हमारा भारत धर्म-निरपेक्ष देश है। विभिन्न धर्मों में पारस्परिक सहिषुण्ता धर्म-निरपेक्ष है। धार्मिक-उन्माद को रोकने का नाम है- धर्म-निरपेक्षता। यह कार्य आदिकाल से चल रहा है। इस सम्बन्ध में अथर्ववेद पृथ्वी सूक्त में कहा है कि - ' जनं विभूति बहुधा विवाचसम, नावाधर्माणम पृथिवी यथौ कसमा' अर्थात पृथ्वी जो विभिन्न धर्मों और भाषाओँ के लोगों को आश्रय देती है, हम सबका कल्याण करे। इसमें आगे कहा गया हैं कि माँ पृथ्वी! हमें अपने पुत्रों के रूप में ऐसी शक्ति दो कि हम आपस में सदभावनापूर्वक संवाद कायम करें। एक-दूसरे से मिले और एक-दूसरे के साथ मधुरतापूर्वक व्यवहार करें। ऋग्वेद तो ' एकैव मानुषी जाति:' अर्थात सभी प्राणी एक ही जाति के हैं, कहती है।
भारत की स्वाधीनता के बाद भारत के दो भाग हुए- हिंदुस्तान और पाकिस्तान। पाकिस्तान ने अपने को मुस्लिम राष्ट्र घोषित किया, लेकिन हिंदुस्तान ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि हमारी भारतीय संस्कृति इसकी आज्ञा नहीं देती। हमारे हिंदुस्तान में विभिन्न धर्मावलम्बी लोग रहते हैं- सनातन धर्मी,आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, शैव,वैष्णव,जैन, बौद्ध,कबीरपंथी, दादूपंथी, निरंकारी,सिक्ख, ईसाई, मुसलमान, पारसी आदि। वस्तुतः ये धार्मिक सम्प्रदाय न केवल एक-दूसरे से जुड़ते हैं, अपितु प्रत्येक सम्प्रदाय के भीतर भी विभिन्न वर्ग हैं, जो परस्पर टकराते हैं। मुसलमानों में शिया और सुन्नियों का, बोहरो और अहमदियों का, ईसाईयों में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंटों का, हिन्दुओं में सवर्णों और अनुसूचित जातियों का झगड़ा सामान्य घटनाएं हैं। इन्हीं घटनाओं से क्षुब्ध होकर सोहनलाल द्विवेदी जी को कहना पड़ा कि -
' मस्जिद से मंदिर लड़ते हैं
गिरजा से लड़ते हैं विहार मठ।
धर्म अनर्थ कर रहा कितना
करते हैं अधर्म पामर शठ ।।"
अपने धर्म के प्रति अटूट आस्था, विश्वास तथा श्रद्धा रखना साम्प्रदायिकता नहीं, साम्प्रदायिकता के मूल में है- धार्मिक कट्टरता। धार्मिक कट्टरता धर्म का गुण है, दोष नहीं। दोष तब बनता है जब यह धार्मिक उन्माद बनकर 'सर्वधर्म समभाव' की अवहेलना कर 'जियो और जीने दो ' की भावना को ठेस पहुँचाती है। धार्मिक उन्माद भारत माता के भाल पर कलंक है। यह राष्ट्र की प्रगति के लिए बाधक है तो क़ानून और व्यवस्था का शत्रु है। देशवासियों के सुखी और शांतिपूर्ण जीवन के लिए अभिशाप है।