
मेरी चिंता अभी भी अवनी की शादी को लेकर थी, क्योंकि उसकी उम्र बढ़ती जा रही थी। मैं महेंद्र की शादी के खिलाफ नहीं था, बस चाहता था कि वह विवाह की जिम्मेदारियों को समझे। मुझे उम्मीद थी कि नई बहु अवनी के स्थान को भरने में मदद करेगी, लेकिन घर के मुद्दे जस के तस बने रहे।
हम एक साधारण कच्चे घर में रहते थे, जहाँ छोटे मामा द्वारा बनाया गया शौचालय सभी के उपयोग में आता था। एक दिन मैंने प्रिया से कहा, "तुम तो शहर की रहने वाली थी, और तुम्हारे घरवालों ने गाँव में शादी कर दी। ऊपर से अब 6-7 साल हो गए हैं, तुम्हारे माँ-बाप ने मुझसे कभी कुछ कहा भी नहीं।"
प्रिया ने शांत भाव से उत्तर दिया, "मेरे माँ-बाप सब जानते हैं कि तुम्हारी सैलरी कितनी है, और शायद मेरे मुकद्दर में यही लिखा था।"
यह सुनकर मैंने सोचा कि चुप रहना ही बेहतर है। मुझे डर था कि कहीं दूसरे घर की समस्या मेरे घर की शांति को भंग न कर दे। हालांकि, प्रिया ने कभी मुझे नीचा नहीं दिखाया था। वह बस अपना दुख मेरे सामने व्यक्त कर रही थी। हमारे बीच कभी ऐसा विवाद नहीं हुआ जिससे संबंधों में कड़वाहट आई हो। शादी से पहले ही मैंने उसे साफ कह दिया था कि मुझे बस अपनी माँ की खुशी चाहिए और ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जिससे उन्हें ठेस पहुँचे।
सास-बहू की लड़ाई तो प्रसिद्ध है, लेकिन हमारे घर में ऐसा कभी नहीं हुआ। इसका एक कारण यह भी था कि मैंने कभी किसी का पक्ष नहीं लिया। यदि किसी दिन मैं गुस्सा होता तो सास और बहू, दोनों पर एकसाथ। नतीजतन, दोनों मिलकर मेरी बुराई करतीं और फिर साथ ही बैठकर हँसी-ठिठोली करतीं।
हम आर्थिक रूप से बहुत संपन्न नहीं थे, लेकिन मुझे अपने भविष्य को लेकर कभी चिंता नहीं हुई। मेरा संयुक्त परिवार और हमारा आपसी समर्पण मेरे लिए हमेशा एक आश्वासन रहा। दूसरी ओर, मेरा ससुराल आर्थिक रूप से ठीक था, लेकिन वहाँ मुझे परिवार में उतनी एकजुटता और निष्ठा नहीं दिखती थी। सब अपनी-अपनी चिंताओं और स्वार्थों में लिप्त लगते थे।
समय बीता और महेन्द्र की शादी हो गई। नई बहू के आगमन से घर में रौनक आई। विवाह के दौरान रिश्तेदारों की बातें सुनने को मिलीं, "दामाद जी, अब बड़ी बेटी की भी शादी कराइए, उसकी उम्र हो गई है। बड़े बेटे का भी विवाह नहीं हुआ और आपने सबसे छोटे की शादी कर दी।"
मेरे पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था। मैंने बस इतना कहा, "आप ही समझाइए।" सब रिश्तेदार अपनी बातें समझाकर चले गए, लेकिन उस समय सबके मन में नई बहू के आने की खुशी थी, इसलिए सारी बातें बस हवा में उड़ गईं।
मेरे परिवार वाले भी कुछ अच्छे रिश्ते बताते थे, लेकिन आगे बढ़ाने की बात तो उन्हीं पर निर्भर करती थी।
