जेल का दूसरा दिन
सुबह की पहली किरण के साथ ही मेरे मन में सबसे पहले माँ, मानसी और अथर्व की चिंता कौंधी। यह सोचकर दिल भारी हो गया कि मेरा परिवार इस अन्याय को कैसे सहन कर रहा होगा। मानसी न बोल सकती है, न किसी बात को समझने में सक्षम है, और अपने रोजमर्रा के कामों में भी असहाय है। जीवन भर मैंने माँ को कभी अकेला नहीं छोड़ा। माँ, जिसने अपना संपूर्ण जीवन मेरे लिए समर्पित कर दिया, अब इस कठिन परिस्थिति में, मानसी को कैसे संभाल रही होगी? माँ और मानसी को कभी अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दिया, और अब इस समय में वह कितनी टूट गई होगी। मेरी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि मेरा परिवार इस विपत्ति के बीच सुरक्षित रहे।
मेरे परिवार के चेहरे, मेरा घर, मेरी आँखों के सामने बार-बार घूम रहे थे। मुझे समाज की परवाह नहीं थी। मुझे यह स्पष्ट विश्वास था कि मेरे साथ जो अन्याय हुआ है, उसे मेरे विद्यार्थी, मेरा गाँव, रिश्तेदार और मित्र सभी भली-भाँति समझ चुके हैं। यहाँ बदनामी मेरी नहीं होनी थी, यह बदनामी इस भ्रष्ट व्यवस्था, झूठे केस बनाने वालों, पुलिस और न्यायप्रणाली की होनी थी। इस समय मैं इन्हें ही अपने साथ हुए अन्याय के वास्तविक अपराधी मान रहा था।
मेरे दिल से निकली हुई एक करुण पुकार ईश्वर से यही प्रार्थना कर रही थी कि यदि मैं निर्दोष हूँ, तो इन अपराधियों को सजा अवश्य मिलनी चाहिए। अब न्यायप्रणाली में मेरा विश्वास लगभग समाप्त हो चुका था। मेरा एकमात्र सहारा ईश्वर था।
लोग अक्सर इच्छा या भय के कारण ईश्वर को याद करते हैं, परंतु मेरी स्थिति इनमें से किसी से प्रेरित नहीं थी। मेरे मन में केवल एक सवाल उठ रहा था—क्या सच में ईश्वर है? यदि है, तो मेरे साथ अन्याय क्यों हो रहा है? क्या यह मेरे प्रारब्ध कर्मों की सजा है, या फिर ईश्वर मेरी किसी कठिन परीक्षा ले रहा है? मैंने मन ही मन यह स्वीकार कर लिया था कि चाहे यह प्रारब्ध हो या परीक्षा, मैं उसे झेलने को तैयार हूँ, लेकिन मेरी एकमात्र प्रार्थना यही थी कि मेरा परिवार सुरक्षित रहे।
अब मेरे सामने दो ही रास्ते थे—यदि ईश्वर है, तो मुझे उस पर आस्था और विश्वास रखना होगा, कि वह समय के साथ अपनी उपस्थिति का प्रमाण देगा। और यदि ईश्वर नहीं है, तो यह स्वार्थी समाज और भ्रष्ट व्यवस्था मेरे और मेरे परिवार के बलिदान से पीछे नहीं हटेगी।
इन दो संभावनाओं के बीच, मैं ईश्वर से आशा लगाए बैठा था, कि एक दिन न्याय होगा और सच का प्रमाण सामने आएगा।
मैं अब भी सदमे में था, लेकिन बैरिक के अन्य कैदियों की निगाहें मुझ पर टिकी हुई थीं। शायद वे मेरी हालत देखकर समझ रहे थे कि मैं इस नई और कठोर दुनिया में खुद को ढालने की कोशिश कर रहा था। मेरे मन में पहले से ही यह धारणा बनी हुई थी कि ये सभी कैदी अपराधी हैं, और उनसे दूरी बनाए रखना ही बेहतर होगा। मुझे डर था कि वे भी मेरे प्रति वैसा ही रवैया अपनाएंगे जैसा मैंने समाज के अपराधियों के प्रति सोचा था।
लेकिन तभी मेरे मन में एक और ख्याल आया—क्या ये भी मेरी तरह इस भ्रष्ट व्यवस्था के शिकार नहीं हो सकते? क्या ये भी बेवजह बली के बकरे बने हैं? मेरे विचारों की इस उधेड़बुन के बीच एक कैदी ने मुझे नहाने का इशारा किया। यह संकेत था कि मुझे अपनी शारीरिक स्थिति पर ध्यान देना चाहिए। मन में चल रही उथल-पुथल से कुछ देर के लिए राहत पाने के लिए मैंने भी अपना नहाने का सामान उठाया और नल के पास चल दिया।
