#डायरी 14-10-2016
भारत-भवन में चल रहें नेशनल प्ले फेस्टिवल में मंचित होने वाले नाटक को देख पानी की उत्सुकता में 1- घंटे पहले ही पहुँच गये हम... आदतन। भारत-भवन कलाकार और कलाप्रेमियों के लिये जादुई दुनियाँ से कम न हैं।
कलाकार जादू रचतें हैं और कलाप्रेमी उस जादू में होकर एक दुनियाँ बनातें हैं... रंगों की,सपनों की,कहानियों-किस्सों की और जज्बातों के संगीत की.. एक दुनियाँ.. जिधर पे रूह कहतीं हैं और रूह ही सुनतीं हैं।
आज मंचन होना है.. एक कहानी औरत की.. नाम है... #कैंसरवाइव_सुबह_का_पता और हम बैठे हैं आंतरिक सभागार में.. यहाँ जो सुकून हैं... मेरे लिये वही मोक्ष हैं.. सारी उथल-पुथल वाले खयालात,शोर और भीड़ से दूर... छम से पत्ते के उपर डोलती हुई ओंस की बूँद सी कोमल पवित्र भाव उकेरती एक तपोभूमि सा। हां.. यह एक तपोभूमि भी है..! और हांथों में हैं मंचित होने वाले नाटकों की विवरण पुस्तिका... आज के नाटक की थीम है.. ब्रेस्ट केंसर! नाटक शुरू होता है.. एक खूबसूरत डांस के साथ शानदार लाइटिंग इफेक्ट्स से। नाटक की मुख्य नायिका डांस खत्म करके अपने पति को पीछे से आकर गले लगा लेती है.. तभी पति के चेहरे पर चिंता के भाव प्रगट होने लगतें हैं, और वह पत्नि के चेहरे पर बडे़ ही प्रेम से हांथ रखकर कहता है.. सुनों... तुम्हारी छाती में गांठ हैं.. एक चने के दाने जितनीं। प्लीज़ तुम डॉक्टर के पास चलो.. मैं कोई चांस नहीं ले सकता!! लेकिन पत्नि थोड़ी चिढ़ और सहम सी जाती है और असहमति जताते हुए कहती है के तुम न.. कुछ भी बस बहुत चिंता करते हो.. ऐसे ही है.. कुछ भी तो नहीं!! °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
..... उसकी ये बातें मुझे चार साल पीछे,बरबस हीं खीचें ले गयीं.. इंटर्नशिप के साल में...! तब हम अपने हॉस्पिटल में केस टेकिंग लिया करते थे। और एक पेशेंट था... जिसका केस की डीटेल्स और नाम.. एकदम सही-सही याद नहीं, लेकिन इतना ज़रूर याद है के उसे केंसर था.. फिर भी वह मानना नहीं चाहता था या यह कहें कि उसे विश्वास ही न होता था के केंसर हैं,बस खुद ही बोलता रहता था के दवा लिख दीजिए मैडम.. पैले (पहले) वाले डाक्टर ने तो पता नइ कछु भी लिख दओ..!!
हमें नइयां जो केंसर-बेंसर, आजकल इनौरो को धंधा बन गऔ है.. कछु भी बीमारी बता दइ और बस... खैंचों पैइसा!! उस वक्त उसकी बातों पर हंसी भी आती थी और थोड़ी दया भी.. क्यूंकि सीनियर्स भी बोलते थे के ये पगला सा है.. कितना भी समझाओ लेकिन मानता ही नहीं, बस एक ही रट लगाता है.. के आप तो बस दवा लिख दो। लेकिन अभी समझ सकतीं हूँ उसके वो पागलपन या अस्वीकृति को.. के हमारा सामाजिक ढांचा ही कुछ ऐंसा है के हम कैंसर जैसी घातक बीमारी को टैबू की तरह देखतें हैं,या यूँ कहें कि श्राप की तरह..!