समय के साथ मेरे बच्चे भी बड़े हो रहे थे। कहते हैं, माँ के पेट में बच्चा 9 महीने रहता है, लेकिन पिता के दिमाग में वो हमेशा रहता है। मुझे सबसे ज्यादा चिंता मानसी की थी। वह 7-8 साल की हो चुकी थी, लेकिन न तो बोल पाती थी और न ही अपनी दिनचर्या के काम खुद से कर पाती थी। मैंने सोचा कि उसे किसी अच्छे स्कूल में डालना चाहिए, पर ग्रामीण क्षेत्र में इस तरह के स्कूल नहीं थे जो उसकी विशेष ज़रूरतों को समझ सकें।
ससुराल पक्ष से बात की और अवनी के पास मानसी को रखने का निर्णय लिया। उसे "चिंगारी ट्रस्ट" में दाखिल करा दिया, जहाँ फिजिकल थेरेपी की सुविधा थी। गर्मियों की छुट्टियों में मैं और प्रिया वहीं रुककर उसकी थेरेपी करवाते थे। इलाज लंबा चलने वाला था, लेकिन हमारे लिए वहाँ लंबे समय तक रहना संभव नहीं था। घर पर माँ और अथर्व अकेले होते, और मेरी नौकरी भी थी। इसलिए ससुराल वालों से उम्मीद थी कि वे हमारी मदद करेंगे।
सासु माँ ने भरोसा दिलाया कि वे मानसी की देखभाल करवाएँगी। मैंने कहा, "खर्चा मैं वहन कर लूँगा, बस आप उसकी देखभाल कर लीजिए।" रोज हम फोन करके पूछते, तो कभी पता चलता कि उसे थेरेपी के लिए ले गए हैं, और कभी घरेलू कामों का बहाना बना दिया जाता। अवनी को घर के कामों से ही फुर्सत नहीं मिलती थी।
सासु माँ अपनी बहू की तारीफ करती रहती थीं। वहीं, महेन्द्र और मनीषा का अब किसी से मतलब नहीं था। वे ऊपर रहते थे, जबकि नीचे सासु माँ और अवनी रहते थे। खाना नीचे ही बनता था, और भोजन के समय ही थोड़ी-बहुत मुलाकात होती थी। सब कुछ ठीक ही चल रहा था, नई बहू अपने परिवार के साथ खुश थी, और हमें इससे ज्यादा क्या चाहिए था? एक महीने बाद हम मानसी को लेकर घर लौट आए और सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया।
इस दौरान, मुझे प्रिया के ताने सुनते-सुनते 8 साल बीत चुके थे। "कब तक कच्चे मकान में रहेंगे?" वह कहती। "बारिश में तो पूरे घर में सीलन हो जाती है।" माँ ने भी मकान बनाने का दबाव डालना शुरू कर दिया था, क्योंकि अब मेरी सैलरी भी अच्छी हो गई थी। कर्ज से मकान बनाना नहीं चाहता था, पर दबाव में आकर बैंक से लोन लिया और ननिहाल में मकान निर्माण की शुरुआत कर दी। हालांकि, मुझे अपना पुराना कच्चा मकान ही पसंद था—गाँव का शुद्ध वातावरण और शांति मेरी पहली पसंद थी। मेरा विद्यालय भी हरे-भरे खेतों और खुले वातावरण में था। शहर कभी मुझे नहीं भाए। वहाँ एक दिन या दो दिन से ज्यादा रहते ही घबराहट होने लगती थी।
ईश्वर से जो कुछ मिला, उसके लिए मैं हमेशा कृतज्ञ रहा हूँ। मेरे संकुल के सभी शिक्षकों का व्यवहार मेरे प्रति स्नेहपूर्ण था। जिले में भी शिक्षक साथियों के बीच मेरी पहचान बढ़ती जा रही थी। दो साल का शिक्षक प्रशिक्षण कोर्स नियमित रूप से डाइट में किया, जिससे मुझे जिला स्तर पर शिक्षकों से मिलने का अवसर मिला। मेरे मेंटर्स भी मेरी प्रतिभाओं को देखकर खुश रहते थे। सरकारी नौकरी में अधिकारी और कर्मचारी भी मेरे कामकाज से संतुष्ट थे। एक व्यक्ति को जीवन में और क्या चाहिए—एक अच्छा परिवार, मान-सम्मान, और संतोष। जीवन में थोड़ी बहुत समस्याएँ तो सभी के साथ होती हैं, लेकिन मैं ईश्वर से मिला हर सुख मानता था।