नल पर पानी के लिए अफरा-तफरी मची थी। लगभग 37-38 कैदी एक नल से पानी लेने के लिए कतार में खड़े थे, और नल का समय महज आधे घंटे का था। मुझे पता था कि यहां बिना लड़े पानी मिलना मुश्किल होगा। मैं लड़ाई-झगड़े से बचने के लिए पीछे हटकर खड़ा रहा। तभी एक कैदी, जिसे लोग 'भूरा भाई' कहकर बुलाते थे, ने मेरी बाल्टी हाथ में ली और सभी को दूर हटाकर मुझे पानी दिया। यह देखकर मेरे भीतर उनके प्रति धारणा में थोड़ा बदलाव आने लगा। मैंने भूरा भाई को धन्यवाद कहा और नहाने चला गया।
बैरिक के सामने ही मैदान में एक बड़ा पीपल का पेड़ था, जिसके नीचे एक छोटा सा मंदिर था। वहां बजरंगबली, श्रीकृष्ण,श्री राम भोलेनाथ, शनि देव और मां काली की प्रतिमाएं स्थापित थीं। नहाने के बाद मैं मंदिर के पास गया और पीपल के नीचे बैठकर गहन चिंतन में डूब गया। मेरे मन में अब भी ईश्वर और न्याय को लेकर कई सवाल थे। मैं सोचने लगा कि बाहरी दुनिया में भक्ति इतनी गहरी नहीं दिखती, जितनी इस जेल में कैदियों के बीच दिखाई दे रही थी। यहां लोग सुन्दरकांड और हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे थे, जो मुझे अंदर तक छू गया।
मंदिर से लौटकर, मैंने बैरिक में भोजन किया और फिर वाचनालय में गया। आज के अखबार को उठाया, लेकिन इस बार मेरा ध्यान हमेशा की तरह देश-दुनिया या शिक्षा से जुड़ी खबरों पर नहीं था। अब मेरी नजरें अपराध से जुड़ी खबरों पर ज्यादा थीं। इससे पहले मेरी रुचि इतिहास, मनोविज्ञान, राजनीति, भूगोल और विज्ञान जैसे विषयों में थी, लेकिन आज मुझे अपराधशास्त्र और अध्यात्म से जुड़ी खबरें ही आकर्षित कर रही थीं। शायद यह मेरी परिस्थिति का असर था, जिसने मेरी सोच और रुचियों को बदल दिया था।
अब मेरा मन परिवार और घर की चिंता में उलझा हुआ था, लेकिन मुझे एहसास हो रहा था कि इस मुश्किल समय में, मुझे अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखना बेहद जरूरी है। यही मेरी प्राथमिकता होनी चाहिए ताकि मैं अपने परिवार के लिए मजबूत रह सकूं, चाहे हालात जैसे भी हों।
वाचनालय से बाहर निकलते ही मेरी नज़र सीढ़ियों पर बैठे एक 22-23 वर्षीय युवक पर पड़ी। जैसे ही उसने मुझे देखा, तुरंत सवाल किया, "किस केस में आए हो?"
मैंने धीरे से जवाब दिया, "304B में।"
उसने उत्सुकता से पूछा, "कितनी सजा है?"
मैंने कहा, "दस साल।"
वह ध्यान से मेरी ओर देखता हुआ बोला, "आप महेन्द्र के जीजा जी हो, है न?"
मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा और कहा, "हाँ।"
उसने शांत स्वर में कहा, "चिंता मत करो, एक महीने में बाहर आ जाओगे।"
मेरे मन में सवाल उमड़ आया, "तुम्हें ये सब कैसे पता?"
वह एक हल्की मुस्कान के साथ बोला, "पिछले पांच साल से देख रहा हूँ। तुम अकेले नहीं हो। तुम जैसे कई लोग हैं, जो बेकसूर फंसे हैं। जमाना ही ऐसा है।"
उसकी बातों में अजीब सा सुकून था, पर साथ ही एक गहरी सच्चाई भी।
दोपहर का समय बीत चुका था और ज़्यादातर कैदी अपने-अपने कारखाने जा चुके थे। मैदान में कुछ गिने-चुने लोग ही बचे थे। मैंने एकांत देखकर एक पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठने का निर्णय लिया और वहाँ बैठकर घर की चिंताओं में डूब गया। मन में उलझनों का सैलाब था, और धीरे-धीरे मेरा ध्यान न्यायालय के फैसले पर चला गया। आखिर ऐसी क्या वजह थी, जिसने मुझे इस सजा तक पहुँचा दिया?