जिससे ग्रसित इंसान.. खुद ही एक्सेप्ट नहीं करना चाहता! यह बात बहुत से बुद्धिजीवियों को हजम न होगी, क्यूंकि सभी का यही मानना है के लोग जागृत हो रहें हैं.. यह बहुत पुरानी बातें हैं। लेकिन सच्चाई तो यही है के संयोग से हम अच्छे घरों में परवरिश पायें हैं.. इसीलिए हमारा इतनी बेकवर्ड बातों के अब भी एक्सिसटेंस पर शंका होती है। लेकिन आज भी जाने कितने ही लाखों लोग कैंसर से सिरफ जागृति के आभाव में अपने जीवन से हॉथ धो बैठतें हैं। और जब बात ब्रेस्ट कैंसर की आये.. तब तो हाल करेले पे नीम चढ़ा जैसा हो जाता है!! क्यूंकि पहली बात तो यह.. के हम स्त्रियाँ शुरू से ही कुछ इस तरह हे ट्रेंड की जातीं हैं के... दर्द सहना और होंठों पे मुस्कुराहट रखना ही हमारी नियति है।मासिक धर्म... हमें होना हैं, शादी निभाना... औरत की जिम्मेदारी ज्यादा होती है, निर्जला व्रत... हमें रहना है, बच्चा.... हमें जनना है.. आदि-आदि।
पिता जो डकार ले.. तो वह गैस की बीमारी कहायी जाती और वहीं दूसरी ओर.. अगर मॉ करे, तो वह डकाsssर कहलायेगी...!!! कोई बाहर वाला बोले न बोले,लेकिन खुद उसके बच्चे ही टोक दिया करेंगे.. के मां.. क्या है ये?!! कुछ तरीका है ये! क्यूँ... स्त्रियाँ इंसान नहीं होतीं?! शायद नहीं होतीं.... हमें औरत से इंसान बनने तक का सफर तय करनें में अभी और वक्त लगेगा। °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°
नाटक... सीन दर सीन आगे बढ रहा है.. और साथ ही नायिका का अंतरद्वंद भी... पहले तो वह खुद ही यह स्वीकार न कर पा रहीं थी के उसे कैंसर हैं... लेकिन वहीं जब उसने यह स्वीकार कर लिया के हॉ... उसे यह घातक बीमारी है..! तब फिर वह आत्मग्लानि में डूबने सी लगी.. के अब उसकी वजह से उसके पति पर बोझ पड़ जायेगा, उसकी वजह से पति के जीवन में परेशानियाँ और जिम्मेदारियां आ धमकेंगी!!
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आत्मग्लानि... यह एक इन्हेरिटेंट.. माने कि अनुवांशिक सी बला होती है स्त्री मन में... के ओह मेरी वजह से मेरा परिवार तकलीफ में आगया..!! भले ही कोई दोष हो या न हो.. लेकिन पगली सी हम स्त्रियाँ हर बात में दुनियाँ के बोलने के पहले ही खुद को कूसूरवार मानने लगतीं हैं! खुद अपनी मॉ को ही देखतीं हूँ तो जी जल जाता है... जब तक कोई भी पीड़ा अपने चरम पे न पहुँच जायें.. कुछ भनक तक न लगने देतीं!! और उस पर भी एडमिट न होनें की ज़िद... ताकि घरवाले परेशान न हों हास्पिटल के चक्कर काटने में। बुखार में भी किचन न छोड़ना... मॉ... और मॉ की तरह बाकि सारी स्त्रियों... तुम ऐंसीं क्यूँ हो???? तुम सब ऐंसीं हो... इसीलिये भारत में सबसे ज्यादा ब्रेस्ट कैंसर से औरतें अपने जीवन गवां देतीं हैं!!
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नाटक अब खत्म हुआ और तब फिर घर आकर सब छान मारा.. तो यह निष्कर्ष पाया.. के भारतीय महिलाएँ जागृति के अभाव में मारी जातीं हैं... क्यूंकि कैंसर की एडवांस स्टेज में उनकी बीमारी का पता चलता है... तब... जबकि बीमारी के इलाज का कोई परिणाम, जीवन न हो पाता!! ********************************
वर्ष 2012 के आंकड़ों के अनुसार... भारत, यूएस और चाइना, यह तीनों मिलाकर... विश्व में ब्रेस्ट कैंसर का एक तिहाई हिस्सा रखतें हैं। जिसमें से.. भारत में डायग्नोस्ड होने और मृत्यु होने का अनुपात सबसे ज्यादा है... मतलब कि हमारे यहाँ हर नये ब्रेस्ट कैंसर की 2-मरीज पर 1 एक मरीज की मृत्यु हो जाती है...!! लेकिन... दूसरी और यूएस और चाइना में यह मृत्यु दर क्रमशः 6 में से 1 और 4 में से 1 है!!!! .............. इसका अर्थ यह है के जागरुकता और खुद के प्रति परवाह के आभाव में हम स्त्रियाँ सहन करतीं हैं और छिपा लेतीं हैं या फिर ध्यान नहीं देतीं हैं। इसीलिये कैंसर जब पूरी तरह से शरीर को भीतर ही भीतर खा चुका होता है... तब जाकर उसका पता चलता हैं... और बहुत देर हो चुकी होती हैं।। बेशक, कैंसर एक जानलेवा बीमारी है... लेकिन सही वक्त पर डायग्नोसिस और इलाज मिलने पर, जान बच जाती है!! अक्टूबर सप्ताह... विश्व के कई देशों में National Breast-Cancer-Awareness Month के रूप में मनाया जाता है... जागरुक होना ज़रूरी है.. क्यूंकि जागरुकता ही बचाव है!! 🌻