संचार सुविधाओं के बढ़ने से दूर-दराज के परिचित भी नियमित संपर्क में रहते थे, तो घरवालों का क्या कहना। आजकल तो शादी के बाद माँ अपनी बेटी के घर की हर खबर रखती है। रोज पूछती है, "खाना क्या बना? किसने बनाया? बर्तन किसने धोए?" प्रिया भी अपने मायके में रोजाना बात करती थी, लेकिन उसका व्यवहार घर में ठीक था, तो मुझे कोई एतराज नहीं था। वह अपने मायके और ससुराल दोनों की समझदारी से देखभाल कर रही थी। समाज की रीति-रिवाजों को भी वह अच्छे से जान चुकी थी।
हर स्त्री अपने मायके का पक्ष लेती है, चाहे वह सही हो या गलत, लेकिन मैंने कभी प्रिया को मायके आने-जाने से रोका नहीं। मैं तो बस यही चाहता था कि सभी हंसी-खुशी रहें। महीने-दो महीने में जब ससुराल जाने का मौका मिलता, तो मेरी छोटी मौसी से भी भोपाल में मुलाकात हो जाती। इस बहाने मुझे भी उनसे मिलने का अवसर मिल जाता, क्योंकि मेरा बचपन उनके साथ ही गुज़रा था। प्रिया से मेरी शादी की बात भी उन्हीं की वजह से हुई थी, क्योंकि वह मेरे मौसाजी के रिश्ते में थी।
इस तरह, जीवन की जटिलताओं और चुनौतियों के बीच भी मेरा परिवार और मेरा जीवन संतुलित रूप से चलता रहा।
महेन्द्र की शादी के बाद ससुराल जाना मेरे लिए बेमतलब सा हो गया था। अब वहाँ बस सासु माँ और अवनी से मिलना होता, बाकी सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त थे। किसी को यह भी फर्क नहीं पड़ता था कि कोई मिलने आया है या नहीं। लोकलिहाज के लिए बस औपचारिकता निभा लेते। ऐसे माहौल में मेरा मन अब ससुराल जाने का नहीं करता।
एक दिन प्रिया ने मुझसे कहा, "देवेंद्र ने अपने लिए रीवा में रिश्ता तय कर लिया है। लड़की वालों को देवेंद्र के घरवालों से मिलना है, तो हमें भी जाना पड़ेगा।" मैं उलझन में पड़ गया। मुझे ऐसा लगा कि हर कोई सिर्फ अपना स्वार्थ देख रहा है और किसी को घर की बड़ी जिम्मेदारियों की परवाह नहीं। घर में अवनी जैसी कुंवारी बहन बैठी है, और ये लोग अपने सुख-सुविधाओं की सोच में लगे हैं। मुझे घृणा होने लगी थी। एक की शादी हो गई और अब किसी को कोई मतलब नहीं कि घर में अवनी की शादी का क्या होगा। इस स्वार्थी रवैये ने मुझे ससुराल जाने से और दूर कर दिया था।
प्रिया से मना भी नहीं कर सकता था, तो बस कहा, "ठीक है, बता देना कब चलना है।" रिश्ता तय हो जाता है और कुछ ही दिनों बाद शादी की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। देवेंद्र ने रीवा में किराए के मकान में रहकर शादी का कार्यक्रम एक होटल में रखा था। भोपाल से ससुराल के सभी लोग ट्रेन से जाने की योजना बना रहे थे। हम भी रात को ट्रेन पकड़ने के लिए तैयार हो गए।