मैं जानता था कि मनीषा के माता-पिता के बयान मेरे पक्ष में नहीं थे, परंतु क्या सिर्फ उनके कथनों के आधार पर मुझे दोषी ठहरा दिया गया? या फिर मेरा वकील उनके बयान को गलत साबित करने में विफल रहा? उस दिन जब बचाव पक्ष का अवसर था, वकील साहब ने मुझसे कहा था, "आप चिंता मत कीजिए, सब मैं देख लूंगा।" उन्होंने मुझे पेशी पर जाने से भी मना किया था। लेकिन क्या उन्होंने मेरे निर्दोष होने के प्रमाण सही से पेश किए? ये सारे सवाल मेरे मन में घूम रहे थे, और इनका उत्तर जानने के लिए मुझे फैसले की कॉपी चाहिए थी। तभी मुझे महेंद्र की याद आई। वह जेल के बारे में बहुत कुछ जानता था, क्योंकि पिछले छह साल से यहाँ हवालाती वार्ड में बंद था। वही शायद जजमेंट कॉपी मंगवा सकता था।
शाम धीरे-धीरे ढलने लगी। सभी कैदी मैदान के चारों ओर बनी पगडंडियों पर टहलने लगे। मैदान के कई कोनों में पेड़ों के नीचे चबूतरे बने हुए थे, जहाँ कुछ कैदी बैठकर बातें कर रहे थे। मैंने भी अपने कदमों को मैदान की ओर बढ़ाया, लेकिन मन अभी भी महेंद्र के इंतजार में था। मुझे जजमेंट कॉपी तो चाहिए ही थी, साथ ही, जेल में रहने के तौर-तरीकों को समझने के लिए भी उसकी मदद की ज़रूरत थी। इस वक्त मुझे किसी और पर भरोसा नहीं था, इसलिए मैं सबसे दूरी बनाए हुए था।
तभी मेरी मुलाकात भूरा भाई से हो गई। वे वही थे जिन्होंने कुछ दिन पहले पानी भरते समय मेरी मदद की थी। मुझे टहलते देख वे भी साथ हो लिए। मुस्कुराते हुए बोले, “और सुनाओ, क्या हाल है?”
मैंने हल्के से मुस्कराते हुए कहा, “यहाँ क्या हाल होना है? जैसे आप हैं, वैसे ही मैं भी हूँ।”
इसके बाद उन्होंने मुझसे मेरे बारे में पूछताछ शुरू कर दी—“किस केस में आए हो, कितनी सजा मिली, क्या करते थे, घर में कौन-कौन है, कहाँ रहते हो?” मैंने उनके सारे सवालों के जवाब दे दिए। फिर मेरे मन में भी उनकी कहानी जानने की इच्छा हुई, तो मैंने उनसे बात करना शुरू किया।
भूरा भाई ने बातचीत के अंत में मुझे तसल्ली देते हुए कहा, “तुम जल्दी ही बाहर चले जाओगे। चिंता मत करो। तुम्हारे केस में कुछ दम ही नहीं है। अगर तुम्हारा वकील सही होता, तो तुम यहाँ आते ही नहीं।” उनकी बात सुनकर मुझे थोड़ा सुकून मिला।
मैंने हंसते हुए कहा, “भूरा भाई, आपका नाम बड़ा अच्छा है।”
वे हल्के से मुस्कुराए और बोले, “अरे, यह तो मुझे प्यार से बुलाते हैं। असली नाम तो मेरा देवेंद्र है।”
मैंने थोड़ा झिझकते हुए पूछा, “आप यहाँ कैसे?”
उन्होंने जवाब दिया, “मर्डर केस है मेरा।”
मैंने पूछा, “सजा कितनी है?”
भूरा भाई बोले, “आजीवन कारावास।”
मैंने सहानुभूति भरे स्वर में पूछा, “कितना वक्त हो गया आपको?”
“तीन साल होने वाले हैं,” उन्होंने शांत स्वर में जवाब दिया।
मैंने फिर पूछा, “शादी हो गई है आपकी?”
“हाँ,” उन्होंने कहा।
“बच्चे?” मैंने पूछा।
“अभी नहीं,” उन्होंने उत्तर दिया।
मैंने गंभीरता से कहा, “घर की याद तो बहुत आती होगी आपको।”
भूरा भाई थोड़ा गंभीर होते हुए बोले, “बहुत। पर हम कर भी क्या सकते हैं? जो ईश्वर ने लिखा है, उसे टाल तो नहीं सकते।”
मैंने उत्सुकता से पूछा, “ऐसा क्या हुआ जो आपको किसी का मर्डर करना पड़ा?”
वे बोले, “मैंने मर्डर नहीं किया। हत्या किसी और के हाथों से हुई, लेकिन हम सब उसमें फंस गए।”
“हम सब? मतलब?” मैंने अचंभित होते हुए पूछा।
भूरा भाई ने बताया, “हम तीन भाई हैं, तीनों ही यहाँ हैं।”
“तीनों?” मैंने हैरानी से पूछा। “अब घर पर कौन है?”
