हमारी भारतीय संस्कृति में अलग-अलग प्रकार के धर्म, जाति, रीति, पद्धति, बोली, पहनावा, रहन-सहन के लोगों के अपने-अपने उत्सव, पर्व, त्यौहार हैं, जिन्हें वर्ष भर बड़े धूमधाम से मनाये जाने की सुदीर्घ परम्परा है। ये उत्सव, त्यौहार, पर्वादि हमारी भारतीय संस्कृति की अनेकता में एकता की अनूठी पहचान कराते हैं। रथ यात्राएं हो या ताजिए या फिर किसी महापुरुष की जयंती, मन्दिर-दर्शन हो या कुंभ-अर्द्धकुम्भ या स्थानीय मेला या फिर कोई तीज-त्यौहार जैसे- रक्षाबंधन, होली, दीवाली, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, शिवरात्रि, क्रिसमस या फिर ईद सर्वसाधारण अपनी जिन्दगी की भागदौड़, दुःख-दर्द, भूख-प्यास सबकुछ भूल कर मिलजुल के उल्लास, उमंग-तरंग में डूबकर तरोताजा हो उठता है।
इन सभी पर्व, उत्सव, तीज-त्यौहार, या फिर मेले आदि को जब जनसाधारण जाति-धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर मिलजुलकर बड़े धूमधाम से मनाता है तो उनके लिए हर दिन उत्सव का दिन बन जाता है। इन्हीं पर्वोत्सवों की सुदीर्घ परम्परा को देख हमारी भारतीय संस्कृति पर "आठ वार और नौ त्यौहार" वाली उक्ति चरितार्थ होती है। परिवर्तन समाज की अनिवार्य प्रक्रिया है, युग का धर्म है। परिवर्तन हमारी संस्कृति की जीवंतता का प्रतीक है। इसने न अतीत की विशेषताओं से मुंह मोड़ा ना ही आधुनिकता की उपयोगिता को अस्वीकारा, तभी तो महाकवि इकबाल कहते हैं-
"यूनान, मिश्र, रोमां , सब मिट गये जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी , नाम-ओ-निशां हमारा ।।
कुछ बात है कि हस्ती , मिटती नहीं हमारी ।
सदियों रहा है दुश्मन , दौर-ए-जहाँ हमारा ।।"
रक्षाबंधन पर्व बहिन द्वारा भाई की कलाई में राखी बांधने का त्यौहार भर नहीं है, यह एक कोख से उत्पन्न होने के वाले भाई की मंगलकामना करते हुए बहिन द्वारा रक्षा सूत्र बांधकर उसके सतत् स्नेह और प्यार की निर्बाध आकांक्षा भी है। युगों-युगों से चली आ रही परम्परानुसार जब बहिन विवाहित होकर अपना अलग घर-संसार बसाती है और पति, बच्चों, पारिवारिक दायित्वों और दुनियादारी में उलझ जाती है तो वह मातृकुल के एक ही मां के उत्पन्न भाई और सहोदर से मिलने का अवसर नहीं निकाल पाती है, जिससे विवशताओं के चलते उसका अंतर्मन कुंठित हो उठता है। ऐसे में ‘रक्षाबंधन‘ और भाई दूज, ये दो पर्व भाई-बहिन के मिलन के दो पावन प्रसंग हैं। इस पावन प्रसंग पर कई बहिन बर्षों से सुदूर प्रदेश में बसे भाई से बार-बार मनुहार करती है-
"राह ताक रही है तुम्हारी प्यारी बहना
अबकी बार राखी में जरुर घर आना
न चाहे धन-दौलत, न तन का गहना
बैठ पास बस दो बोल मीठे बतियाना
मत गढ़ना फिर से कोई नया बहाना
राह ताक रही है तुम्हारी प्यारी बहना
अबकी बार राखी में जरुर घर आना "
गाँव-देश छोड़ अब तू परदेश बसा है
बिन तेरे घर अपना सूना-सूना पड़ा है
बूढ़ी दादी और माँ का है एक सपना
नज़र भरके नाती-पोतों को है देखना
लाना संग हसरत उनकी पूरी करना
राह ताक रही है तुम्हारी प्यारी बहना
अबकी बार राखी में जरुर घर आना
भागदौड़ भरी जिन्दगी के बीच आज भी राखी का त्यौहार बड़े उत्साह और उमंग से मनाया जाना हमारी भारतीय संस्कृति की जीवंतता का परिचायक है। इस अद्भुत्, अमूल्य, अनंत प्यार के पर्व का हर बहिन महीनों पहले से प्रतीक्षा करती है। पर्व समीप आते ही बाजार में घूम-घूम कर मनचाही राखी खरीदती है। वस्त्र, आभूषणों आदि की खरीदारी करती है। बच्चों को उनके मामा-मिलन के लिए आत्मीय भाव से मन में उत्सुकता जगाती है। घर-आंगन की साफ-सफाई करती है। स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर और नये कपड़ों में सज-धज परिवार में असीम आनंद का स्रोत बहाती है। यह हमारी भारतीय संस्कृति की विलक्षणता है कि यहाँ देव-दर्शन पर भेंट चढ़ाने की प्रथा कायम है, अर्पण को श्रृद्धा का प्रतीक मानती है। अर्पण फूल-पत्तियों का हो या राशि का कोई फर्क नहीं। राखी के अवसर पर एक ओर भाई देवी रूपी बहिन के घर जाकर मिष्ठान, फूल, नारियल आदि के साथ "पत्रं-पुष्पं-फलं सोयम" की भावना से यथा सामर्थ्य दक्षिणा देकर खुश होता है तो दूसरी ओर एक-दूसरे की आप-बीती सुनकर उसके परस्पर समाधान के लिए कृत संकल्पित होते हैं। इस तरह यह एक तरफ परस्पर दुःख, तकलीफ समझने का प्रयत्न है, तो दूसरी ओर सुख, समृद्धि में भागीदारी बढ़ाने का सुअवसर भी है।