भोपाल स्टेशन पर पहुँचते ही सासु माँ, अवनी, महेन्द्र, मनीषा और मनीषा के परिवार के बाकी सदस्य वहाँ पहले से मौजूद थे। देवेंद्र ने हमें देखकर कहा, "आप तीनों का रिजर्वेशन हो गया है, चिंता मत करो।" मैंने पूछा, "बाकी सबका?" तो उसने हँसते हुए कहा, "अरे, वर्दी किस दिन काम आएगी!" ये सुनकर मुझे बुरा तो लगा, लेकिन क्या कर सकता था। मनीषा की माँ भी बीच में बोल पड़ी, "दामाद जी, इतना डरते क्यों हो, हम तो बिना टिकट के ही यहाँ-वहाँ घूम आते हैं।"
ट्रेन आई, हम अपनी-अपनी सीटों पर बैठ गए, और बाकी सभी बिना टिकट ही हमारे साथ चढ़ गए। देवेंद्र अपनी पुलिस की वर्दी का धौंस दिखाकर सभी को सीट दिलवा देता है। यही सब गलत आदतें हैं जिनकी वजह से मुझे इनके साथ आना-जाना पसंद नहीं। पर क्या करूँ? प्रिया की खुशी और अपने पति धर्म के चलते मुझे ये सब सहना पड़ता था।
ट्रेन में भीड़ बहुत थी। कुछ समय बाद महेन्द्र, देवेंद्र और नितेश दूसरे डिब्बे में चले गए। मुझे समझते देर नहीं लगी कि वे वहाँ जाकर शराब पी रहे थे। यह सब देखकर मुझे और भी अजीब लगा। देवेंद्र को पुलिस की नौकरी में शराब की लत लग चुकी थी। परिवार से दूर रहकर उस पर कोई नियंत्रण भी नहीं था। अनुकंपा नौकरी मिलने से शायद उसे नौकरी की अहमियत समझ नहीं आई थी। सरकारी नौकरी एक जिम्मेदारी होती है, लेकिन इनके लिए यह बस एक स्वार्थ सिद्धि का जरिया बन गई थी।
इनकी इस हरकतों से मैं असहज हो गया था। मैंने सासु माँ से कहा, "इन्हें रोको, ये ठीक नहीं है।" लेकिन वह भी चुप रहीं। महेन्द्र की सासु माँ से भी बात की, तो उन्होंने हँसते हुए कहा, "जवान लड़के हैं, ये सब तो चलता है।" मुझे यह सुनकर और भी झुंझलाहट हुई। मैंने साफ-साफ कह दिया, "अगर ये सब चलता रहा, तो मैं अपने परिवार के साथ यहीं से वापस चला जाऊँगा।" तब कहीं जाकर वे शांत हुए।
यह सब देखकर मेरे मन में हलचल शुरू हो गई। मैं सोचने लगा कि जब एक सरकारी मुलाजिम अपने पद का गलत उपयोग कर रहा हो, तो लोगों का विश्वास उस पर कैसे टिकेगा? यह न सिर्फ उस व्यक्ति की छवि खराब करता है, बल्कि पूरे विभाग और सरकार पर भी असर डालता है। सरकारी नौकरी का असली कर्तव्य होता है कि जनता का विश्वास कायम रखा जाए।
मैं यह सब समझाना भी चाहता था, लेकिन तब जब कोई सुनने की स्थिति में हो। फिलहाल मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं खुद एक चक्रव्यूह में फँसता जा रहा हूँ। देवेंद्र का विवाह हो और मैं इस सब से जल्द से जल्द मुक्त हो जाऊँ—बस यही चाह रहा था। प्रिया से अगर कुछ कहूँ, तो मेरे जीवन में अशांति फैल सकती थी, और उससे कहने का भी क्या फायदा, वह तो वैसे ही दो चक्की के पाटों में पिस रही थी।
मैं भी कहीं न कहीं स्वार्थी था, जो इस परिस्थिति से खुद को बचाने की कोशिश कर रहा था। लेकिन कभी-कभी समझदारी इसी में होती है कि आप हालात का विरोध न करके, उन्हें सही तरीके से संभालें।