“माता-पिता और पत्नी,” वे बोले। “गाँव की लड़ाई थी। हमारे पिता सरपंच थे। विरोधी पक्ष ने हमारे पिता पर हमला किया और हमारे परिवार के एक सदस्य को मार डाला। बदले में हमारे परिवार वालों ने उनके एक आदमी की हत्या कर दी।”
मैंने पूछा, “तो फिर विरोधी पक्ष को सजा नहीं हुई?”
भूरा भाई ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “हम एक ही गाँव के पंद्रह लोग बंद हैं—नौ हमारे परिवार के और छह विरोधी पक्ष के। इसमें हम तीनों भाई भी हैं।”
“पंद्रह लोग? सभी हत्या में शामिल होंगे,” मैंने आश्चर्य से कहा।
“जिस तरह तुम यहाँ नहीं थे, पर तुम्हें सजा मिली, वैसे ही जिनके नाम दिए गए, उन सभी को सजा मिली। हम तीनों भाई उस दिन घटनास्थल पर नहीं थे। पर क्या कर सकते हैं?” उन्होंने दुखी स्वर में कहा।
मैंने विचार करते हुए कहा, “जब दोनों पक्ष के लोग ही जेल में हैं, तो मिलकर समझौता कर सकते थे।”
भूरा भाई ने कहा, “राजीनामा कर लिया है। जेल में हम सब साथ ही रहते हैं, मिलते भी हैं, बात भी करते हैं। पर कोर्ट का फैसला था कि हत्या हुई है, तो सजा तो होगी।”
मैंने मन ही मन सोचा, इस व्यक्ति का दुःख तो मुझसे भी गहरा है। उसकी सजा भी मेरी सजा से कहीं ज्यादा बड़ी है। महेंद्र से आज मुलाकात नहीं हो पाई, पर भूरा भाई से बात करते-करते शाम के छह बज गए थे। तभी लॉक-अप की घंटी बजी। मैंने भूरा भाई से विदा ली और हम अपने-अपने बैरक की ओर चल दिए।
भूरा भाई से मुलाकात के बाद मेरे मन में अपराधियों के प्रति जो धारणा थी, वह अचानक बदल गई। पहले मुझे अपराधियों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं थी, पर उनके साथ बात करने के बाद मुझे लगा कि अपराधियों के जीवन के कुछ पहलू ऐसे होते हैं, जो समाज को दिखाई नहीं देते। भूरा भाई ने अपने जीवन की जो कहानी मुझे सुनाई, वह मेरे अपने जीवन के अनुभवों से कहीं ना कहीं जुड़ी हुई लगी। उन्होंने जो कुछ सहा, वह मेरी तुलना में कहीं ज्यादा था। उनकी सजा भी मुझसे अधिक और लंबी थी। तीन वर्षों का समय जेल में उन्होंने कैसे गुजारा होगा, इस पीड़ा का एहसास शायद मुझसे बेहतर कोई नहीं कर सकता। मुझे तो अभी सिर्फ दो दिन ही हुए थे, और इतने में ही मेरे मन में अपने परिवार की चिंता मुझे खाए जा रही थी।
मैं अपने बच्चों और माँ को छोड़कर यहाँ था, जबकि मुझे मालूम है की मेरा परिवार अभी बहुत बड़ी मुसीबत में है । और मै इतना असहाय हो चुका हु की कुछ नही कर पा रहा हु। जिन बच्चों के आँखों से ओझल हो जाने पर मेरी धड़कने बढ़ जाती थी। मेरी माँ घर पर अकेले कैसे संभाल रही होगी, ये सोचकर दिल बैठा जाता है। भूरा भाई के मामले में तो हालात और भी बुरे थे—उनके सारे भाई जेल में थे। मुझे भले ही अपराधियों की चिंता ना हो, पर उनके परिवारों की स्थिति को देखकर मन विचलित हो उठता है। माता-पिता का दर्द, जिनके बेटे जेल में हों, वह दर्द मैं अब बेहतर तरीके से समझ सकता था। यह स्थिति भयावह थी।
एक ओर मेरे मन में यह भी ख्याल आया कि हर अपराधी अपने को निर्दोष ही साबित करने की कोशिश करता है। लेकिन जब कोई तीन साल से जेल में सजा काट रहा हो, और उसका अपराध साबित हो चुका हो, तो भला वह मुझसे झूठ क्यों बोलेगा? मुझे उनकी पूरी कहानी जाननी होगी, और उनके परिवार के बाकी लोगों से भी मिलना पड़ेगा, ताकि मैं सही और गलत का फर्क समझ सकूं। शायद मैं अब भी अपराधियों के व्यवहार को पूरी तरह नहीं समझ पाया था, लेकिन अपनी पढ़ाई और अनुभवों के आधार पर इतनी समझ जरूर थी कि सच और झूठ के बीच फर्क कर सकूं।
यह भी महसूस हुआ कि असली अपराध शास्त्र की पढ़ाई तो यहीं जेल में ही हो रही थी। किसी विश्वविद्यालय में पढ़ा हुआ व्यक्ति भी वो बातें नहीं समझ सकता, जो मैं यहाँ रहकर समझने लगा था। अपराधों की शुरुआत से लेकर उनके परिणाम तक की पूरी प्रक्रिया का अंतिम पड़ाव तो जेल में ही होता है। अपराधियों के मनोविज्ञान को समझने का यह अनूठा मौका मुझे यहाँ मिला था, और अब मेरा मन इन अपराधियों की मानसिकता और परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन करने में लग गया था।
अंत में, मैंने ईश्वर से अपने परिवार की सुरक्षा के लिए प्रार्थना की और अपनी दरी पर लेट गया। जेल में मेरे लिए यही पल सबसे सुकून भरा था, जब मैं अपने मन की चिंताओं से कुछ पल के लिए मुक्ति पा सकता था। मुझे लगा कि मेरी परेशानियों से छुटकारा पाने के दो ही रास्ते हैं—या तो मैं इस दुनिया को छोड़ दूं, या फिर गहरी नींद में जाकर थोड़े समय के लिए अपनी चिंताओं से मुक्ति पा लूं।
अगली सुबह, अपने परिवार की चिंताओं और भीतर उमड़ते अन्याय के एहसास के साथ मैं उठा। नई उम्मीदों के लिए प्रार्थना करते हुए, सबसे पहले मैंने ईश्वर से परिवार की सुरक्षा की कामना की। रोज़मर्रा के कार्यों से निपटने के बाद, मैंने धीरे-धीरे जेल की कठोर परिस्थितियों में खुद को ढालने की कोशिश शुरू की। मगर मेरे मन में सबसे बड़ी चिंता मेरे बच्चों के भविष्य को लेकर थी। ये समय ऐसा था मानो मेरे और मेरी माँ की पूरी ज़िन्दगी की मेहनत व्यर्थ हो गई हो। मेरा जीवन निराशा और अंधकार में डूबा महसूस हो रहा था, फिर भी कहीं न कहीं मुझे उम्मीद और आशा की किरण की ज़रूरत थी जो मुझे इस भंवर से बाहर निकाल सके।
अब तक मैंने कुछ कैदियों से बातें की थीं और जेलर साहब की बातों से यह संकेत मिला था कि शायद कोई रास्ता निकलेगा। लेकिन मन में एक डर भी बैठा था कि कहीं ये लोग सिर्फ मुझे दिलासा तो नहीं दे रहे, ताकि मैं कोई गलत कदम न उठा लूं।
तभी बैरक का इंचार्ज नाश्ते और चाय की आवाज़ लगाने लगा। सुबह के सात बजे थे, और नाश्ते में मिठा और नमकीन दलिया और चाय थी। मेरे पास एक प्लास्टिक का मग था, जिसमें मैंने दलिया लिया और बाद में चाय ली । पानी की भी कमी थी—सुबह और शाम मिलाकर बस दो बाल्टी पानी मिलता था। एक बाल्टी में नहाना और कपड़े धोना होता, और दूसरी बाल्टी शौचालय और बर्तन धोने के लिए बचानी पड़ती।
इस तरह की कठिनाइयों का सामना मैंने पहले कभी नहीं किया था, लेकिन अब ईश्वर से प्रार्थना कर खुद को संभालने और लड़ने के लिए तैयार कर लिया। मेरे लिए अब ज़रूरी था कि मैं अपने परिवार के लिए जीवित रहूं। अभी मुझे कोई काम नहीं मिला था, तो दिन में ज़्यादातर वक्त खाली रहता। परिवार से मुलाकात इसी हफ्ते हो चुकी थी, अब अगले हफ्ते का इंतजार था, शायद कुछ अच्छी खबर मिले।
जैसे ही मैं बैरक से बाहर निकला, मुझे महेंद्र दिखाई दिया। शायद वो मुझे ही ढूंढ रहा था।
"कैसे हो?" महेंद्र ने पूछा।
"ठीक हूँ," मैंने जवाब दिया।
"आप चिंता मत करो। मैंने पुराने कैदियों से बात की है। उन्होंने कहा है कि दीदी और आपको ज़मानत मिल जाएगी," उसने भरोसा दिलाते हुए कहा।
"ठीक है, पर अवनी और मम्मी भी तो बेकसूर हैं," मैंने कहा।
"आपके बाहर आने के बाद उनका भी कुछ हल निकलेगा। और मेरी सजा तो मैं भुगत लूंगा। बस मेरी यही चिंता है कि आप सब लोग बाहर निकल जाओ," महेंद्र ने कहा।
मैंने गंभीर स्वर में पूछा, "महेंद्र, सच-सच बताओ कि मनीषा ने आत्महत्या क्यों की थी?"