आखिरकार देवेंद्र का विवाह शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया। मेरे मन में अब एक ही ख्याल था—अवनी की शादी हो और मैं इस सब से आज़ाद हो जाऊँ। जाते-जाते मैंने सासु माँ से अवनी की शादी की बात छेड़ी। महेन्द्र की सासु माँ ने भी कहा, "हाँ, अब तो दोनों लड़कों की शादी हो गई है, जल्दी से अवनी के लिए भी अच्छा लड़का ढूँढो, फिर तुम भी आराम से रहो।" मुझे लगा कि शायद उन्हें अवनी की चिंता है, पर ये बातें बस औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं लग रही थीं।
अब सब अपने-अपने घरों को विदा हुए, और मैं भी अपने घर लौट आया। मेरे मकान का निर्माण कार्य चल रहा था, तो वैसे भी मुझे जल्दी थी। लेकिन मन में एक संतोष भी था कि यह अध्याय खत्म हुआ। अब अवनी की शादी तक के लिए फुर्सत मिल गई थी।
दो महीने बाद एक रात अचानक महेन्द्र के ससुर का फोन आया। आवाज से ही साफ था कि उन्होंने शराब पी रखी थी। वह गुस्से में थे और बोले, "दामाद जी, मेरी लड़की को परेशान किया जा रहा है। आप भोपाल जाइए।"
मैंने घबराते हुए पूछा, "क्या हुआ? कौन परेशान कर रहा है? बताइए तो सही।"
उन्होंने कहा, "अवनी और सासु माँ उसे परेशान कर रही हैं।"
मैंने स्थिति समझते हुए जवाब दिया, "ठीक है, मैं कल आता हूँ। आप भी आइए, हम वहीं मिलेंगे।"
उसके बाद मैंने प्रिया को फोन पर सब बताया। उसने भी तुरंत मनीषा के घर फोन लगाया। थोड़ी देर बाद पता चला कि महेन्द्र और मनीषा सासु माँ से 20,000 रुपये की माँग कर रहे थे। सासु माँ ने मना कर दिया था, क्योंकि उनके पास उतने पैसे नहीं थे। जब सासु माँ ने पैसे देने से इनकार किया, तो महेन्द्र और मनीषा ने एटीएम कार्ड की माँग शुरू कर दी, जिस पर घर में झगड़ा हो गया था।
अगले दिन मैंने प्रिया को साथ लिया और ससुराल जाने के लिए निकल पड़ा। रास्ते में मैंने महेन्द्र के ससुर को फिर से फोन किया और कहा, "मैं भोपाल जा रहा हूँ, आप भी आइए।"
लेकिन इस बार उनकी आवाज़ बदल चुकी थी। उन्होंने कहा, "नहीं दामाद जी, अब सब ठीक है। हम नहीं आ रहे हैं।"
मैंने फिर जोर देकर कहा, "हम आधे रास्ते में हैं, आप आइए। कुछ तो वजह रही होगी जो रात में फोन किया था।"
उन्होंने थोड़ी झिझक के साथ जवाब दिया, "मैंने अपनी लड़की से बात कर ली है। सब ठीक है। आप घूम आइए, कोई बड़ा मसला नहीं है।"
अब जब हम भोपाल पहुँच चुके थे, तो मैंने सोचा कि चलो मामला जान ही लेते हैं। जब ससुराल पहुँचकर सब से बात की, तो असलियत सामने आई। महेन्द्र और मनीषा ने IPL में 20,000 रुपये हार दिए थे और अपनी मोटरसाइकिल भी गिरवी रख दी थी। जब सासु माँ को यह बात पता चली, तो उन्होंने महेन्द्र को डाँटा। इस पर मनीषा भड़क गई और कहने लगी, "मेरे पति से आप कुछ नहीं कहेंगी। आपके पैसों पर हमारा भी हक है। हमें एटीएम कार्ड दीजिए, हमें जरूरत है।"
सासु माँ ने कहा, "मुझे अवनी की शादी करनी है, मैं पैसे कहाँ से लाऊँगी?" महेन्द्र चुपचाप अपने कमरे में बैठा रहा, जबकि मनीषा ने अपने घर फोन कर दिया और बात बढ़ा दी।
मैंने पूछा, "फिर गाड़ी का क्या हुआ?"