"जीजा जी, जो बात मैंने पहले बताई थी, वही सही है। हम दोनों ने आईपीएल में बड़ी रकम लगा दी थी। मैंने उसे समझाने की कोशिश की थी, पर उसने कहा कि अब हम पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं," महेंद्र ने जवाब दिया।
"कितने पैसे लगाए थे?" मैंने जानने की कोशिश की।
"अब इस बारे में बात करने से कोई फायदा नहीं," उसने टाल दिया।
मैंने कहा, "जजमेंट कॉपी तो निकलवाओ। उसी से मालूम पड़ेगा कि हमें सजा क्यों दी गई।"
"आज नूपुर का फोन आएगा तो मैं उससे बोल दूंगा। आपको किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं?" उसने पूछा।
"हाँ, एक खाली पानी की बोतल चाहिए। अभी मैं बाल्टी का ही पानी पी रहा हूँ,जिसमे ढकने के लिए भी कोई बर्तन नही है " मैंने कहा।
"ठीक है, शाम तक इंतजाम करता हूँ। और हाँ, घबराना मत। ज्यादा किसी से बात मत करना और हमेशा वर्दी पहनकर ही बाहर निकलना। मैं देखता हूँ कि आपको अच्छी जगह काम भी मिल जाए," महेंद्र ने आश्वासन दिया।
इसके बाद, महेंद्र ने मुझे कुछ और कैदियों से मिलवाया और उनसे मेरा ख्याल रखने की बात कहकर चला गया। मुझे जेल के कुछ नियमों से अवगत कराया और वह हवालाती वार्ड में लौट गया।
इस पूरी परिस्थिति में, हर दिन मेरे लिए एक नई चुनौती थी, पर अंदर कहीं न कहीं एक छोटी सी उम्मीद अब भी बनी हुई थी।
मंदिर में थोड़ी देर बैठने के बाद मैं वाचनालय की ओर बढ़ा। समाचार पत्र हाथ में लिया और आज की प्रमुख खबरें पढ़ने लगा। तभी मेरी नज़र एक खबर पर ठिठक गई। यह खबर किसी और की नहीं, बल्कि मेरी ही थी। भोपाल पृष्ठ पर छपा था: "दहेज हत्या के आरोपी पति, सास, ननद और नंदोई सहित पाँच लोगों को न्यायालय ने सुनाई 10-10 वर्ष की सजा और 1000 रुपये का जुर्माना।"
यह खबर मेरे पुराने घावों को फिर से हरा कर गई। मीडिया का काम है घटना को छापना, परंतु जहाँ अन्याय हुआ हो, उसे भी उजागर करना मीडिया का दायित्व है। मगर यहाँ तो किसी ने मेरी सच्चाई जानने की कोशिश भी नहीं की। मेरा तमाशा बनाकर मीडिया ने इसे सनसनीखेज खबर के तौर पर परोस दिया। इस देश में मीडिया का अभाव नहीं है, पर सच्चाई को सामने लाने वाले मीडिया का ज़रूर अभाव है।
आज मुझे महसूस हुआ कि इस देश में रोजगार की कमी नहीं है, पर जब व्यक्ति स्वार्थ में लिप्त होकर काम करता है, तब असली कमी दिखाई देती है। मीडिया का काम है सत्य को उजागर करना। लोकतांत्रिक देशों में मीडिया को "चौथा स्तंभ" कहा जाता है क्योंकि इसका काम विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर नजर रखना है। लेकिन मीडिया ने मेरे मामले में केवल न्यायालय का जजमेंट दिखाया, बिना सच्चाई जाने, बिना अन्याय को सामने लाए।
महात्मा गांधी के एक लेख की याद आई, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारे पास पेट भरने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, लेकिन पेटी भरने के लिए नहीं। उन्होंने संसाधनों के संरक्षण और उनके शोषण पर चिंता जताई थी। गांधी जी का मानना था कि लालच और स्वार्थ की वजह से संसाधनों का शोषण होता है, और आज मीडिया भी इस लालच का हिस्सा बन गया है।
समाज के बढ़ने के साथ समस्याएं भी बढ़ती हैं, और इन सामाजिक समस्याओं का विश्लेषण करना मीडिया की जिम्मेदारी है। मीडिया ने जनता को जागरूक करने, भ्रष्टाचार को उजागर करने और सत्ता पर नियंत्रण रखने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन मेरे मामले में, उन्होंने इसे केवल एक चटपटी खबर मानकर छोड़ दिया। न्यायालय के फैसले को सीधा प्रसारित कर दिया, पर वास्तविकता को छिपा लिया। उन्होंने अन्याय को उजागर करने का मौका गंवा दिया और समाज को उसी पुरानी धारणा में बांधे रखा।
जब इस तरह की अन्यायपूर्ण घटनाएं बढ़ जाएंगी, तब शायद मीडिया ध्यान देगा, लेकिन तब तक समाज को भ्रमित रखने में वह अपनी भूमिका निभाता रहेगा। कम से कम, यह तो बताया जाना चाहिए था कि पाँचों आरोपियों को किस आधार पर सजा दी गई।
आज मीडिया की आदत बन चुकी है कि दुर्घटनाओं और संवेदनशील मुद्दों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाए, जबकि ईमानदारी, नैतिकता और साहस से जुड़ी खबरों को नजरअंदाज किया जाए। इस व्यवहार से समाज में अव्यवस्था और असंतुलन पैदा हो रहा है। मीडिया का यह स्वार्थी रवैया समाज को गलत दिशा में ले जा रहा है।
इस स्थिति में हमें समझना होगा कि मीडिया का सही कार्य क्या है, और समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी कितनी महत्वपूर्ण है।
जिस प्रकार पुलिस और न्यायप्रणाली का कार्य केवल अपराधियों को सजा देना नहीं, बल्कि निर्दोषों की रक्षा करना भी है। यह एक संतुलित व्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है, परंतु अक्सर वास्तविकता इससे भिन्न दिखाई देती है। इसी प्रकार, मीडिया का कर्तव्य मात्र खबरों का प्रसारण करना नहीं है। उसकी जिम्मेदारी विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका के निर्णयों का गहन विश्लेषण कर सही तथ्यों को उजागर करना और सच्चाई को सामने लाना भी है। परंतु आज की स्थिति में, सच्चाई की तह तक जाने की मेहनत कम ही दिखाई देती है। अपराध हुआ, अपराधी पकड़ा गया और उसे सजा मिल गई—इतनी खबर ही पर्याप्त मानी जाती है।
मेरे जीवन के कुछ मिथक, जो टीवी सीरियलों और फिल्मों से बने थे, अब साफ़ हो रहे हैं। जैसे "सी.आई.डी." और "क्राइम पेट्रोल" में दिखाया जाता है कि कैसे बारीकी से सबूतों की खोज की जाती है और अपराधी पकड़े जाते हैं। लेकिन यह सब केवल धारावाहिकों और फिल्मों की दुनिया तक सीमित है। असल जिंदगी में मामलों की इतनी गहराई से जांच अक्सर नहीं होती। इसके बजाय, कई बार केस को जानबूझकर उलझा दिया जाता है, ताकि कुछ लोगों के स्वार्थ पूरे हो सकें।
वास्तविकता यह है कि हर जगह पर सच्चाई की खोज और न्याय की भावना से काम नहीं किया जाता। कहीं न कहीं, इन व्यवस्थाओं का प्रयोग निजी लाभ के लिए किया जा रहा है, और आम जनता को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। न्याय और सच्चाई की जगह, स्वार्थ और चतुराई से भरे निर्णयों का बोलबाला है।
इस स्वार्थी दुनिया का असली चेहरा आज मेरे सामने पूरी तरह उजागर हो रहा है। मेरे जीवन के अनुभव मुझे यह साफ़-साफ़ दिखा रहे हैं कि किस प्रकार स्वार्थी तत्व व्यवस्थाओं का उपयोग अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कर रहे हैं। समाज में अनेक व्यवस्थाएँ तो मौजूद हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश का उद्देश्य न्याय और अन्याय के बीच के फर्क को मिटाकर केवल अपने लाभ को साधना बन गया है। हर व्यवस्था के पीछे छिपी वास्तविकता यही है कि उसके कर्ताधर्ता अपने व्यक्तिगत हितों को सर्वोपरि रखते हैं।
न्याय की परिभाषा अब बदल गई है, और सही-गलत की परख का कोई मानदंड नहीं रह गया है। जहाँ किसी व्यवस्था का मकसद समाज का कल्याण होना चाहिए था, वहाँ अब केवल स्वार्थ सिद्धि की ललक दिखाई देती है। ऐसी परिस्थिति में, नैतिकता और ईमानदारी को ताक पर रख दिया गया है, और हर कोई अपनी स्वार्थपूर्ण आकांक्षाओं को पूरा करने में लगा हुआ है।
सारा दिन समाज और उसकी संरचना के बारे में विचार करते-करते दिन बीत गया। कैसे समाज के विभिन्न वर्ग, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ किसी व्यक्ति के जीवन को आकार देती हैं, यही सोचते हुए मैंने वक्त गुज़ारा। शाम ढलने लगी थी। जेल के कारखानों में दिनभर काम करने वाले बंदी अब लौटकर अपने बैरकों की तरफ जा रहे थे। कुछ बंदियों को देखकर ऐसा लगा कि उन्हें अपने किए अपराधों का कोई पछतावा नहीं है। उनके चेहरे पर एक तरह की कठोरता और चाल-ढाल से ऐसा प्रतीत होता था कि अपराध उनके लिए साधारण बात हो गई है, जैसे वह उनके जीवन का एक हिस्सा बन चुका हो।
लेकिन कुछ बंदियों के चेहरे और उनकी शारीरिक स्थिति देखकर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि ये भी अपराधी हो सकते हैं। एक बंदी, जो दोनों आंखों से देख नहीं सकता था, और एक और जो महज 3-4 फीट लंबा था, उनकी मासूमियत और कमजोर हालत देखकर ऐसा लगा कि जैसे ये लोग अपराध के दोषी नहीं, बल्कि समाज की कठोरता और निर्दयी परिस्थितियों के शिकार हैं। उनकी मासूमियत और परिस्थितियों से अनुकूलित जीवन देखकर लगा कि शायद अपराध उनकी मजबूरी थी, स्वभाव नहीं।
यह जेल मात्र दो हजार बंदियों की क्षमता वाली थी, लेकिन इसमें चार हजार से भी ज्यादा बंदियों को ठूंसा गया था। हर तरफ भीड़, अव्यवस्था और असुविधाएं थीं। इस स्थिति ने मेरे मन में प्रशासन के प्रति गहरी निराशा और नकारात्मकता पैदा कर दी। जेल की यह भीड़, बदइंतजामी और बदतर हालात देख मेरा दिल बैठ गया। कैसे इतने सारे लोगों को एक ही जगह समेटकर समाज सुधार की उम्मीद की जा सकती है?