अवनी ने बताया, "रात में ही एटीएम से पैसे निकालकर उन्हें दे दिए गए, तभी मामला शांत हुआ।"
महेन्द्र और मनीषा, दोनों ही मेरे बुलाने के बाद भी बाहर नहीं आए। मैंने सोचा, अब इन्हें छेड़ना ठीक नहीं। वे अपनी ही दुनिया में मस्त थे, घर-परिवार की जिम्मेदारियों से जैसे कोई मतलब ही नहीं था। उनकी दुनिया बस खुद तक सीमित थी।
महेन्द्र को IPL में सट्टा लगाने की आदत थी, और उसकी पत्नी मनीषा ने उसका साथ दिया। मनीषा को लगता था कि अगर वह अपने पति को सपोर्ट करेगी, तो शायद वह अपनी आदतें छोड़ देगा। लेकिन महेन्द्र की आदतें बदले की बजाय और बिगड़ती चली गईं।
इस बीच, सासु माँ और अवनी ने मनीषा को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह महेन्द्र को उसकी गलतियों के लिए अकेला छोड़े, ताकि उसे अपनी जिम्मेदारियों का अहसास हो। लेकिन मनीषा ने परिवार की बात सुनने के बजाय सिर्फ अपने पति का साथ दिया। वह समझ नहीं पाई कि जब वह महेन्द्र का साथ देती है, तो वह और ज्यादा बेकाबू हो जाता है।
महेंद्र और मनीषा के इस स्वार्थी रवैये ने पूरे परिवार का संतुलन बिगाड़ दिया था। महेन्द्र को ना तो घर की परवाह थी और ना ही भविष्य की। IPL में पैसा लगाना और मोटरसाइकिल गिरवी रखना, ये सारी चीजें बताती थीं कि वह अपनी गलतियों को समझने की कोशिश भी नहीं कर रहा था।
मुझे समझ आ चुका था कि ये लोग अपनी ही जिंदगी में मस्त रहना चाहते हैं। घर की जिम्मेदारियाँ और रिश्तों की कद्र उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। उनका ध्यान सिर्फ अपने छोटे-छोटे सुखों तक ही सीमित था।
मैंने सोचा कि अब इस परिस्थिति में कुछ कहना या कोई बड़ा कदम उठाना बेकार है। वे अपनी आदतों से बाहर नहीं आने वाले। मैंने प्रिया से कुछ कहा नहीं, क्योंकि उससे कहने का कोई फायदा नहीं था। वह तो वैसे ही दो चक्की के पाटों में पिस रही थी—एक तरफ अपने मायके की चिंता और दूसरी तरफ अपनी ससुराल की जिम्मेदारियाँ।
मैं भी इस स्थिति में बस यही सोच रहा था कि कभी-कभी समझदारी इसी में होती है कि आप हालात का विरोध न करके उन्हें धैर्य और संयम से संभालें। आप हर परिस्थिति को सुधार नहीं सकते, लेकिन एक उचित दूरी बनाकर खुद को उससे बचा जरूर सकते हैं।
महेंद्र का सट्टेबाजी और लापरवाही भरा जीवन उसकी जिम्मेदारियों से दूर ही होता चला गया। आखिरकार, महेंद्र और मनीषा की आदतों के कारण घर में हर कोई परेशान था, लेकिन कोई भी सामने आकर इन्हें सुधारने की कोशिश नहीं कर रहा था। ऐसे में, मैंने भी सोचा कि अब इस मुद्दे से खुद को दूर रखूं।
समय बीता, और मैं अपने नए मकान के निर्माण में जुट गया। मुझे भी अब बस अवनी की शादी तक इंतजार था।
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