मैं चबूतरे पर बैठा इन सबको देख रहा था। शाम ढल रही थी और पांच बज चुके थे। धीरे-धीरे बंदी अपने बैरकों से निकलकर मैदान में टहलने आ रहे थे। तभी भूरा भाई, जिनसे मेरी थोड़ी जान-पहचान हो गई थी, टहलते हुए मेरे पास आ गए।
उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा, "और मास्साब, क्या सोच रहे हो?"
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, "कुछ नहीं, बस आपका इंतजार कर रहा था।"
भूरा भाई हंसते हुए बोले, "मेरा इंतजार क्यों? हम तो यहीं हैं, कभी भी मिल सकते हो।"
मैंने जवाब दिया, "यहां किसी और से जान-पहचान नहीं है, इसलिए आपसे ही बात करने का मन हुआ।"
भूरा भाई ने बड़े सहज भाव से कहा, "कोई बात नहीं, धीरे-धीरे सब से जान-पहचान हो जाएगी। तुम कहो तो मैं तुम्हारी दोस्ती करवा दूं कुछ और लोगों से।"
मैंने मना करते हुए कहा, "नहीं, आपसे दोस्ती हो गई है, धीरे-धीरे सब से हो जाएगी।"
हम दोनों कुछ देर चुप रहे। फिर मैंने पूछा, "आप किस कारखाने में काम करते हैं?"
उन्होंने जवाब दिया, "प्रिंटिंग प्रेस में।"
"वहां क्या काम होता है?" मैंने उत्सुकता से पूछा।
उन्होंने बताया, "जेल के रजिस्टर, कॉपियां और सरकारी बिल छापने का काम करते हैं हम।"
"क्या आपको भी काम मिला?" उन्होंने मुझसे पूछा।
"अभी तक नहीं," मैंने जवाब दिया।
मैंने फिर पूछा, "आपके भाई कहाँ हैं?"
उन्होंने अपने बड़े भाई की तरफ इशारा करते हुए कहा, "वो मेरे बड़े भाई हैं। छोटा भाई शायद अभी बैरक में है।"
"क्या उनकी शादी हो गई?" मैंने पूछा।
उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "नहीं, उन्होंने शादी नहीं की। उन्हें नेता बनना था, इसलिए शादी से दूरी रखी।"
"और छोटे भाई की?" मैंने फिर पूछा।
"उसकी शादी हो गई, दो बच्चे भी हैं," उन्होंने सहजता से बताया।
इसी दौरान एक 21-22 साल का शरीफ सा लड़का हमारे पास आ गया। भूरा भाई ने उसे देखते ही कहा, "मास्साब, इससे मिलो। ये मेरा केस पार्टनर है, राकेश।" मैंने उससे हाथ मिलाया और पूछा, "आपको कितनी सजा मिली है?"
भूरा भाई ने गंभीरता से कहा, "सभी को आजीवन कारावास है, मास्साब।"
मैंने चौंककर पूछा, "राकेश का क्या कसूर था?"
भूरा भाई ने गहरी सांस लेते हुए कहा, "इसका कोई कसूर नहीं था। इसके पिता की हत्या विरोधी पक्ष के लोगों ने की थी, और इसे भी गोली मारी थी। कई दिनों तक ICU में रहा। फिर मुकदमे के फैसले के बाद ये भी यहां आ गया।"
मैं यह सुनकर स्तब्ध रह गया। मेरे पास कहने को कुछ नहीं था, बस सोच में पड़ गया। वे दोनों आपस में बात करते रहे, और मैं विचारों के सागर में डूबा रहा। शाम के छह बजते ही सायरन बजा और हम अपने-अपने बैरक की ओर लौट चले।